नागपाड़े में मैं जब शाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो प्रायः एक्टर और एक्ट्रेसों की बातें हुआ करती थीं। लगभग सभी एक्टर और एक्ट्रेसों के संबंध में कोई-न-कोई स्केंडल प्रसिद्ध था।
यह उस समय का जिक्र है, जब उस लड़ाई का नामोनिशान भी न था। शायद आठ-नौ बरस पहले की बात है, जब जिंदगी में हंगामें बड़े तरीके से आते थे। आजकल की तरह नहीं कि बेमतलब और व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े और घटनाएं होती हैं। उस समय मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फिल्म कंपनी में नौकर था और मेरी जिंदगी बर्फीली जमीन पर स्लेज की तरह मजे से गुजर रही थी।
यानी सुबह दस बजे स्टूडियो पर गए। नियाज मुहम्मद वलन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फिल्म के लिए चालू किस्म के संवाद लिखे। बंगाली एक्ट्रेस से, जो उस जमाने में बंगाल की बुलबुल कहलाती थी, थोड़ी देर मज़ाक किया और दादा गोरे की, जो उस स्थान का सबसे बड़ा फिल्म डायरेक्टर था, थोड़ी-सी खुशामद की और घर चले आए।
जैसा कि मैं बता चुका हूं कि जिंदगी की गाड़ी बड़ी नरमी से मजे में ढलक रही थी। स्टूडियो का मालिक हरमजरजी फरामजी जो मोटे-मोटे लाल गालों वाला मौजी किस्म का ईरानी था, एक अधेड़ उम्र की खोजा एक्ट्रेस के प्रेम में फंसा हुआ था। हर नई लड़की के स्तन टटोलकर देखना उसका काम था। कलकत्ता के बऊ बाजार की एक मुसलमान वेश्या थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकॉर्डिस्ट और स्टोरी राइटर-तीनों के साथ इश्क लड़ा रही थी। उस इश्क का असल में मतलब यह था कि उन तीनों का प्रेम उसके लिए विशेष रूप से मौजूद रहे।
‘वन की सुंदरी’ की शूटिंग चल रही थी। नियाज मुहम्मद वलन की जंगली बिल्लियों को, जो उसने खुदा मालूम स्टूडियो के लोगों पर क्या असर पैदा करने के लिए पाल रखी थीं, दो पैसे का दूध पिलाकर मैं हर रोज उस ‘वन की सुंदरी’ के लिए मुश्किल भाषा में संवाद लिखा करता था।
उस
फिल्म की कहानी क्या थी, प्लाट कैसा था, जाहिर है कि इसका पता मुझे कुछ नहीं था। क्योंकि उस जमाने में मैं एक मुंशी था जिसका नाम केवल आज्ञा मिलने पर जो कुछ कहा जाए गलत-सलत उर्दू में जो डायरेक्टर साहब की समझ में आ जाए, पेंसिल से एक कागज पर लिखकर देना होता था। खैर, ‘वन की सुंदरी’ की शूटिंग चल रही थी और अफवाह यह थी कि ‘दलीप’ का पार्ट अदा करने के लिए एक नया चेहरा सेठ हरमजरजी फरामजी कहीं से ला रहे हैं।
हीरो का पार्ट राजकिशोर को दिया गया था। राजकिशोर रावलपिंडी का एक सुंदर-स्वस्थ युवक था। उसके शरीर के बारे में लोगों का ख्याल था कि बहुत मरदाना और सुडौल है। मैंने कई बार उसके बारे में गौर किया, लेकिन मुझे उसके शरीर में, जो कि सचमुच कसरती और गठीला था, कोई खिंचाव नजर नहीं आया।
लेकिन उसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं बहुत ही दुबला और मरियल किस्म का आदमी हूं और अपने भाई-बंदों के शरीरों की निरख-परख करने का इतना आदी नहीं जितना उनके दिलो-दिमाग और आत्मा के बारे में सोचने का आदी हूं।
मुझे राजकिशोर से घृणा नहीं थी, इसलिए कि मैंने अपनी उम्र में शायद ही किसी आदमी से घृणा की हो। लेकिन वह मुझे कुछ ज्यादा पसंद नहीं था। इसका कारण मैं धीमे-धीमे बताऊंगा।
राजकिशोर की भाषा, भाव ठेठ रावलपिंडी के थे, जो कि मैं बहुत ही पसंद करता था। मेरा विचार है कि पंजाबी भाषा में यदि कहीं बढ़िया शेर मिलते हैं तो वे रावलपिंडी की भाषा में ही आपको मिल सकते हैं।
उस शहर की भाषा में एक अजीब तरह का मरदानापन है, जिसमें भारी आकर्षण और मिठास है। यदि रावलपिंडी की कोई औरत आपसे बात करे तो ऐसा लगता है कि मीठे आम का रस आपके मुंह में चुआया जा रहा है। लेकिन मैं आमों की नहीं राजकिशोर की बात कर रहा था, जो मुझे आम से बहुत कम प्रिय था।
राजकिशोर, जैसा कि मैं कह चुका हूं, सुंदर और स्वस्थ युवक था। यहां तक बात खत्म हो जाती, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन परेशानी यह थी कि उसे यानी राजकिशोर को खुद अपने स्वास्थ्य और सौंदर्य का ज्ञान था, ऐसा ज्ञान जो कम-से-कम मेरे लिए स्वीकार नहीं था।
इसमें कोई शक नहीं कि मैं दमा का मरीज हूं, कमजोर हूं। मेरे एक फेफड़े में हवा खींचने की बहुत कम ताकत है, लेकिन खुदा गवाह है कि मैंने आज तक अपनी कमजोरी का दिखावा नहीं किया। हालांकि मुझे इसका पूरा-पूरा ज्ञान है कि आदमी अपनी कमजोरियों से इसी तरह फायदा उठा सकता है जिस तरह की अपनी ताकत से उठा सकता है। लेकिन मेरा ईमान है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।
मेरी निगाह में सुंदरता वह है, जिसकी लोग चिल्ला-चिल्लाकर नहीं वरन दिल-ही-दिल में सराहना करें। मैं उस तंदुरुस्ती को बीमारी समझता हूं जो नंगी होकर या सख्त पत्थर बनकर टकराती फिरे।
कुछ भी हो, लेकिन मैं अपने दिलोदिमाग को इस बात को कभी तैयार नहीं कर सका कि वह राजकिशोर को उसी नजर से देखे जिससे दूसरे देखते थे। यही कारण था कि मैं बातचीत के बीच में उससे उलझ जाया करता था।
राजकिशोर में वे ये सब सौंदर्य मौजूद थे, जो एक युवक में होने चाहिए। लेकिन मुझे दुख है कि उसे उन सौंदर्यों का बहुत ही भौंडा प्रदर्शन करने की आदत थी। आपसे बात कर रहा है और अपने एक बाजू के पट्टे अकड़ा रहा है और खुद ही दाद दे रहा है। बहुत ही गंभीर वार्ता हो रही है, यानी स्वराज की बात छिड़ी है और वह अपने खादी के कुरते के बटन खोलकर अपने वक्ष की चौड़ाई का अंदाज़ा कर रहा है।
सारे फिल्म प्रोड्यूसर उसकी इज्जत करते थे, क्योंकि उसके चाल-चलन की पवित्रता की बहुत प्रसिद्ध थी। फिल्म प्रोड्यूसरों को छोड़िए, पब्लिक को भी इस बात का अच्छा ज्ञान था कि राजकिशोर बहुत ही अच्छे चरित्र का आदमी है।
फिल्मी दुनिया में रहकर पाप के धब्बों से बचे रहना किसी भी आदमी के लिए बहुत बड़ी बात है। यों तो राजकिशोर एक सफल हीरो था, लेकिन उसके इस एक गुण ने भी उसे बहुत ऊंचाई पर पहुंचा दिया था।
नागपाड़े में मैं जब शाम को पान वाले की दुकान पर बैठता था तो प्रायः एक्टर और एक्ट्रेसों की बातें हुआ करती थीं। लगभग सभी एक्टर और एक्ट्रेसों के संबंध में कोई-न-कोई स्केंडल प्रसिद्ध था। लेकिन राजकिशोर का जब भी जिक्र आता तो श्यामलाल पनवाड़ी बड़े मजेदार लहजे में कहा करता, ‘‘मंटो साहब, राज भाई ही एक ऐसा एक्टर है जो लंगोट का भारी पक्का है।’’
मालूम नहीं श्यामलाल उसे राज भाई कैसे कहने लगा था, लेकिन उसके बारे में मुझे इतना अधिक अचंभा भी नहीं था, इसलिए राज भाई की मामूली-से-मामूली बात भी एक कारनामा बनकर लोगों तक पहुंच जाती थी।
उदाहरण के तौर पर बाहर के लोगों को उसकी आमदनी का पूरा-पूरा ज्ञान था। अपने बाप को महीने का खर्च क्या देता है, अनाथालयों को महीने का चंदा कितना देता है, उसका अपना जेब-खर्च क्या है‒ ये सब बातें लोगों को इस तरह मालूम थीं जैसे वे चीजें उन्हें जुबानी याद कराई गई हों।
श्यामलाल ने एक दिन मुझे बताया कि राज भाई का अपनी सौतेली मां के साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार है। उस जमाने में जब आमदनी का कोई जरिया नहीं था, बाप और नई बीवी उसे तरह-तरह के दुःख देते थे, लेकिन राज भाई की तारीफ है कि उन्होंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया और उनको अपने सिर-आंखों पर जगह दी।
अब दोनों पलंग पर बैठे राज करते हैं। हर सुबह-सवेरे राज अपनी सौतेली मां के पास जाता है और उसके चरण छूता है, बाप के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और जो आज्ञा मिले, उसका तुरंत पालन करता है।
मैं नहीं कह सकता कि क्या कारण था, लेकिन ईमान की बात है कि मेरे दिल-ओ-दिमाग के किसी अंधेरे कोने में यह शक बिजली की तरह कौंध जाता कि राज बन रहा है। राज की जिंदगी बिलकुल बनावटी है, लेकिन परेशानी यह थी कि मेरे विचारों का नहीं था।
लोग
देवताओं की तरह उसकी पूजा करते थे और मैं दिल-ही-दिल में घुटता था। राज की बीवी थी। राज के चार बच्चे थे। वह अच्छा पति और अच्छा पिता था। उसकी जिंदगी पर से चादर का कोई भी कोना हटाकर देखा जाता तो आपको कोई धब्बेदार चीज नजर न आती। यह सब कुछ था लेकिन उसके होते हुए भी मेरे दिल में बराबर शक बना रहता था।
खुदा की कसम मैंने दिल को लानत दी कि भई तुम बड़े वाहियात हो कि ऐसे अच्छे आदमी को, जिसे सारी दुनिया अच्छा कहती है और जिसके बारे में तुम्हें कोई शिकायत भी नहीं, बेकार शक की नजरों से देखते हो। यदि एक आदमी अपना सुडौल बदन बार-बार देखता है तो वह कौन-सी बुरी बात है।
यदि तुम्हारा बदन भी ऐसा ही खूबसूरत होता, तो बहुत संभव है कि तुम भी यही हरकत करते। इसमें कोई शक नहीं कि उसकी जिंदगी में कोई स्केंडल नहीं था। अपनी बीवी के सिवा किसी दूसरी स्त्री का मैला या उजला दामन उससे बंधा नहीं था।
मैं यह भी मानता हूं कि वह सब एक्ट्रेसों को बहन कहकर पुकारा करता था और वे भी उसे प्रत्युत्तर में भाई कहा करती थीं, लेकिन दिल ने हमेशा मेरे दिमाग से यही सवाल किया कि संबंध कायम करने की ऐसी ज्यादा जरूरत ही क्या है।
भाई-बहन का संबंध कुछ और है। लेकिन किसी स्त्री को अपनी बहन कहना उस भाव से जैसे यह बोर्ड लगाया जा रहा है कि ‘सड़क बंद है’ या ‘यहां पेशाब करना मना है’ बिलकुल दूसरी बात है।
यदि तुम किसी स्त्री से गहरा संबंध करना नहीं चाहते तो उसका ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है। यदि तुम्हारे दिल में तुम्हारी बीवी के सिवा किसी स्त्री का ख्याल नहीं आ सकता तो उसका इश्तहार देने की क्या जरूरत है। यह और इस तरह की दूसरी बातें चूंकि मेरी समझ में नहीं आती थीं इसलिए मुझे अजीब किस्म की उलझन होती थी।
खैर!
‘वन की सुंदरी’ की शूटिंग चल रही थी। स्टूडियो में ख़ासी चहल-पहल थी। हर रोज एक्स्ट्रा लड़कियां आती थीं जिनके साथ हमारा दिन हंसी-मज़ाक में गुजर जाता था।
एक दिन नियाज मुहम्मद वलन के कमरे में मेकअप मास्टर, जिसे हम उस्ताद कहते थे, यह ख़बर लेकर आया कि दलीप के रोल के लिए जो लड़की आने वाली थी, आ गई है और जल्द काम शुरू हो जाएगा।
उस समय चाय का दौर चल रहा था। कुछ उसकी हरारत थी, कुछ इस ख़बर ने हमको गरमा दिया। स्टूडियो में एक नई लड़की का आना हमेशा खुशी का समाचार हुआ करता है। इसलिए हम सब नियाज मुहम्मद वलन के कमरे से निकलकर बाहर चले आए ताकि उसके दर्शन किए जा सकें।
शाम के वक्त जब सेठ हरमजरजी फरामजी ऑफिस से निकलकर असली तबलती की चांदी की डिबिया से दो खुशबूदार तंबाकू वाले पान निकालकर अपने चौड़े गले में दबाकर बिलिअर्ड खेलने वाले कमरे का रुख कर रहे थे, हमें वह नई लड़की नजर आई।
सांवले रंग की स्त्री थी, मैं केवल इतना ही देख सका, क्योंकि वह जल्दी-जल्दी सेठ के साथ हाथ मिलाकर स्टूडियो की मोटर में बैठकर चली गई। कुछ देर के बाद नियाज मुहम्मद ने बताया कि उस स्त्री के होंठ मोटे थे। वह शायद केवल होंठ ही देख सका था। उस्ताद, जिसने शायद इतनी झलक भी न देखी थी, सिर हिलाकर बोला, ‘हूं….कंडम।’ यानी बकवास है।
चार-पांच दिन गुजर गए, लेकिन वह नई लड़की स्टूडियो में नहीं आई। पांचवें या छठे दिन जब मैं गुलाब के होटल में चाय पीकर निकल रहा था, अचानक मेरी और उसकी मुठभेड़ हो गई।
मैं हमेशा स्त्रियों को चार आंखों से देखने का आदी हूं। यदि कोई स्त्री एकदम मेरे सामने आ जाए तो मुझे उसका कुछ भी नजर नहीं आता। चूंकि अप्रत्याशित रूप से उससे मेरी मुठभेड़ हुई थी, इसलिए मैं उसकी शक्ल-सूरत के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं कर सका। हां, पैर मैंने जरूर देखे जिनमें नई चाल के स्लीपर थे।
लेबोरेटरी से स्टूडियो तक जो रोड जाती है, उस पर मालिकों ने बजरी बिछा रखी है। उस बजरी में बेशुमार गोल-गोल पट्टियां हैं, जिन पर से जूता बार-बार फिसलता है। चूंकि उसके पांव में खुले स्लीपर थे, इसलिए चलने में उसे कुछ ज्यादा तकलीफ़ हो रही थी।
उस मुलाकात के बाद धीरे-धीरे मिस नीलम से मेरी दोस्ती हो गई। स्टूडियो के लोगों को खैर इसका ज्ञान नहीं था। लेकिन उसके साथ मेरे संबंध बहुत ही खुले हुए थे। उसका असली नाम राधा था। मैंने जब एक बार उससे पूछा कि तुमने इतना प्यारा नाम क्यों छोड़ दिया तो उसने जवाब दिया, ‘यों ही…।’ लेकिन फिर कुछ देर बाद कहा, ‘यह नाम इतना प्यारा है कि फिल्म में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।’
आप शायद सोचें कि राधा धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है। जी नहीं, उसका धर्म और उसकी बला से दूर का भी संबंध न था। लेकिन जिस तरह मैं हर नया काम शुरू करने से पहले कागज पर ‘बिस्मिल्लाह’ अर्थात जय प्रभु के दो शब्द जरूर लिखता हूं, इसी तरह शायद उसे भी साधारण रूप में राधा नाम से अधिक प्रेम था।
चूंकि वह चाहती थी कि उसे राधा न कहा जाए, इसलिए मैं आगे चलकर उसे नीलम ही कहूंगा।
नीलम
बनारस की वेश्या की बेटी थी। वहां की बोलचाल और भाव में, जो बहुत अच्छा मालूम होता था, मेरा नाम सआदत होने पर भी सादिक कहा करती थी।
एक दिन मैंने उससे कहा, ‘नीलम, मैं जानता हूं कि तुम मुझे सआदत कह सकती हो, फिर मेरी समझ में नहीं आता कि तुम अपनी गलती ठीक क्यों नहीं करतीं।’
यह सुनकर उसके सांवले होंठों पर, जो बहुत ही पतले थे, एक हल्की-सी मुस्कराहट आ गई और उसने जवाब दिया, ‘जो गलती मुझसे एक बार हो जाए, मैं उसे ठीक करने की कोशिश नहीं किया करती।’
मेरा ख्याल है कि बहुत कम लोगों को मालूम है कि वह स्त्री, जिसे स्टूडियो के तमाम लोग एक मामूली एक्ट्रेस समझते थे, विचित्र प्रकार के गुणों की खान थी। उसमें दूसरी एक्ट्रेसों का-सा ओछापन नहीं था। उसकी गंभीरता, जिसे स्टूडियो का हर आदमी अपनी ऐनक के गलत रंग में देखता था, बहुत प्यारी चीज थी।
उसके सांवले चेहरे पर, जिसकी त्वचा बहुत ही साफ और एक-सी थी, यह गंभीरता, यह साफ तबियत तथा प्रसन्न मुद्रा उसके हित में अहित बन गई थी। इसमें कोई शक नहीं, उससे उसकी आंखों में, उसके पतले होंठों के कोनों में दुख की नामालूम रेखाएं स्पष्ट हो गई थीं। लेकिन यही एक बात थी जिसने उसे दूसरी स्त्रियों से बिलकुल भिन्न बना दिया था।
मैं
उस समय भी आश्चर्य में था और अब भी वैसा ही हैरान हूं कि नीलम को ‘वन की सुंदरी’ में दिलीप के रोल के लिए क्यों चुना गया था, इसलिए कि उसमें तेजी और तर्रारी नाम को भी न थी।
जब वह पहली बार अपने वाहियात पार्ट को अदा करने के लिए तंग चोली पहनकर सेट पर आई तो मेरी निगाहों को बहुत दुख हुआ। वह दूसरों की स्थिति को तुरंत ही भांप जाया करती थी, इसलिए मुझे देखते ही उसने कहा, ‘‘डायरेक्टर साहब कह रहे थे कि तुम्हारा पार्ट चूंकि शरीफ स्त्रियों का नहीं है, इसलिए तुम्हें इस तरह की वेशभूषा दी गई है।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘यदि यह वेशभूषा है तो मैं आपके साथ नंगी चलने के लिए तैयार हूं।’’
मैंने उससे पूछा, ‘‘डायरेक्टर साहब ने यह सुनकर क्या कहा?’’
नीलम के होंठों पर एक अर्थपूर्ण हल्की मुस्कराहट खिल गई, ‘‘उन्होंने तसव्वुर में मुझे नंगी देखना शुरू कर दिया। ये लोग भी कितने अहमक हैं, यानी उस वेशभूषा में मुझे देखकर बेचारे को तसव्वुर पर जोर डालने की जरूरत ही क्या थी?’’ सुदृढ़ मानसिक स्थिति के लिए नीलम का यह साहस भी काफी था।
अब मैं उन घटनाओं की ओर जाता हूं जिनकी मदद से मैं यह कहानी पूरी करना चाहता हूं।
बंबई में जून के महीने से बारिश शुरू हो जाती है और सितंबर के मध्य तक जारी रहती है। पहले दो-ढाई महीनों में इतना अधिक पानी बरसता है कि स्टूडियो में काम नहीं हो सकता। ‘वन की सुंदरी’ की शूटिंग अप्रैल के अंत में हुई थी। जब पहली बारिश हुई तो हम अपना तीसरा सैट पूरा कर रहे थे।
एक छोटा-सा सीन बाकी रह गया था, जिसमें कोई विशेष काम नहीं था। इसलिए बारिश में भी हमने अपना काम जारी रखा। लेकिन जब यह काम खत्म हो गया, तो हम काफी समय के लिए बेकार हो गए।
उस बीच स्टूडियो के लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर बैठने का मौका मिलता है। मैं लगभग सारे दिन गुलाब के होटल में बैठा चाय पीता रहता था। जो भी आदमी अंदर आता था या तो सारे का सारा भीगा होता था या आधा। बाहर की सब मक्खियां शरण लेने के लिए अंदर जमा हो जाती थीं।
इतना गंदा दृश्य था कि जी बिगड़ता था। एक कुर्सी पर चाय छानने का कपड़ा पड़ा है तो दूसरी कुर्सी पर प्याज काटने की बदबूदार छुरी पड़ी झक मार रही है। गुलाब साहब पास खड़े हैं और अपने गोश्त लगे दांतों के नीचे बंबई की रुई बचा रहे हैं।
उस होटल में, जिसकी छत कोरोगेटिड स्टील की थी, सेठ हरमजरजी फरामजी, उनके साले एंडलजी और हीरोइनों के सिवा सब लोग आते थे। नियाज मुहम्मद को तो दिन में कई बार वहां आना पड़ता था, क्योंकि उसने चुनी-मुनी नाम की दो बिल्लियां पाल रखी थीं। राजकिशोर दिन में एक चक्कर लगा जाता था।
ज्यों ही वह अपने लंबे कद्दावर कसरती बदन के साथ दरवाजे पर आता, मेरे सिवाय होटल में बैठे हुए तमाम लोगों की आंखें चमक उठतीं। एक्स्ट्रा लड़के उठ-उठकर राज भाई को कुर्सी देते और जब वह उसमें से किसी की दी हुई कुर्सी पर बैठ जाता तो वे सब-के-सब परवानों की तरह उसके चारों ओर जाम हो जाते। उसके बाद दो तरह की बातें सुनने में आतीं।
एक दिन जब बारिश थमी हुई थी और हरमजरजी फरामजी का अलसेशियन कुत्ता नियाज मुहम्मद की दो बिल्लियों से डरकर गुलाब के होटल की ओर दुम दबाए भागा आ रहा था तो मैंने मौलश्री के पेड़ के नीचे बने हुए गोल चबूतरे पर नीलम और राजकिशोर को बातें करते हुए देखा।
मैं गुलाब होटल से निकलकर रिकॉर्डिंग रूम में छज्जे तक पहुंचा तो राजकिशोर ने अपने चौड़े कंधे पर से खादी का थैला एक झटके के साथ उतारा और उसे खोलकर एक मोटी कॉपी बाहर निकाली। मैं समझ गया, यह राजकिशोर की डायरी है।
प्रतिदिन सब कामों से निवृत्त होकर अपनी सौतेली मां का आशीर्वाद लेकर राजकिशोर सोने से पहले अपनी डायरी लिखने का आदी है।
यों
तो उसे पंजाबी बोली बहुत प्रिय है, लेकिन वह रोजनामचा अंग्रेज़ी में लिखता है जिसमें कहीं टैगोर के नाजुक स्टाइल की और कहीं गांधी के राजनीतिक ढंग की झलक नजर आती है। उसकी लेखनी पर शेक्सपियर के ड्रामों का प्रभाव काफी है। लेकिन मुझे उस स्टाइल में लिखने वालों का व्यक्तित्व कभी नजर नहीं आया।
खैर, वह नीलम को उस डायरी के कुछ पृष्ठ पढ़कर सुना रहा था। मैंने दूर से ही उसके खूबसूरत होंठों की सिकुड़न से मालूम कर लिया कि शेक्सपियर के तरीकों में प्रभु की प्रार्थना कर रहा है।
नीलम मौलश्री के पेड़ के नीचे गोल सीमेंट के बने चबूतरे पर चुपचाप बैठी थी। उसके चेहरे पर राजकिशोर की डायरी-पाठ से कोई परिवर्तन के चिह्न दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। वह राजकिशोर की उभरी हुई छाती की ओर देख रही थी। उसके कुर्ते के बटन खुले थे और सफेद बटन पर उसकी छाती के काले बाल बहुत ही खूबसूरत मालूम होते थे।
स्टूडियो में चारों ओर हर चीज तरीके से लगी थी। नियाज मुहम्मद की दो बिल्लियां भी, जो आमतौर पर गंदी रहा करती थीं, उस दिन बहुत साफ-सुथरी दिखाई दे रही थीं। वे दोनों सामने बैंच पर लेटी नरम-नरम पंजों से अपना मुंह धो रही थीं।
नीलम सार्जेट की बेदाग साड़ी में दिख रही थी। ब्लाउज सफेद निकल का था, जो उसकी सांवली और सुडौल बांहों के साथ बहुत ही अच्छा मध्यम सौंदर्य प्रदर्शित कर रहा था।
‘नीलम इतनी प्रभाव रहित क्यों दिखाई दे रही है?’ एक क्षण के लिए यह प्रश्न मेरे दिमाग में पैदा हुआ और जब एकदम उसकी तथा मेरी आंखें चार हुईं तो मुझे उसकी निगाह के किरण-पुंज में अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया‒ नीलम प्रेमपाश में बंधी चुकी है।
उसने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें हुईं। जब राजकिशोर चला गया तो उसने मुझसे कहा, ‘‘आज आप मेरे साथ चलिएगा।“
शाम को छह बजे मैं नीलम के मकान पर था। ज्यों ही हम अंदर पहुंचे, उसने अपना बैग सोफे पर फेंका और मुझसे नजर मिलाए बिना कहा, ‘आपने जो कुछ सोचा है, गलत है।’
मैं उसका मतलब समझ गया था। इसलिए मैंने जवाब दिया, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैंने क्या सोचा था?’’
उसके पतले होंठों पर अर्थपूर्ण धीमी-सी मुस्कराहट आ गई, ‘‘इसलिए कि हम दोनों ने एक ही बात सोची थी। आपने शायद बाद में ध्यान नहीं दिया, लेकिन मैं बहुत सोच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि हम दोनों गलत थे।’
”यदि मैं कहूं कि हम दोनों सही थे?’’
उसने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘तो हम दोनों बेवकूफ़ हैं।“यह कहकर तुरंत ही उसके चेहरे की गंभीरता और ज्यादा बढ़ गई।
‘‘सादिक, यह कैसे हो सकता है। मैं बच्ची हूं जो मुझे अपने दिल का हाल मालूम नहीं। तुम्हारे विचार से मेरी उम्र क्या होगी?’’
”बाइस बरस।“
”बिलकुल ठीक, लेकिन तुम नहीं जानते कि दस बरस की उम्र में मुझे प्रेम के अर्थ मालूम थे। अर्थ क्या हुए जी, खुदा की कसम प्रेम करती थी। दस से लेकर सोलह बरस तक मैं एक खतरनाक प्रेम में बंधी रही हूं। मेरे दिल में अब क्या खाक किसी की मुहब्बत पैदा होगी…।“
यह कहकर उसने मेरे आश्चर्यचकित चेहरे की ओर देखा और उसी निराश भाव से कहा, ‘‘तुम भी कभी नहीं मानोगे, चाहे मैं तुम्हारे सामने अपना दिल निकालकर ही क्यों न रख दूं, फिर भी तुम यकीन नहीं करोगे। मैं अच्छी तरह जानती हूं।
भई खुदा की कसम, वह मर जाए जो तुमसे झूठ बोले। मेरे दिल में अब किसी की मुहब्बत पैदा नहीं हो सकती। लेकिन इतना जरूर है कि…।’यह कहते-कहते वह एकदम रुक गई।
मैंने उससे कुछ न कहा, क्योंकि वह भारी चिंता में डूब गई थी। वह शायद सोच रही थी कि ‘इतना जरूर’क्या है?
थोड़ी देर के बाद उसके पतले होंठों पर वही हल्की अर्थपूर्ण मुस्कराहट आई, जिससे उसके चेहरे की गंभीरता में थोड़ी-सी बुद्धिमानी भरी शरारत पैदा हो जाती थी। सोफे पर से एक झटके के साथ उठकर उसने कहना शुरू किया, ‘‘मैं इतना जरूर कह सकती हूं, कि यह मुहब्बत नहीं है। कोई और बात हो तो मैं कह नहीं सकती। सादिक, मैं तुम्हें यकीन दिलाती हूं।’’
मैंने तुरंत ही कहा, ‘‘यानी तुम अपने आपको यकीन दिलाती हो?’’
वह जल गई, ‘‘तुम बहुत कमीने हो। कहने का एक ढंग होता है। आखिर तुम्हें यकीन दिलाने की मुझे जरूरत ही क्या पड़ी है। मैं अपने आपको यकीन दिला रही हूं। लेकिन परेशानी यह है कि आ नहीं रहा। क्या तुम