Monday 1 November 2021

Faizabad Awadh Saltanat ka Pahla Markaz: “Guzishta Lucknow” By Abdul Haleem Sharar

इस बात के मानने में शायद किसी को आपत्ति न होगी कि हिंदुस्तान में पूर्वी सभ्यता और संस्कृति का जो आख़िरीनमूना नजर आया वह अवध का पुराना दरबार था। पिछले ज़माने की यादगार के तौर पर और भी कई दरबार मौजूद हैं मगर जिस दरबार के साथ पुरानी तहज़ीब और संस्कृति खत्म हो गयी वह यही दरबार था जो बहुत ही आख़िर में क़ायम हुआ और अजीब-अजीब तरक्क़ियां दिखा कर बहुत ही जल्दी नष्ट हो गया। लिहाज़ा हम इस दरबार का संक्षेप में वर्णन करना चाहते हैं और उसकी विशेषताएं बताना चाहते हैं।

 

यह मान लेने में भी शायद किसी को आपत्ति न होगी कि जिस प्रदेश में पिछला दरबार क़ायम हुआ उसका महत्व हिंदुस्तान के दूसरे सभी प्रांतों से बढ़कर है। हिंदुस्तान का शायद ही कोई ऐसा अभागा गांव होगा जहां उनकी याद हर साल रामलीला के धार्मिक नाटक के माध्यम से ताज़ा न कर ली जाती हो।

Gulab Badi-Faizabad

लेकिन अवध के इस सबसे प्राचीन दरबार का वर्णन और अयोध्या का उस युग का वैभव वाल्मीकि ने ऐसी चमत्कृत शैली में किया कि वह आस्थावान व्यक्ति के हृदय पर अंकित हो गया। लिहाज़ा हम उसे यहां दोहराना नहीं चाहते। जिन लोगों ने अयोध्या के उस वैभवशाली युग का चित्रण वाल्मीकि की कलाकृति में देखा है वे उसी शुभ स्थान पर आज 'दिल गुदाज़' (लेखक द्वारा संपादित पत्रिका जिसमें प्रस्तुत पुस्तक किस्तवार प्रकाशित हुई थी। 1887-1935 ई०) में फ़ैज़ाबाद  की तस्वीर देखें।

 

हम घटनाक्रम को उस समय से शुरू करते हैं जब उस आख़िरी दरबार की बुनियाद पड़ी जिसे नष्ट हुए कुछ ऊपर पचास साल से ज्यादा ज़माना नहीं हुआ।

 

पुराने सूर्यवंशी परिवार विशेषकर राजा रामचंद्र जी के महान और  बेमिसाल कारनामे इतने अधिक हैं कि इतिहास उन्हें अपने अंदर समोने में असमर्थ है और यही कारण है कि उन्होंने इतिहास की सीमाएं लांघ कर धार्मिक पवित्रता का रूप धारण कर लिया है।

 

जब नवाब बुरहान-उल-मुल्क (Burhan ul Mulk) अमीन उद्दीन खां नैशापुर दिल्ली के शहंशाही दरबार की तरह से अवध के सुबेदार नियुक्त होकर आये तो लखनऊ के शेख़जादों को परास्त करके अवध की प्राचीन राजधानी यानी पवित्र नगरी अयोध्या पहुंचे और आबादी से फासले पर यानी घाघरा नदी के किनारे एक ऊंचे टीले पर अपना शिविर बनाया।

 

Surya Vanshi Maha Raja Lord Sri Ram Chandra 

चूंकि वे प्रांत के प्रबंध में व्यस्त थे और उन्हें आलीशान इमारतें बनाने की फुर्सत न थी और न ही सीधा स्वभाव होने के नाते इस तरह की झूठी शान दिखाने का उन्हें शौक़ था इसलिए एक ज़माने तक वे तंबुओं में रहते रहे और जब कुछ दिन के बाद उन्हें बरसात में तकलीफ हुई तो थोड़ी दूर हटकर एक मुनासिब जगह पर अपने लिए एक छप्पर बनवाया।

 

फिर उसके बाद उस छप्पर के आसपास कच्ची दीवार का एक बहुत लंबा-चौड़ा वर्गाकार घेरा खिचवा लिया जिसके चारों कोनों पर क़िलेबंदी की शान से चार कच्चे बुर्ज बनवा दिये ताकि इर्दगिर्द के इलाके की निगरानी की जा सके।

 

यह अहाता इतना विशाल था कि उसके अंदर असंख्य घुड़सवार, पलटनें, तोपखाने, अस्तबल और अन्य जरूरी कारख़ाने आसानी से रह सकते थे। बुरहान-उल-मुल्क को चूंकि इमारत का शौक़ न था इसलिए उसके ज़नाने और बेगमों के रहने के लिए भी कच्चे मक़ान ही बना लिये गये।

 

ग़रज़ यह कि कच्चे बंगले में उस समय का अवध-नरेश जब जिलों के दौरे और सरकारी यात्राओं से फुर्सत पाता तो ऐश-आराम के साथ रहता था और उसे किसी बात की शिकायत न थी और उसका यह शासन-केंद्र कुछ ही दिन में 'बंगला' के नाम से मशहूर हो गया।

Abdul Haleem Sharar (1860-1926) Auther of Book "Guzishta Lucknow"
 

बुरहान-उल-मुल्क के देहांत के बाद जब नवाब सफ़दरजंग का ज़माना शुरू हुआ तो यह बस्ती फ़ैज़ाबाद मशहूर हुई। यह है बुनियाद शहर फ़ैज़ाबाद की जिसने अपने बनने और बिगड़ने की तेज़ी में लखनऊ को भी मात कर दिया। अब उन दिनों इन कच्ची चारदीवारी के गिर्द फ़ौज के अधिकतर मुग़ल सरदारों ने अपनी दिलचस्पी के लिए बाग़ और हवादार तथा आनंदप्रद रंगमहल बनाये और शहर की रौनक बढ़ने लगी।

 

इस कच्चे अहाते का एक फाटक 'दिल्ली दरवाज़ा' कहलाता था जो पश्चिम की ओर था। उसके बाहर दीवान आत्माराम के बेटों ने एक शानदार बाजार बनवाया और उसी के सिलसिले में रहने के लिए मक़ान भी बनवाये। इसी तरह इस्माईल खां रिसालदार ने भी एक बाज़ार बनवाया और चारदीवारी के अंदर ख्वाजासरामों (महल रक्षक) और विभिन्न फ़ौजी लोगों के बहुत से मक़ान भी तैयार हो गये।

 

नवाब सफ़दर जंग की मृत्यु के बाद इस नयी बस्ती पर कुछ रोज़ के लिए तबाही बरस गयी। जिसकी वजह से इतने दिनों में जो कुछ बना था ज़माने ने बिगाड़ कर रख दिया इसलिए कि उनके बेटे नवाब शुजाउद्दौला ने अपने रहने के लिए लखनऊ को पसंद किया था और वहीं रहते थे। अलबत्ता साल में दो-एक रातें अपने बाप-दादा के इस पुराने मक़ान में जरूर बसर कर लिया करते।

 

यहां तक कि 1746 ई० में उन्हें बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों से हार हुई। उस समय उनके पास कुछ भी तो न रहा था और वे उसी हालत में भागते हुए फ़ैज़ाबाद में आये और वहां के क़िले में जो कुछ साज़सामान मौजूद पाया लेकर रातों-रात चल खड़े हुए और लखनऊ पहुंचे।

 

यहां भी एक ही रात ठहर कर जो कुछ हाथ आया लिया और दिल्ली की राह ली ताकि रुहेलखंड के पठानों के पास जाकर शरण लें। लड़ाई के नौ महीने बाद अंग्रेज़ों से उनकी सुलह हो गयी जिसके अनुसार शुजाउद्दौला के जिम्मे यह वाजिब था कि प्रदेश की आमदनी में से रुपये में पांच पाने अंग्रेजों को अदा करें।

 

संधि होने से पहले इस सफ़र में इत्तिफ़ाक़ से शुजाउद्दौला का गुज़र फ़र्रुखाबाद शहर में भी हुआ था जहां एहमद बंगश से मुलाक़ात हुई जो उस ज़माने के पुराने तजुर्बेकार बहादुरों में माने जाते थे। उन्होंने शुजाउद्दौला को सलाह दी कि अब जो तुम जाकर हुकूमत की बागडोर हाथ में लेना तो मेरी इन दो बातों को न भूलना : एक तो यह कि मुग़लों का कभी एतबार न करना बल्कि अपने दूसरे नौकरों और ख्वाजासराओं से काम लो। दूसरे यह कि लखनऊ का रहना छोड़ो और फ़ैज़ाबाद को अपनी राजधानी बनाओ।

 

ये बातें शुजाउद्दौला के दिल पर बैठ गयीं और अंग्रेजों से समझौता होने के बाद 1779 ई० में जो उन्होंने अपनी सल्तनत की राह ली तो सीधे फ़ैज़ाबाद आये और उसी को अपनी राजधानी बना दिया। अब यहां उन्होंने नयी फ़ौज भर्ती करना शुरू की, नये घुड़सवार तैयार किये और नयी इमारतों की बुनियाद डाली।

 

पुराने हिसार को एक मज़बूत परकोटे की शान से दुबारा बनवाया जो अब क़िला कहलाता था। मुग़लों के जो मक़ान अंदर बने हुए थे, ढहा दिये और अपने अक्सर निजी नौकरों को हुक्म दिया कि वे परकोटे के बाहर मक़ान बनवाएं। इस हिसार के इर्द-गिर्द हर तरफ दो-दो मील का मैदान छोड़ दिया गया जिसके गिर्द गहरी खाई खोद कर उसे क़िलाबंदी के रूप में दुरुस्त किया गया।

 

सरकारी नौकरों और फ़ौज के अफसरों को इजाज़त  हुई कि अपनी हैसियत और हालत के मुनासिब ज़मीन के टुकड़े लेकर उसी मैदान में मक़ान बनाएं। जैसे ही यह खबर मशहूर हुई कि शुजाउद्दौला ने फ़ैज़ाबाद को अपनी राजधानी बनाया है, एक दुनिया का रुख़ उधर फिर गया। हजारों लोग पा-आकर आबाद होना शुरू हुए।

 

शाहजहानाबाद में यह हालत थी कि जिसे देखिए फ़ैज़ाबाद जाने के लिए तैयार है। चुनांचे दिल्ली के अधिकतर शिल्पकारों ने अपना वतन छोड़ा और पूरब की ओर चल पड़े। दिन-रात लोगों के आने का तांता बंधा रहता था और क़ाफ़िले चले आते थे जो आ-पाकर यहां बसते और फ़ैज़ाबाद के आसपास खपते चले जाते थे।

 

चंद ही रोज के अंदर हर धर्म और जाति के सुखी-संपन्न साहित्यकार, तलवार के धनी, व्यापारी, शिल्पी और हर वर्ग तथा हर श्रेणी के लोग यहां जमा हो गये। और जो आता, आते ही इस फ़िक्र में पड़ जाता कि कोई ज़मीन का टुकड़ा हासिल करके मक़ान बना ले।

Palace of the Late Nawab Shuja ud Daula at Fizabad;


चंद ही साल के अंदर इस पहले हिसार के अलावा दो और फसीले बन गयी एक जो पहले वर्गाकार अहाते के दक्षिणी सिरे से मिली हुई थी उसकी लंबाई-चौड़ाई दो-दो मील की थी, और दूसरा हिसार एक मील के फैलाव में था जो क़िले और बाहर की प्राचीर के दरम्यान था।

 

इसी ज़माने में त्रिपोलिया और चौक बाजार बने जिनकी सड़क क़िले के दक्षिणी फाटक से शुरू हो कर इलाहाबाद की सड़क के नुक्कड़ तक चली गयी थी और इतनी खुली हुई थी कि बराबर-बराबर दस छकड़े आसानी से गुजर सकते थे। शहर की फ़सील का आसार ज़मीन के पास चाहे जितना हो दरम्यान में दस गज से कम न था जो ऊपर पहुंच कर पांच-पांच गज रह गया था।

 

इस फ़सील पर कायदा और बेकायदा दोनों तरह की फ़ौजों के दस्ते रात भर रौंद फिरा करते और जा-बजा पहरा देते। बाकायदा सिपाहियों की वर्दी लाल थी और बेकायदा सिपाहियों की वर्दी काली। इन्हीं सिपाहियों की ज़रूरत से बरसात में जा-बजा छप्पर डाल दिये जाते, मगर बरसात के खत्म होते ही आग लगने के अंदेशे से वे लाजिमी तौर पर उतार डाले नाते। चुनांचे सिर्फ प्राचीर की दीवारों के लिए हर साल लगभग एक लाख छप्पर छाये जाते और चार महीने के बाद नोच के फेंक दिये जाते।

Qila Mubarak, built by the first Nawab of Faizabad.
 

शहर के आसपास दो चरागाहें शिकार के लिए नियत कर दी गयी थीं जिनमें से एक पश्चिम की ओर गुरजी बेग खां की मस्जिद से गुप्तार घाट तक चली गयी थी जो एक लंबा फ़ासला है। उसके दोनों और कच्ची दीवारें थीं और तीसरी ओर घाघरा बहती थी।

 

उसमें अनेक हिरन, चीतल, बारहसिंगे, नील गायें वगैरह शिकार के जानवर छोड़े गये थे जो बड़ी आज़ादी के साथ छूटे-छूटे फिरते और भड़कते ही चौकड़ियां भरने लगते। दूसरी शिकारगाह शहर से पूरब की तरफ गांव जनौरा और छावनी गोसाई से नदी के किनारे तक थी जिसका फैलाव छह मील का था। इसके रकबे में ग्यारह गांव और उनकी ज़मीन आ गयी थी। लेकिन यह शिकारगाह अधूरी ही रही और इसकी नौबत न पाने पायी कि उनमें जंगली जानवर छोड़े जाएं।

 

खास शहर के हल्के के अंदर तीन ऐसे सुखद बाग़ थे जो इस योग्य थे कि अमीर और शहज़ादे आकर इनमें सैर करें और उनकी बहार और हरियाली का आनंद उठाएं। एक अंगूरी बाग़ जो क़िले के अंदर स्थित था और उसके रकबे के चौथाई हिस्से पर छाया हुआ था। दूसरा मोतीबाग़ जो कि चौक के अंदर स्थित था।

 

तीसरा लालबाग़ जो सब बाग़ों से अधिक विशाल था। इसमें बड़ी सुंदरता से पेड़-पौधे लगाये गये थे और हर तरह के नाजुक और दिलफरेब फूल बड़े सलीके से लगाये गये थे। सारे सूबे में इसकी शोहरत थी और दूर-दूर के लोगों को तमन्ना थी कि कोई खुशनसीबी की शाम उस रूहअफ़ज़ा बाग़ में बसर करें।

 

शहर के नौजवान शरीफ़ज़ादों के झुंड रोज तीसरे पहर को इसमें गश्त लगाते और दिल बहलाते नज़र पाते। यह बाग कितना सुखद और सुहावना था इसकी ख्याति यहां तक थी कि दिल्ली के शंहशाह शाहआलम जब इलाहाबाद से पलटे तो इसी बाग़ की सैर के शौक़ में फ़ैज़ाबाद होते हुए दिल्ली गये और कुछ ज़माने तक वे इसी के अंदर रहे। इन तीन बाग़ों के अलावा आसफ़बाग़ और बुलंदबाग़ भी शहर के आसपास लखनऊ के रास्ते में स्थित थे।

Shuja-ud-Daula the  third Nawab of Awadh, with Four Sons, General Barker and other Military Officers.
 

नवाब शुजाउद्दौला बहादुर को शहर की दुरुस्ती का ऐसा शौक़ था कि हर सुबह-शाम सवार होकर सड़कों और मकानों का मुआयना करते। मजदूर फड़वे और कुदालें लिए हुए साथ होते, जहां कहीं किसी मक़ान को टेढ़ा और अपनी हद से बढ़ा पाते या किसी दुकानदार को देखते कि उसने सड़क की ज़मीन बालिश्त भर भी दबा ली है, फौरन उसे खुदवाकर बराबर और सीधा करा देते।

 

फ़ौज के सुधार की तरफ भी शुजाउद्दौला का विशेष ध्यान था। रिसाले के बड़े सरदार अब मुर्तजा खां बरीज और हिम्मत बहादुर और उमरावगीर नामक दो-गोशाई थे। उनके मातहत इतने सवार थे कि इन तीन के अलावा और जितने छोटे-छोटे जमादार थे सबकी फ़ौज की कुल तादाद से उनमें से हरेक की टुकड़ी ज्यादा थी।

 

फ़ौज के दूसरे सरदार एहसान कंबोही, गुरजी बेग खां, गोपाल राव मराठा, मीर जुमला के दामाद नवाब जमालउद्दीन खां मुजफ्फ़र उद्दौला, बहूर जंग बख्शी अबुल बरकात खां काकोरीनिवासी और मुहम्मद मुइजउद्दीन खां लखनऊ के एक शेख़ज़ादे।

 

इनमें से कोई ऐसा न था जिसके मातहत हजार-पांचसौ सिपाहियों का गिरोह न हो। इनके अलावा ख्वाजासरा और वे नौजवान ख्वाजासग जो उनकी निगरानी में ट्रेनिंग पाते, चेले और नौकर-चाकर थे। बसंत अली खां ख्वाजासरा के मातहत दो डिवीजन फ़ौज यानी चौदह हजार बाकायदा सिपाही थे जिनकी वर्दी लाल थी।

 

एक दूसरा बसंत ख्वाजासरा था जिसकी कमान में एक हजार बाकायदा भाले चलाने वाले सवार और एक पलटन थी। अंबर अली खां ख्वाजासरा की अफ़सरी में पांच सौ सवार और एक पलटन थी जिनकी वर्दियाँ काली थीं। महबूब अली खां ख्वाजासरा से ट्रेनिंग लेने वाले पांच सौ सवार थे और चार पलटनें थीं।

Burhan ul Mulk Saadat Ali Khan (Founder of Faizabad-First Nawab of Awadh)
 

इतनी ही फ़ौज लताफत अली खां के मातहत थी। रघुनाथ सिंह और प्रसाद सिंह में से हरेक की कमान में तीन-तीन सौ सवार और चार-चार पलटनें थीं। इसी तरह मक़बूल अली खां प्रथम और द्वितीय, यूसुफ अली खां के साथ पांच-पांच सौ मुग़ल सवारों और पैदलों की टुकड़ी थीं और तोपखाने को तो कोई हद थी न हिसाब।

 

लिहाज़ा कुल फ़ौज जो शुजाउद्दौला के कब्ज़े में वो और फ़ैज़ाबाद में मौजूद रहा करती थी उसकी कुल तादाद यह थी: लाल वर्दीवाले तीस हजार बाकायदा और काली वर्दीवाले चालीस हजार बेकायदा प्यादे। उनके बड़े सिपहसालार सैयद एहमद थे जो "बांसीवाला" के उपनाम से मशहूर थे। जल्दी भरने और फायर करने के एतबार से उनकी तौड़ेदार बंदूकों के मुकाबिले में अंग्रेज़ फ़ौज की बंदूकें कोई अहमियत न रखती थीं।


इस टुकड़ी के अलावा शुजाउद्दौला के पास बाईस हजार हरकारे और मुखबिर थे जो हर सातवें रोज़ पूना से और हर पंद्रहवें दिन काबुल से खबरें लाते। दरबार में हमेशा दूर-दूर के शहरों के शासकों के नायब मौजूद रहा करते।

 

एक नायब मराठों का था, एक दक्खिन के शासक निज़ाम अली खां का, एक जाब्ते खां और एक नवाब जुल्फ़िक़ारउद्दौला नजफ़ खां का जिनके साथ उनके दफ्तर और सिपाही भी थे। उन लोगों के अलावा और भी बहुत से फ़ौजी अफ़सर अपनी-अपनी फ़ौजी टुकड़ियों के साथ यहां मौजूद रहते - जैसे मीर नईम खां जिनके झंडे के नीचे साबितखानी, बुंदेलखंडी, चंदेला और मेवाती सिपाहियों का समूह था।

 

मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार थे। शहर की फसीलों और फाटकों पर उन्हीं के सवार और प्यादे फैले रहते और क़िले के अंदर ही उनके रहने और दफतर के लिए अच्छे मक़ान और उनके सिपाहियों की बैरकें बनी हुई थीं। जब बाहरी दीवारों में भी जगह बाक़ी न रही तो सैयद जमालउद्दीन खां और गोपाल राव मराठा ने बाहर निकल कर नौराही नामक गांव के पास ही रहना शुरू कर दिया और अपने मक़ान तथा कैम्प वहां बनाए और इसी जगह की तंगी की वजह से नवाब मुर्तज़ा खां बारीज, मीर एहमद बांसीवाला, मीर अबुल बरकात और शेख़ एहसान अयोध्या और फ़ैज़ाबाद के दरम्यान तंबुओं में रहते थे।



आदमियों की बहुतायत और सिपाहियों की भीड़ से शहर के अंदर -- खासकर चौक में -- ऐसा जमघट-सा लगा रहता कि वहां से गुज़रना दूभर था और नामुमकिन था कि कोई व्यक्ति बिना अटके हुए सीधा चला जाए। फ़ैज़ाबाद न था इंसानों का जंगल था। बाज़ार में देखिए तो मुल्कों का माल ढेर था और खबर सुनकर कि फ़ैज़ाबाद में अच्छी रुचिवाले रईसों और शौक़ीन अमीरों का चुनिंदा समूह है हर तरफ से व्यापारियों के क़ाफ़िले लदे-फंदे चले आते थे।

 

चाहे कैसा ही क़ीमती माल हो हाथों हाथ बिक जाता, अच्छी-से-अच्छी चीज़ों के आने का सिलसिला बंध गया था। जब देखिए ईरानी काबुली, चीनी और फ़िरंगी सौदागर बहुत ही बहुमूल्य और भारी माल लिये हुए मौजूद रहते और ज्यों-ज्यों नफ़ा उठाते, हवस बढ़ती और वे अधिक कोशिश और मेहनत से नया माल ले पाते।

 

मोस्यो जां तेल, मोस्यों सोन सोन और मोस्यों पेट्रोज वगैरा जैसे दो सौ फ्रांसीसी जो यहां रहने लगे थे, सरकार में मुलाजिम थे। और शुजाउद्दौला की सल्तनत से अपना संपर्क बनाये रखते थे जो सिपाहियों को सैनिक शिक्षा देते और तोपें, बंदूकें और अन्य अस्त्र-शस्त्र अपनी देखरेख में तैयार कराते।

 

मुंशी फैज बख्श जो "तारीख-ए-फरहबख्श' के लेखक थे, जिनकी मेहरबानी से हमें ये घटनाएं मालूम हुई हैं, खुद उस ज़माने में मौजूद थे और उन्होंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। वे कहते हैं कि मैं जब पहले-पहल घर छोड़ कर फ़ैज़ाबाद में गया हूं मुम्ताजनगर ही तक पहुंचा था, जो शहर के पश्चिमी फाटक से चार मील की दूरी पर है, मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे भांति-भांति की मिठाइयां, गरमागरम खाना, कबाबसालन, रोटियां और पराठे वगैरा पक रहे हैं।

 

Gate of Laal Bagh Faizabad

सबीले रखी हुई हैं, नान खताइयां, तरह-तरह के शर्बत और फ़ालूदा भी बिक रहा है और सैकड़ों आदमी खरीददारी के लिए उन दुकानों पर गिरे पड़ते हैं। मुझे खयाल गुज़रा कि. मैं शहर के अंदर दाखिल हो गया और खास चौक में हूं। मगर हैरान था कि अभी तक शहर का फाटक तो पाया ही नहीं, मैं अंदर कैसे पहुंच गया ? लोगों से पूछा तो एक राहगीर ने कहा, “जनाब, शहर का फाटक यहां से चार मील है, आप किस खयाल में हैं ?"

 

इस जवाब पर हैरान होता हुआ शहर में दाखिल हुआ तो अजब चहलपहल नजर आयी। रंगीनियां थीं और दिलचस्पियां, जिधर देखता हूं नाच हो रहा है। मदारी तमाशा कर रहे हैं और लोग तरह-तरह के सैर-तमाशों में व्यस्त हैं। मैं यह रौनक और शोर हंगामा देखकर दंग रह गया। सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक कोई वक्त न होता जब फ़ौजों और पलटनों के नक्कारों की आवाज न सुनी जाती हो।

 

पहरों और घड़ियों के बताने के लिए बारबार नौबत बजती और घड़ियों पर मूगरियां पड़तीं जिनके शोर-गुल से कान उड़े जाते। सड़कों पर देखिए तो हर दम घोड़ों, हाथियों, ऊंटों, खच्चरों, शिकारी कुत्तों, गाय-भैसों, बैलों, छकड़ों और तोपों के गुजरने का सिलसिला जारी रहता जिनकी गिनती हिसाब और अंदाजे से बाहर थी, रास्ता चलना दुश्वार था।

 

एक अजीब रौनक़ और दबदबे का शहर नज़र आया जिसमें दिल्ली के वज़ादार लोगों में से खुश पोशाक शरीफ़ज़ादे, यूनानी हकीम, ऊंचे दर्जे के मर्द और औरत, वेश्याएं, हर शहर और हर जगह के मशहूर और दक्ष गायक सरकार में मुलाज़िम थे और बड़ी-बड़ी तनख्वाहें पाकर ऐश-इशरत की जिंदगी बसर करते।

 

छोटे-बड़े सबकी जेबें रुपयों और अशरफियों से भरी हुई थीं और ऐसा नज़र आता था जैसे यहां कभी किसी ने ग़रीबी और मोहताजी को ख्वाब में भी नहीं देखा है। नवाब वज़ीर (शुजाउद्दौला बहादुर) शहर की सरसब्जी, रौनक और रिआया की उन्नति में पूरी तरह व्यस्त हैं और मालूम होता था कि चंद ही रोज़ में फ़ैज़ाबाद दिल्ली से होड़ करने का दावा करेगा।

Nawab Wajid Ali Shah

 

चूंकि किसी राज्य और किसी शहर का रईस इस शान शौक़त से नहीं रहता था जिस तरह कि नवाब शुजाउद्दौला रहते थे और इसके साथ ही यह नज़र पाता था कि कहीं के लोग इस बेजिगरी से हर काम में और हर मौके पर धन खर्च करने को नहीं तैयार हो जाते थे इसलिए हर किस्म के और हर जगह के बड़े-बड़े दस्तकारों, कारीगरों और विद्याथियों ने अपने-अपने प्रांत छोड़ कर फ़ैज़ाबाद को ही अपना घर बना लिया ।

 

यहां हर ज़माने में ढाका, बंगाल, गुजरात, मालवा, हैदराबाद, शाहजहानाबाद, लाहौर, पेशावर, काबुल, कश्मीर और मुल्तान के विद्यार्थियों का एक बड़ा भारी गिरोह मौजूद रहता जो विद्वानों की पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करते और उस ज्ञान-स्रोत से जो फ़ैज़ाबाद में जारी था पूरी तरह तप्त होकर अपने घरों को वापस जाए।

 

काश नवाब वज़ीर और दस बारह बरस जी जाते तो घाघरा के किनारे एक नया शाहजहानाबाद आबाद हो जाता और दुनिया एक नई जिंदा दिल्ली की सूरत देख लेती !

Nawab Asif ud Daula with natch girls

यह नवाब शुजाउद्दौला के सिर्फ नौ साल के निवास का नतीजा था जिसने फ़ैज़ाबाद को ऐसा बना दिया, और इन नौ साल में भी सिर्फ बरसात के चार महीने वे शहर में विराजमान रहते, बाक़ी ज़माना अपने राज्य के दौरे और सैर व शिकार में बीतता था।

 

शुजाउद्दौला को स्वभाव से ही सुंदर स्त्रियों और नृत्य-गान से लगाव था जिसकी वजह से बाजारी औरतों और नाचने वाली वेश्याओं की प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी कि कोई गली-कूचा उनसे खाली न था और नवाब के इनाम वगैरह से वे इतनी खुशहाल और धनवान थीं कि अक्सर रंडियों के डेरे लगे रहते थे जिनके साथ दो-दो, तीन-तीन आलीशान तंबू रहा करते।

 

Nawab Asif ud Daula

नवाब साहब ज़िलों का दौरा करते और सफ़र में होते तो नवाबी खेमों के साथ-साथ-उनके खेमे भी शाही शान-शौक़त से छकड़ों पर लद-लद कर रवाना होते और उनके गिर्द दस-दस, बाहर-बारह तेलंगों का पहरा रहता और जब शासक का यह ढंग था तो तमाम अमीरों और सरदारों ने भी बेझिझक यही तरीका अपना लिया और सफ़र में सबके साथ रंडियां रहने लगी।

 

हालांकि इससे अनैतिकता और बेशर्मी बढ़ गयी लेकिन इसमें शक नहीं कि उन वेश्याओं की बहुतायत और अमीरों की शौकीनी से शहर की रौनक बहुत अधिक बढ़ गयी थी और फ़ैज़ाबाद दुलहन बन गया था।

 

सन् 1773 ई० में शुजाउद्दौला ने पश्चिम को प्रस्थान किया। इस यात्रा में शाही कैंप की रौनक और चहल-पहल का वर्णन नहीं किया जा सकता। मालूम होता था कि नवाबी झंडे के साथ-साथ एक बड़ा भारी शहर सफ़र कर रहा है।

 

Nawab Asif ud Duala (Son of Bahu Begum) with Musicians

लखनऊ होते हुए इटावा पहुंचे जिस पर मराठों का कब्जा था। एक ही हमले में उसे उनसे छीनकर अपने कब्ज़े में किया और एहमद खा बंगश के राज्य में दाखिल होकर कौड़ियागंज और कासगंज में डेरे डाले। यहां से उन्होंने बरेली के शासक हाफ़िज़ रहमत खां को लिखा।

 

"पिछले साल मैंने एक करोड़ रुपये महादजी सिंधिया मराठे को भेजे थे जिसने आप का वह तमाम इलाक़ा जो दो अरब के दरम्यान है आपसे छीन लिया था। वह रकम अदा करके मैंने आपका वह इलाक़ा उसके कब्ज़े से छुड़ाया और आपके हवाले कर दिया। लिहाज़ा अब पचास लाख की रकम जो आपकी तरफ से मैंने अदा की थी फौरन अदा कीजिए।"

 

हाफ़िज रहमत खां ने अपने तमाम अफ़ग़ान सरदारों और भाई-बंदों को जमा करके कहा :

 

"शुजाउद्दौला लड़ाई के लिए कोई बहाना ढूंढ़ रहे हैं। मुनासिब यह है कि उन्होंने जो रकम मांगी है वह अदा कर दी जाए। बीस लाख मैं अपने पास से देता हूं और बाक़ी तीस लाख तुम जमा कर दो।"

Faizabad-Shuja-ud-Daula-tomb (Gulab Badi)

अदूरदर्शी पठान सरदारों ने जवाब दिया, “शुजाउद्दौला के आदमी देखने ही के हैं वे भला हमसे क्या मुक़ाबिला करेंगे ? बाक़ी रही अंग्रेज फ़ौज जो उनके साथ है, तो उनकी तोपों पर जिस वक्त हम तलवारें सूत सूतकर जा पड़ेंगे सबके हवास जाते रहेंगे। देने-लेने की कुछ ज़रूरत नहीं।"

 

हाफ़िज़ रहमत खां ने यह सुनकर कहा, "तुम्हें इख्तियार है। मगर मैं अभी से कहे रखता हूं कि अगर लड़ाई का रंग बदला तो मैं मैदान से जिंदा न आऊंगा और इसका जो कुछ अंजाम होगा वह तुम्हीं को भुगतना पड़ेगा।"

 

कहना न होगा कि शुजाउद्दौला को अपनी इच्छा के अनुसार जवाब न मिला, वे फ़ौज लेकर चढ़ गये। लड़ाई हुई और लड़ाई का अंजाम वही हुआ जिसे तक़दीर ने हाफ़िज़ रहमत खां की जुबान से पहले ही सुनवा दिया था। हाफ़िज़ रहमत खां शहीद हुए और उनकी हुकूमत का खात्मा हो गया।

Bahu Begum
 

मगर जीत शुजाउद्दौला को भी रास न पाई। 13 सफ़र 1188 हिजरी (1774 ई०) को लड़ाई हुई थी 11 शावान को शुजाउद्दौला बरेली से कूच करके लखनऊ आये। माह रमज़ान लखनऊ में बसर किया, 8 शव्वाल को लखनऊ से कूच करके 14 को फ़ैज़ाबाद में दाखिल हुए और जीत को 9 महीने 10 दिन ही हुए थे और घर में पूरे डेढ़ महीने भी आराम करने का मौका नहीं मिला था कि 23 ज़ीक़ाद 1188 हि० (1774 ई०) को स्वर्गवासी हुए। और अफ़सोस उनकी मौत ही के साथ फ़ैज़ाबाद की तरक्की का दौर भी खत्म हो गया।

 

उस वक्त अवध की हुकूमत में सबसे बड़ा असर नवाब शुजाउद्दीला बहादुर की बीवी बहू बैगम साहिबा का था जो बहुत ही धनवान भी समझी जाती थी। उनकी मंजूरी से नवाब आसफउद्दौला राजगद्दी पर बैठे। मगर उनकी नैतिक अवस्था बहुत ही बुरी थी और यह देखकर उनके मुसाहिबों ने यह उचित समझा कि मां बेटे को अलग रखें। कुछ दिन तक सैर व शिकार में व्यस्त रहने के बाद नवाब आसफउद्दौला बहादुर लखनऊ में रहने लगे और यहीं बैठे-बैठे मां को सताया करते और बार-बार उनसे रुपये मांगते थे।

A Palace Complex with Harem Gardens India, Faizabad, c. 1765


बहू बेगम साहिबा के मौजूद रहने से फ़ैज़ाबाद को उनकी जिंदगी तक थोड़ी-बहुत रौनक़ हासिल रही। हालांकि उनकी जिंदगी में भी नवाब आसफ़उद्दौला की नालायकियों ने बेगम साहबा के संतोष में और उसी कारण फ़ैज़ाबाद की शांति और व्यवस्था में बाधा डाली।

 

लेकिन उस आदरणीय महिला की जिंदगी तक वे झगड़े और हंगामे भी एक तरह से वहां की रौनक़ को बढ़ाया ही करते थे। उनके निधन के साथ ही फ़ैज़ाबाद का इतिहास समाप्त हो गया और लखनऊ का दौर शुरू हुआ जिसका हाल हम आगे लिखेंगे।

 

मुंशी फैज बख्श जो "तारीख--फरहबख्श' के लेखक थे, जिनकी मेहरबानी से हमें ये घटनाएं मालूम हुई हैं, खुद उस ज़माने में मौजूद थे और उन्होंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। 

  The End

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