Thursday 24 February 2022

बातें अवध की: द्वितीय बादशाह अवध के नसीरुद्दीन हैदर की ख़ास धनियाँ महरी (कनीज़ों की दरोगा): मोतियों की छड़ी

बादशाह नसीरुद्दीन हैदर (१८२७-१८३७) ने उम्र भर उधार की अक्ल से सारे काम किये, चूकि धनिया महरी से उनका जीने-मरने का साथ था, इसलिए उसका दिमाग़ सबसे आगे चलता था बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के जमाने में दरबार और महल में अंग्रेजों तथा छोटे तबक़े के लोगों की बडी धूम मची हुई थी।

 

बादशाह ग़ाजीउद्दीन हैदर के मरने के बाद उनका बेठा मिर्जा सुलेमा जाह उफ़ तसीरुद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे । यह दासी पुत्र थे।इंका   पालन-पोषण ऐसे वातावरण में हुआ था कि यह अत्यन्त क्लिसी एवं अंग्रेजपरस्त शासक बना।

 

अवध के बादशाह नसीरुद्दीन  हैदर सन् १८२७ में पच्चीस बरस की उम्र में तद़्ते विरासत पर विराजमान हुए थे और उन्होंने पूरे दस साल तक हुकूमत की।

 

मशहूर है कि अवध के दूसरे बादशाह नसीरुद्दीन हैदर (१८२७-१८३७) अपनी ख़ास ख़वास धनियाँ महरी के सिवा और किसी के जगाए नहीं जागते थे

 

सुबह सबेरे कनीजों की एक पलटन लेकर धनियाँ उनके शबिस्तान में दाखिल होती थी। उन ख़ादिमाओं के हाथों में रंगीन फूलों के गुलदस्ते, महकदार गजरे, चाँदी के गुलाब- पाश, अगर-लोबान के मझँँझारे, मोरपंखी, चँवर, रेशमी रूमाल और मीठी आवाज़ों वाले साज हुआ करते थे।

 

इन्हीं नाज़वालों के नाजुक हथियारों से बादशाह की नीदे ग़ज़ब पर हमला हीता था और वो सत्तर नखरों के बाद आँख खोलते थे | इस छेड़छाड़ में बादशाह कभी-कभी चन्दन की एक छड़ी से धनियाँ को मारते भी थे।

 

एक दिन धनियाँ महरी ने बादशाह से कहा, “साहबे आलम, ये सूरत हराम छड़ी आपके सुल्तानी हाथों में ऐसी बेजा' मालूम होती है जैसे कमखाब के लहेँंगे पर टाट का पैवन्द हुजूरे आला, ये छड़ी अगर मोतियों से जड़ी होती तो कुछ आपके हाथों की जीनत बनती

 

बादशाह को यह बात जँच गई और उसी दिन शाही सुनारो को हुक्म हुआ कि चौक के जौहरियों से जवाहरात लेकर कुछ जड़ाऊ छड़ियाँ तैयार की जाएँ।अब क्या था, छड़ियों में सैकड़ों मोती और हजारों के लाल ठाँके जाने लगे|

 

मज़ा तो ये कि अब जो भी छड़ी बादशाह धनियाँ को छुआते वो अपनी होशियारी से उस छड़ी को हथियाकर ही छोड़ती थी और वो सब छड़ियाँ उसकी अमानत बन गइ।

 

फिर भज्नञा क्यों लखनऊ की वो खवास शहर के रईसों की सरगना बन जाती जिसके नाम की मस्जिद मौलवीगंज में, इमामबाड़ा गोलागंज में और पुल आलमनगर में बन गये। ब्रिटिश म्यूजियम में उन जड़ाऊ छड़ियों में से एक आज भी मौजूद है।

 

जब शाहे अवध की सवारी निकलती तो धनिया महरी बहुत बन-ठन कर हाथों में गिलौरीदान लेकर उनके साथ चलती थी, बेगमों को रूप-धूप और आब-ताब का कोई सवाल ही था।

 

सिफ़ जिस महल की तरफ़ धनिया महरी का इशारा हो जाता, बादशाह रात को उसी महल पर मेहरबान होते थे। जुलाई, १८५३७ की रात जब नसीरुद्दीन हैदर को ज़हर देकर सुला दिया गया तो उनकी मौत का सारा इल्ज़ाम धनिया महरी के सर आया, क्योंकि चढ़ते चाँद के वक्त बादशाह ने आखिरी शरबत धनिया के हाथों ही पिया था

 

अपने इस हश्र के लिए नसीरुद्दीन भी कुछ कम कुसूरवार नहीं थे। अंग्रेज रेजीडेंट कर्नल लो ने उनकी नाक के नीचे ही उनकी बेगमों की बांदियों की दारोगा धनिया महरी को उनके खाने में जहर मिलाने के लिए खरीद लिया। 07-08 जुलाई, 1837 की रात इसी धनिया ने उनकी जान लेकर समूचे अवध को हिला दिया।

 

यद्यपि इस साजिश में कई लोग शामिल थे जो पर्द के पीछे ही रह गये इनकी मुत्यु के बाद इस द्वितीय बादशाह अवध को इरादतनगर के मशहूर कबेला में दफ़्न कर दिया जहाँ उनकी प्यारी बेगम कुदसिया महल का मज़ार था।

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.












No comments: