Wednesday, 30 October 2024

नारी का विक्षोभ: सूरज ने जब सुना सविता कविता करती है तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। (रांगेय राघव)

अभी चार-पांच साल की ही बात है’, कल्ला ने अपने चश्मे को उतार कर साफ करते हुए कहा, ‘मैं तब लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। आप तो जानते ही हैं कि लखनऊ में कैसी बहार है।

 

बीच ही में सिद्दी बोल पड़ा, ‘ओह, बला की ठंड है। चंदू, जरा यार, ढंग से बैठो! कोई खुदगर्जी की हद है कि सारा कंबल अपने चारों तरफ लपेट बैठे हो। भाई, वाह?’

 

अमां, तो बिगड़ते क्यों हो? आखिर कोई बात भी हो’, मुड़कर चंदू ने कहा, ‘हां, भाई कल्लाजी, फिर!’

 

कल्ला ने अपने दुशाले को और अच्छी तरह लपेट लिया। फिर कहा, ‘लखनऊ की जिंदगी के तीन पहलू हैं, एक नवाबों का, दूसरा टुटपूंजियों का, और तीसरा गरीबों का। क्या बताएं यार, हमारा समाज ही कुछ...’

 

खबरदार!’ सिद्दी ने जोर से डांटकर कहा, ‘कह दिया है, बको मत!’

और चंदू ने अपने मटरगश्ती वाले लहजे से कहा, ‘हां, भई कल्ली जी, फिर?’

कल्ला फिर कहने लगा, ‘देखो यार, यह बोलने नहीं देता!’

चंदू ने सिद्दी की ओर देखकर कहा, ‘खामोश!’

 

कल्ला ने कहना शुरू किया, ‘जवानी किस पर नहीं आती, मगर जो उस पर आई, वैसी शायद हमने कभी नहीं देखी। मेरे साथ एक लड़का सूरज पढ़ता था। जात का वह कायस्थ था, एक लफंगा। लफंगा से तुमलोग कुछ समझ लेना। भाई, वक्त ऐसा है कि कालेज के लड़के चलते हैं कि उनकी गिनती उस्तादों में हो। नेकटाई, सूट, चमचमाते जूते, कालेज में कोई कुछ पहन लें पर बात करने तक का जिसे सलीका नहीं, वह किसी काम का नहीं।

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सूरज की आंखे सदा लड़कियों की ही खोज में रहती थीं।

संयोग की बात है,’ कल्ला ने आगे कहा, ‘एक लड़की सविता को देखकर सूरज पागल हो गया। 

सूरज के बाप नहीं थे, मां नहीं थी। हां, गांव में उसे चाचा थे, चाची थीं। उनके बाल-बच्चे थे। और सबसे बड़ी एक और बात थी। चाचा जमींदारी का इंतजाम करते थे। सूरज उनका कहना मानने वाला लड़का था।

 

लेकिन कानून की नजर से चाचा सूरज के चाचा हों, या सिकंदर के चाचा हों, जायदाद का वह कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि वही जायदाद का मालिक था।

इस गारंटी के होते हुए सूरज को किस बात की चिंता होती!’

 

सविता देखने में जितनी सुंदर थी, उतनी की चतुर भी थी। सबसे बड़ी बात उसमें यह थी कि वह कालेज के डिबेटों में खूब हिस्सा लिया करती थी। जब वह बोलना शुरू करती, तो कोई कहता-इसका बाप भी ऐसी बातें नहीं सोच सकता! जरूर कोई उस्ताद है।

 

इसके पीछे, जो प्रेम के कारण अपने आप को छिपा कर इसे आगे बढ़ा रहा है; लेकिन इन बातों से होता जाता कुछ नहीं। अगर मान लिया जाए कि वह रट कर ही आती थी, तो रटने की भी एक हद हुआ करती है। आज तक हमने नहीं देखा किचंदकांता संततिके चौबीसों हिस्से किसी की जबान पर रखें हों। वह बोलने में एक भी भूल नहीं करती।

उसके ख्याल एकदम आजाद थे। विधवा विवाह, तलाक, सहशिक्षा, स्त्री का नौकरी करना, गोया जिंदगी के जिस पहलू में नारी की जो बात है, वह सविता की ही थी। हर बात पर उसके अपने अलग विचार थे।

 

नए विचारों की वह लड़की शाम को लड़कों के साथ घूमने निकलती, पार्टियों में जाती, कविता लिखती। कविता का मजाक शायद आप लोगों को मालूम नहीं। कोई आपकी तरफ आंखें उठाकर देखता तक नहीं तो बस, कविता लिखिए!

 

सूरज ने जब सुना कि वह कविता करती है, तब दौड़ा-दौड़ा उस्ताद हाशिम के पास गया। उस्ताद ने उसे देखा, तो सब कुछ समझ गए।

 

उनके लिए क्या बड़ी बात थी? कालेज का लड़का चटकदार कपड़े पहने उनके पास आया है। चेहरा गुन्ना नून है, मतलब आंखों में वह खुशी नहीं, वह उत्साह नहीं, जो जवानी का अपना लक्षण है, तो आखिर इसका क्या कारण है? उस्ताद बिना पूछे ही भांप गए।

 

उस्ताद ने मुस्करा कर पीठ ठोंकी। कहा, ‘बेटा, शाबाश! मगर मैं एक गजल के बारह आने से कम नहीं लेता। हुलिया बताओ, जो टूटा-फूटा ख्याल हो, उगल जाओ, आला जबान में तरतीब से सजी हुई वह चीज दे दूंगा कि जिसके लिए वह होगी, वह तो रीझेगा ही, इधर-उधर बैठे हुए भी दो-चार अपने आप रीझ जाएंगे।

 

पांच रुपए का नोट काफी था। सूरज लौटा तो गुनगुनाते हुए। मुझे खुद ताज्जुब हुआः चार बजे गया था, तब एक शरीफ आदमी था। अब सिर्फ छह बजे हैं मगर शायर हो गए हैं।

 

आप शायद पूछेंगे कि सविता तो करती है कविता हिन्दी में और सूरज साहब करते हैं शायरी उर्दू में, ऐसा क्यों, तो सुन लीजिए कि कायस्थों में अधिकतर मर्द हिन्दी नहीं पढ़ते, औरतें पढ़ती हैं।

सविता भी कायस्थ थी। उसके एक छोटी बहन, एक छोटा भाई और एक बड़े भाई थे। भाई लॉ में पढ़ते थे। इरादा था छूटते ही वकालत शुरू करने का।

 

सविता अंधी थी। उसे सूरज की बातें मालूम हो गई, लेकिन जाने उसे एकदम टाले दे रही।

 

सूरज सविता को गुजरते देखता, तो गजल पढ़ता। जब उसका कोई नतीजा नहीं निकलता, तो कहता-खुदा समझे उस कमबख्त हाशिम से! ऐसे हंसकर चली जाती है, जैसे हम सिर्फ गजल पढ़ रहे हों।

 

किंतु प्रेम की कोई बात स्थिर नहीं है। उसके अनजाने का बंधन किसी भी वक्त जंग बनकर कठोर से कठोर लोहे को भी चाट जा सकते हैं। दोनों ओर एक-सी परिस्थिति है। दोनों ओर एक सी सूनापन है। आप कहें यह बेवकूफी की इंतहा है। मैं कहूंगा असली प्रेम वही है, ‘जिसे दुनिया बेवकूफी समझे, क्योंकि बेवकूफ वही है!’

 

चंदू ने टोककर कहा, ‘हम समझ रहे हैं!’

कल्ला ने एक बार सिर हिलाकर कहा, ‘समझ रहे हैं, तो बताइए क्या हुआ?’

सिद्दी ने कहा, ‘नहीं, आप ही बताइए!’

कल्ला मुस्कराया। कहने लगा, ‘तो हुआ वही जो होना था।

 

यानी?’ सिद्दी ने चौंककर पूछा।

एक दिन’, कल्ला ने कहा, ‘सविता के बड़े भाई मेरे पास आए। कहा आप सूरज के गहरे दोस्तों में से हैं ?’

मैंने कहा, ‘जी हां, फरमाइए।

वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘कैसा लड़का है?’

 

इसके बाद सोरों के पंडों की तरह मुझे सूरज के सात पुश्तों के नाम गिनाने पड़े। घर की हालत बतानी पड़ी।

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भाई साहब ने बताया कि उन्होंने कुछ उड़ती हुई उनके प्रेम की कहानियां सुनी हैं।मैंने कहा, ‘जी वे सिर्फ कहानियां ही नहीं हैं।

 

मेरी तरफ गौर से देख कर भाई साहब मुस्कराए। कहा, ‘खैर! मैं औरतों की पूरी आजादी का कायल हूं, मेरी बहन ही सही, मगर जब मैं खुद चाहता हूं कि कोई पसंद की शादी करूं, तो मेरा फर्ज है कि उन्हें पूरी मदद दूं।

 

अब मेरी भी सविता से जान-पहचान हो गई। हमारी जो मामी हैं, उनके भाई की बहन सविता की भाभी होने वाली थी। मगर अचानक उसके गुजर जाने की वजह से वह शादी हो सकी।

 

सिददी ने जम्हाई लेकर कहा, ‘बड़ा लंबा किस्सा है!’

लाजिए, साहब,’ कल्ला ने चिढ़कर कहा, ‘शादी हो गई सूरज और सविता की। छोटा हो गया अब?’

 

भाई तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर!’ चंदू ने सिगरेट पेश करते हुए कहा, ‘सिनेमा का-सा लुत्फ रहा है।सिद्दी ने कहा, ‘फिर?’

 

कल्ला ने एक लंबा कश खींचा, और धुआं छत की तरफ छोड़ कर फिर कहना शुरू किया, ‘उसके बाद एक दिन की बात है। सूरज, मैं और मेरा एक और दोस्त, चंद्रकांत, कालेज में घूम रहे थे। सविता की कालेज की पढ़ाई जारी थी। अब भी वह अपने भाई के यहां ही रहती थी, सूरज के यहां नहीं। शादी के तीन-चार महीने बीत चुके थे।

 

शादी हो जाने से तमीज जाती है, यह हमने जरा कम देखा है। सूरज की आदतें बदस्तूर कायम रहीं। किंतु इस बीच में यह जरूर हुआ कि मेरा सविता के यहां आना-जाना काफी बढ़ गया।

 

चंद्रकांत मुंह का बक्की था लेकिन दिल का बिल्कुल पक्का। सौ लड़कियों को देख कर दो सौ तरह की बोलियां निकाल सकता था, मगर वह जहर उसके दिल में नहीं। सिर्फ गले के ऊपरी हिस्से में ही था।

 

उस दिन चंद्रकांत ने लड़कियों की एक भीड़ देख मुस्कराकर कहा, देख यार कल्ला! कभी-कभी तो देख लिया कर!

 

लेकिन हम चूंकि जरा ऊंचे खयालों के आदमी हैं, इन बदतमीजियों में हमारा दिल, आपकी कसम, बिल्कुल नहीं लगता।

 

जिस लड़की की नीली साड़ी थी, वह चंद्रकांत की पुरानी जान-पहचान की थी। चंद्रकांत ने हाथ से इशारा करते हुए मुझसे कहा-देखा?

 

मैंने देखा, और बिल्कुल चुप। लड़की की पीठ मेरी ओर थी। झट से लाइब्रेरी में घुस गई। सूरज अपने ध्यान में मग्न पहचान नहीं पाया उसे। झट से चंद्रकांत का हाथ पकड़कर बोल उठा-चलो जरा देखें तो हातिमताई की हीरोइन बनने के लायक है या नहीं!

 

पहचान तो मैं गया था कि वह कौन है, फिर भी चाहता था कि सूरज को आज एक ऐसी नसीहत मिल जाए, जिसे वह जिंदगी भर याद करे।

 

लड़की की पीठ ही फिर नजर आई। सूरज ने दबी आवाज से कहा-काश हमें भी दीदार हो जाता।

 

लड़की ने मुड़कर देखा। सूरज के काटो तो खून नहीं। वह सविता थी। उसकी त्यौरियां पहले तो चढ़ीं, लेकिन जब सूरज को पहचान लिया, तब जाने क्यों उसे हंसी गई। भला बताइए, कोई स्त्री अपने ही पति को इस हालत में देखे, तो उसे कोफ्त तो होगी ही, लेकिन हंसी जाए उसे, यह नामुमकिन है। रेल में कोई आपकी जेब काटे और आप जेबकट को पकड़ कर देखें कि वह तो आप ही का छोटा भाई है, तो हंस कर डांटिएगा, या पुलिस के हवाले कर दीजिएगा।

 

हम तीनों लौट आए। चंद्रकांत को मालूम नहीं था कि सूरज सविता का पति है। उसने कहा-देखा आपने? है मुझमें कुछ अक्ल? पूरी भीड़ में ले जाकर किसके आगे खड़ा कर दिया आपको? जनाब जेब में पैसा चाहिए, बस फतह है!

 

सूरज मेरी तरफ देख रहा था। मैं जब चंद्रकांत को चुप होने का इशारा नहीं कर सकता था। वह बकता गया-सारा कालेज जानता है कि आज से दो साल पहले जब यह लड़की आई. टी. में थी तब इसका एक मास्टर से दोस्ताना था। मास्टर आदमी काबिल था।

 

पढ़ाई में तेज, हॉकी खेलने में नंबर वन और हिंदुस्तान में चुनाव और प्रेम में कमाल कर दिखाने वाली चीज भी उसके पास थी, मेरा मतलब मोटर से है। यह दिन-रात उसके साथ मोटर में घूमा करती थी। भाई हैं इसके आपने लग मस्त।

 

कमबख्त बके जा रहा था। सूरज का सिर झुक गया। मैंने धीरे से इशारा किया कि चुप रह। मगर उसने समझा कि सूरज पर उस लड़की का प्रेम भूत बनकर सवार होने लगा है। उसने कहा-अमां, छोड़ों भी ऐसी लड़की से तो दूर ही रहा जाए, तो अच्छा। जाने दो, यार! समझदार आदमी हो। क्यों तुम प्रेम-ब्रेम के चक्कर फंसना चाहते हो?

 

रात गई थी। सूरज बैठा सिगरेट फूंके जा रहा था। उसके चेहरे पर उदासी छाई थी। वह किसी घोर चिंता में पड़ गया था। देर के बाद उसने कहा-कल्ला, चाचा को मालूम होगा यह सब, तो क्या कहेंगे?

 

मैंने सुना, और सोचकर कहा-‘क्यों, चंद्रकांत को तुम्हारे चाचा का पता मालूम है?

नहीं तो।

 

-तो फिर उन्हें कैसे मालूम होगा? मैं तो कहने से रहा और सविता भी क्यों कहने लगी। अब आप ही अगर इतने अक्लमंद हों, तो मैं लाचार हूं। कम-से-कम, भई, मैं तो इसमें कुछ नहीं कर सकता।

 

सूरज ने कहा-और तो कुछ नहीं, लेकिन मुझे एक बात कचोट उठती है। जाते वक्त चंद्रकांत ने कहा था कि जिस आदमी से इस लड़की की शादी होगी, वह भी एक ही काठ का उल्लू होगा।गनीमत है-मैंने दिल में कहा।

 

एक काम करोगे?-सूरज ने कहा।

मैंने पूछा-क्या?

सविता से मैं एकांत में मिलना चाहता हूं उसे यहां ले आओ?’

मैंने कहा, ‘चेखुश! यह क्या मुश्किल है?’

सूरज ने एक लंबी सांस को जैसे लाल किले से रिहा किया। मैंने कहा, ‘कल शाम को जाऊंगा। उसके यहां।

 

सूरज खुश नजर आता था। दूसरे दिन जब शाम को मैं उसके कमरे में घुसा, तो उसने हर्ष से मेरे कंधों को पकड़कर कहा, ‘क्या कहा सविता ने?’

 

मुझे मन-ही-मन बड़ी हंसी आई। कानून की निगाह से, धर्म की रूह से, समाज के नियम से वही उस औरत का देवता है। मगर बात ऐसी करता है, जैसे शादी के पहले प्रेम हो रहा है।

 

मैंने कहा, ‘बात जरा गौर करने की है। बैठ जाओ, तब कहूंगा।

सूरज ने बैठ कर सिगरेट सुलगा ली।

 

मैंने कहा, ‘मैं गया था उसके पास। उसने कहा-ऐसे कैसे मिल सकती हूं, अभी तो हमारा गौना भी नहीं हुआ।

 

सूरज ने तड़पकर कहा, ‘मुझसे मिलने के लिए गौने की जरूरत है? मास्टर से मिलने को तो किसी की जरूर नही थी? कैसे-कैसे आदमी हैं, इस दुनिया में?’

 

मैंने कहा, ‘मास्टर से सिर्फ मिलना-जुलना था। तुम्हारे यहां आने का मतलब स्पष्ट है। जमाना हंसेगा।

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और तब हंसता था?’ सूरज ने मुझे घूरते हुए पूछा।

मैंने कहा, ‘खूब हो यार तुम भी! हकीकत से दुनिया डरती है। अपना ही मन साथ हो, तो तिनका भी पहाड़ नजर आता है।

 

लेकिन सूरज के समझ में आना था आया। उसने मेज पर मुट्ठी मार कर कहा, ‘तो एक महीने के अंदर देख लेना!’

 

मुझे फिर हंसी आई, जैसे वह कोई कमाल कर रहा हो।

लिख दिया सूरज ने अपने चाचा को। इजाजत लेना तो क्या एक तरह से इत्तला देनी थी। काम हो गया।

 

महीने भर बाद गौना हो गया। सविता उसके घर में गई। अब सूरज कभी-कभी मुझे भी घूरने लगा, क्योंकि मैं बार-बार सविता की तरफदारी करता था। कहा कुछ नहीं। थोड़े दिन तक जिंदगी ऐसे चली, जैसे चाय और दूध। लेकिन मैं आखिर कब तक चीनी बनकर स्वाद कायम रखता?

 

एक दिन दबी जबान से सूरज ने सविता से उसके पहले जीवन के बारे में प्रश्न किया सविता ने कहा, ‘आप ऐसी बातें करते हैं? मुझे सचमुच बड़ा ताज्जुब होता है। आपलोग जो कुछ करते हैं, हमलोग तो उसका पांच फीसदी नहीं कर पाते।

 

सूरज मन-ही-मन कुढ़ गया। उसके हृदय में पुरुषत्व की वह जायदाद की मिलकियत वाली बात, जो उसमें कूट-कूट कर सदियों से भरी हुई थी, भीतर-ही-भीतर चोट खाते सांप ही तरह फुंफकार उठी। स्त्री और पुरुष की क्या बराबरी? वेद में जिक्र है, यज्ञ के खंभे में अनेक रस्यिां बांधी जा सकती हैं। हां, एक रस्सी से दो खंभे नहीं बांधे जा सकते।

 

सूरज चुप हो रहा। मास्टर से सविता का क्या संबंध था, इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला। वह जो अंधेरा था, उसमें भीतर का अविश्वास, नफरत का भयानक भेड़िया बनकर इधर-उधर घूमने लगा, कि कब शिकार की आंखें जरा झपके, और कब वह झपट कर अपने दांतों की नोकों को उसके गले में गड़ा दे और उसके शरीर को नोच-नाच कर तीखे नाखूनों से फाड़ डाले।

 

सीधी-सादी बात थी। अगर सूरज पूछ लेता, तो बात वहीं को वहीं साफ हो सकती थी। लेकिन अपना पाप ही तो समस्त निर्बलता की जड़ है।

 

सविता ने कहा, ‘आप मुझ पर अगर शुरू से ही भरोसा नहीं करेंगे और बाहर वालों की बातों का ही यकीन करेंगे, तो जाने आगे क्या हाल होगा। माना कि आप मुझे अपनी बात पूरी तरह कहने का अवसर देंगे, तो भी क्या यह जरूरी है कि जो मैं कहूं, आप उसे सच ही मानेंगे? जाहिर ही है कि कोई अपने मुंह से अपनी बुराई नहीं करता।

 

तो स्त्री होने के नाते जब आप मुझ पर किसी तरह भी विश्वास नहीं कर सकते, तो मैं अपने आप चुप हो रहूं, यही बेहतर है!’ फिर तनिक रुककर कहा, ‘आपने तो कहा था कि आप मुझे किसी तरह भी अपना गुलाम नहीं बनाएंगे। पर मैं देखती हूं, शादी के पहले जो आपने अपने ख्यालों की आजादी दिखाई थी, वह सब झूठ थी।

 

सूरज उस समय तो हंस कर टाल गया। उसी शाम को उसके लिए एक नई रेशमी साड़ी भी लाया। सविता ने पहले तो प्रसन्नता दिखाई, फिर उसने कहा, ‘इस महंगी में इसकी क्या जरूरत थी?’

 

तो क्या हो गया?’ सूरज ने प्रसन्न होकर पूछा, ‘पच्चीस जगह उठना-बैठना होता है।

सविता ने उदास होकर पूछा, ‘आप मेरे दिन की बातों का बुरा तो नहीं मान गए?’

सूरज ने आंखें झुका लीं। तीर मर्म पर जाकर गड़ गया था।

 

सविता ने कहा, ‘आप मेरी बातों का बुरा माना कीजिए। मुझे बचपन से ही ऐसे बक-बक करने की आदत पड़ गई है, क्योंकि मां-बाप तो रहे नहीं, जो तमीज सिखाते। लेकिन एक बात का मैंने पक्का इरादा कर लिया है अब। काम वही करूंगी, जिसमें आप खुश हों। स्त्री के विचार वही होने चाहिए, जो उसके पति के होते हैं। आप मुझे माफ कीजिए!’ कहकर वह रो पड़ी।

 

सूरज ने स्नेह से उसके आंसू पोंछकर कहा, ‘तो रोती क्यों हो? छिः!’

वह चुप हो गई सूरज ने मुझसे जब ये बातें कहीं, तो मैंने कहा, ‘यह है हिंदुस्तानी! इसे कहते हैं हार!’

 

 क्या मतलब?’ सूरज ने कहा, ‘कैसी हार?’

एक जंगल का आजाद परिंदा पिंजरे में पड़कर सोच रहा है किपिंजरा ही जीवन का सबसे बड़ा स्वर्ग है

 

हूं?’ सूरज ने मेरी ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखा और कहा, ‘अभी अकेले हो ! जब तुम्हारी बारी आएगी, तब देखेंगे?’

 

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। बेकार बहस करने से क्या फायदा? मैं चुप हो रहा। पर मुझे ऐसा लगा, जैसे अंधेरे चलते-चलते किसी को यक--बक यह ख्याल हो जाए कि उसका कोई पीछा कर रहा है, और धोखे से बार करके उसे मार देने की राह देखा रहा है।

 

सिद्दी ने चंदू की ओर देखा। दोनों इस समय गंभीर थे। कल्ला ने नई सिगरेट जलाकर फिर कहना शुरू किया, ‘आना-जाना पहले कि तरह जारी रहा। तुम जानते हो, आदमी का दिल एक चट्टान की तरह है, जिसकी जड़ को शक की लहरें एक बार काटने में कुछ भी सफल हो जाती हैं तो एक--एक दिन ऐसा आता है, जब पूरी-की-पूरी चट्टान लुढ़क जाती है।

 

कॉलेज में सूरज ने मुझसे कहा, ‘यार, आज तो शाम को गोमती में बोटिंग को चलेंगे। वहां से फिर सिनेमा। साढ़े चार बजे हमारे घर में ही जाना?’

 

जब मैं उसके घर पहुंचा, तो सूरज नहीं लौटा था। सविता ने गोल कमरे में ले जाकर मुझे बैठाया, और जाकर स्टोव पर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया।

 

आकर पूछा, ‘क्या खाते हैं आप?’

मैंने कहा, ‘सब-कुछ खाता हूं, बशर्ते कि कोई खिलाए!’

हंस पड़ी वह। बोली, ‘खाने की तो ऐसी पड़ी नहीं, पर उनका इंतजार तो करेंगे ?’

मैंने कुछ नहीं कहा।

 

आते ही होंगे।उसने मुस्करा कर कहा, ‘वक्त तो हो गया है। क्यों आज क्या कोई प्रोग्राम है?’

मैंने कहा, ‘जी नहीं बस शाम को नदी की सैर करने का विचार है। फिर सिनेमा...’

 

उसने काटकर कहा, ‘तो और क्या रात भर घूमना चाहते हैं?’ कह कर वह हंस पड़ी। कहा, ‘आप आनते हैं, मैंने कॉलेज छोड़ दिया है।

जी, ‘ऐसा क्यों?’ मुझे सचमुच मालूम नहीं था।

 

उसने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, ‘उनको मेरा कॉलेज जाना पसंद नहीं। कहते थे, बी. . तो कर चुकी हो, एम. . करके क्या तुम्हें नौकरी करनी है?’

 

उसके स्वर में एक तीव्र वेदना थी जो उसके मुस्कराने के प्रयत्न से और भी कठोर प्रतीत हुई मुझे ऐसा लगा, जैसे खिलौने सामने फैलाकर कोई बच्चे से कह रहा हो, खबरदार, जो हाथ लगाया!

 

मैंने विक्षुब्ध होकर कहा, ‘आपने सूरज से यह नहीं पूछा कि उनको बी. . तक पढ़ने की क्या जरूरत थी?’

अब यह तो आप ही पूछिए! मुझमें तो इतनी ताब नहीं कि बार-बार उल्टी-सीधी बातें सुनूं।

 

मैंने सुना। किंतु मन का कौतूहल फिर भी जगा ही रहा। मैंने पूछा, ‘अच्छा, एक बात पूछता हूं, माफ कीजिएगा, बात जरा कड़ी है। आप कॉलेज में होती, तो सूरज बाबू क्या आपको कभी देख सकते थे? और जब यही नतीजा निकालना था, तो चाचा से कह कर किसी बिल्कुल ही पुराने ढ़ंग की लड़की से उन्होंने क्यों नहीं शादी की?’

 

मन तो बहुत कुछ बकने को था, लेकिन हठात चुप हो गया, क्योंकि उसी समय सूरज कमरे में दाखिल हुआ। उसका प्रवेश इतना आकस्मिक था कि एक बार हम दोनों ही चौंक उठे। सूरज की जेत आंखों ने इसे देख लिया।

 

दूसरे दिन जब मैं सूरज के यहां गया, तो बाहर बरामदे में ही ठिठक गया। अंदर से सूरज की आवाज रही थी, ‘मेरी गैरहाजिरी में अगर कोई आए, तो दरवाजा खोलने की तो क्या, जबाव तक देने की जरूरत नहीं है।

 

फिर सविता की आवाज सुनाई पड़ी, ‘बहुत अच्छा! आपके चाचा जी आएं, तब भी!’

 

उन्हें तो दूर करने की कोशिश करोगी ही! अजी, बाहरी लोगों के लिए कहा है।

तो मैंने किस-किसको बुलाया है?’

कल वह कौन आया था?’

 

मैंने बुलाया था कि आपने? मैंने तो उल्टे आप पर एहसान किया कि आपके एक दोस्त की नजर में आपको गिरने नहीं दिया।

 

मुझे इन एहसानों की जरूरत नहीं!’ सूरज का स्वर दृढ़ था, कठोर भी।

आपकी जैसी मर्जी। मुझे किसी से क्या मतलब?’

 

मैंने सुना। क्रोध से मेरी आत्मा छटपटा उठी। बाहर से ही लौट आया। इसके बाद मैंने उसके घर पर आना-जाना बहुत कम कर दिया। इम्तहान गए।-कहकर कल्ला चुप हो गया।

 

चुप क्यों हो गए?’ चंदू ने चौंककर पूछा।

सिगरेट!’ माथे पर बल डालकर पूरी आंखें फाड़ते हुए कल्ला ने कहा, ‘जरा थक गया हूं।

तो हुजूर, मालिश?’

नो, थैंक्स!’

 

सिगरेट जलाकर कल्ला ने कहा, ‘मुझे अपनी साइकिल वापिस मिल गई। जो लड़का मेरा साइकिल पहुंचाने आया...’

सिद्दी ने काटकर पूछा, ‘इसी बीच में साइकिल कहां से गई?’

 

यार, कोई मैं गढ़-गढ़ कर तो सुना नहीं रहा। अब जैसे-जैसे याद आता जाएगा, मैं तुम्हें सुनाता जाऊंगा। कोई सबक तो मैं आपको सुना नहीं रहा हूं।’-कल्ला बिगड़कर बोल उठा।

 

अच्छा, अच्छा!’ चंदू ने बीच में पड़ते हुए कहा, ‘तो साइकिलवाला लड़का?’

 

हां,’ कल्ला ने कहा, ‘उसके हाथ में एक खत था। खोलकर पढ़ा-प्रिय

भाई,

अब हम गांव जा रहे हैं। आपकी साइकिल वापिस भेज रही हूं!

धन्यवाद!

आपकी

सविता!

 

साइकिल उठाकर धर ली। मुझे मालूम हुआ कि साइकिल ही इस विद्वेष की जड़ थी।

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मेरे एक दोस्त थे। साइकिलों की चोरी करना ही उनका रोजगार था। एक बार वे कानपुर से एक साइकिल चुरा कर लाए। बोले, ‘बहुत दिन से सस्ती साइकिल मांगा करते थे। अब ले लो!’ मैंने कहा-‘वाह, यार! गोया हम मर्द हुए, औरत हो गए, जो आप जनानी साइकिल लाकर एहसान जता रहे हैं! मांगी थी पतलून, लाए हैं साड़ी!’

 

बोले, ‘भई दिक करो! हमें कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ पंद्रह रूपए दे दो! फिर मामला तय होता रहेगा।

 

चंद्रकांत की भाभी आने वाली थी। उसने कहा, ‘अबे भाभी के काम जाएगी। ले ले!’

 

एक दिन कालेज में सविता मिली। बात चलने पर उसने कहा, ‘देखिए, घर हमारा है बहुत दूर। पैदल आते-आते दिवाला निकल जाता है।

मैंने कहा, ‘आपको साइकिल तो दे सकता हूं, पर कुछ दिन के लिए।

सविता प्रसन्न हुई।

 

अब वह साइकिल पर बैठ कर कालेज जाने लगी।

एक दिन सविता ने मुझे कालेज में रोक लिया। पैर में पट्टी बंधी थी। लंगड़ा-लंगड़ा कर चल रही थी।

 

मैंने कहा, ‘क्या हुआ?’

चोट लग गई।

तो अब तो ठीक है?’

हां, एक तकलीफ दूंगी।

मैंने कहा, ‘फरमाइए।

एक तांगा ला दीजिए!’

क्यों, साइकिल क्या हुई?’

वह मैं वापस कर दूंगी।

क्यों?’

 

कल वे आए थे हमारे घर। मैं लौटकर आई, तो भैया ने कहा, ‘सविता, यह साइकिल तू कहां से ले आई?’ मैंने बताया। भैया ने कहा, ‘सूरज को मालूम है?’ मैंने कहा, ‘उनसे तो कभी मिलती नहीं।भैया ने कहा, ‘आज सूरज आया था, कहता था, चाचा आए थे। उन्होंने सविता को साइकिल पर बैठे देखा था।

 

मैं सुनता रहा। सविता सुनाती रही, ‘चाचा ने बहुत बुरा माना था। भला कोई बात है कि घर की बहू-बेटियां साइकिलों पर घूमा करें! भैया ने कहा, ‘सूरज बाबू कह गए हैं कि सविता को साइकिल पर जाने से तो रोक ही दें।

 

 -मैंने भैया से कहा, आपने कहा नहीं कि कॉलेज दूर है? कहा था-भैया ने कहा, पर सूरज ने कहा कि यदि यह बात है, तो पढ़ाई की ही ऐसी क्या जरूरत है?’-तब भैया ने कहा, ‘देखो सविता, अब तुम बच्ची नहीं हो। शादी के बाद तुम्हें अपनी आंखें खोलकर चलना चाहिए! यह बचपन अब काम नहीं देगा।’-कहकर सविता चुप हो गई। फिर कहा-भिजवा दूंगी आपकी साइकिल!

 

मैंने कहा, ‘सुना