दिन भर की थकी माँदी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोगा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी। अभी अभी उस की हड्डियां पसलियां झिंझोड़ कर शराब के नशे में चूर, घर वापस गया था.... वो रात को यहीं पर ठहर जाता मगर उसे अपनी धर्म पत्नी का बहुत ख़याल था। जो उस से बेहद प्रेम करती थी।
वो रुपय जो उस ने अपनी जिस्मानी मशक़्क़त के बदले उस दारोगा से वसूल किए थे, उस की चुस्त और थूक भरी चोली के नीचे से ऊपर को उभरे हुए थे। कभी कभी सांस के उतार चढ़ाओ से चांदी के ये सिक्के खनखनाने लगते।
और उस की खनखनाहट उस के दिल की ग़ैर-आहंग धड़कनों में घुल मिल जाती। ऐसा मालूम होता कि इन सिक्कों की चांदी पिघल कर उस के दिल के ख़ून में टपक रही है!
उस का सीना अंदर से तप रहा था। ये गर्मी कुछ तो इस ब्रांडी के बाइस थी जिस का अद्धा दरोग़ा अपने साथ लाया था। और कुछ इस “बियोड़ा” का नतीजा थी जिस का सोडा ख़त्म होने पर दोनों ने पानी मिला कर पिया था।
वो सागवान के लंबे और चौड़े पलंग पर औंधे मुँह लेटी थी। उस की बाहें जो काँधों तक नंगी थीं, पतंग की उस काँप की तरह फैली हुई थीं जो ओस में भीग जाने के बाइस पतले काग़ज़ से जुदा हो जाये।
दाएं बाज़ू की बग़ल में शिकन आलूद गोश्त उभरा हुआ था। जो बार बार मूंडने के बाइस नीली रंगत इख़्तियार कर गया था। जैसे नुची हुई मुर्ग़ी की खाल का एक टुकड़ा वहां पर रख दिया गया है।
कमरा बहुत छोटा था जिस में बेशुमार चीज़ें बेतर्तीबी के साथ बिखरी हुई थीं। तीन चार सूखे सड़े चप्पल पलंग के नीचे पड़े थे जिन के ऊपर मुँह रख कर एक ख़ारिश ज़दा कुत्ता सो रहा था।
और नींद में किसी ग़ैर मरई चीज़ को मुँह चिड़ा रहा था। उस कुत्ते के बाल जगह जगह से ख़ारिश के बाइस उड़े हुए थे। दूर से अगर कोई उस कुत्ते को देखता। तो समझता कि पैर पोंछने वाला पुराना टाट दोहरा करके ज़मीन पर रख्खा है।
इस तरफ़ छोटे से दीवार गीर पर सिंगार का सामान रखा था। गालों पर लगाने की सुर्ख़ी, होंटों की सुर्ख़ बत्ती, पाउडर, कंघी और लोहे के पिन जो वो ग़ालिबन अपने जूड़े में लगाया करती थी। पास ही एक लंबी खूंटी के साथ सबज़ तोते का पिंजरा लटक रहा था।
जो गर्दन को अपनी पीठ के बालों में छुपाए सो रहा था। पिंजरा कच्चे अमरूद के टुकड़ों और गले हुए सन्गतरे के छिलकों से भरा पड़ा था। इन बदबूदार टुकड़ों पर छोटे छोटे काले रंग के मच्छर या पतंग उड़ रहे थे।
पलंग के पास ही बेद की एक कुर्सी पड़ी थी। जिस की पुश्त सर टेकने के बाइस बेहद मैली होरही थी। उस कुर्सी के दाएं हाथ को एक ख़ूबसूरत तिपाई थी जिस पर हज़ मास्टर ज़वाइस का पोर्ट एबल ग्रामोफोन पड़ा था, उस ग्रामोफोन पर मंढे हुए काले कपड़े की बहुत बुरी हालत थी।
ज़ंग-आलूद सोईयां तिपाई के इलावा कमरे के हर कोने में बिखरी हुई थीं। इस तिपाई के ऐन ऊपर दीवार पर चार फ़्रेम लटक रहे थे। जिन में मुख़्तलिफ़ आदमियों की तस्वीरें जुड़ी थीं।
इन तस्वीरों से ज़रा हट कर यानी दरवाज़े में दाख़िल होते ही बाएं तरफ़ की दीवार के कोने में गणेश जी की शोख़ रंग की तस्वीर जो ताज़ा और सूखे हुए फूलों से लदी हुई थी। शायद ये तस्वीर कपड़े के किसी थान से उतार कर फ़्रेम में जड़ाई गई थी।
इस तस्वीर के साथ छोटे से दीवार गीर पर जो कि बेहद चिकना होरहा था, तेल की एक प्याली धरी थी। जो दिए को रोशन करने के लिए रखी गई थी। पास ही दिया पड़ा था। जिस की लौ हवा बंद होने के बाइस माथे के मानिंद सीधी खड़ी थी। उस दीवार गीर पर रूई की छोटी बड़ी मरोड़ियाँ भी पड़ी थीं।
जब वो बोहनी करती थी तो दूर से गणेश जी की इस मूर्ती से रुपय छुवा कर और फिर अपने माथे के साथ लगा कर उन्हें अपनी चोली में रख लिया करती थी। उस की छातियां चूँकि काफ़ी उभरी हुई थीं इस लिए वो जितने रुपय भी अपनी चोली में रखती महफ़ूज़ पड़े रहते थे।
अलबत्ता कभी कभी जब माधव पूने से छुट्टी लेकर आता तो उसे अपने कुछ रुपय पलंग के पाए के नीचे इस छोटे से गढ़े में छुपाना पड़ते थे। जो उस ने ख़ास इस काम की ग़रज़ से खोदा था। माधव से रुपय महफ़ूज़ रखने का ये तरीक़ा सौगंधी को राम लाल दलाल ने बताया था। उस ने जब ये सुना कि माधव पूने से आकर सौगंधी पर धावे बोलता है तो कहा था.... “इस साले को तू ने कब से यार बनाया है? ....... ये बड़ी अनोखी आशिक़ी माशूक़ी है।”
“एक पैसा अपनी जेब से निकालता नहीं और तेरे साथ मज़े उड़ाता रहता है, मज़े अलग रहे, तुझ से कुछ ले भी मरता है....
सौगंधी! मुझे कुछ दाल में काला नज़र आता है। इस साले में कुछ बात ज़रूर है। जो तुझे भा गया है....
सात साल....
से ये धंदा कर रहा हूँ। तुम छोकरियों की सारी कमज़ोरियां जानता हूँ।”
ये
कह कर राम लाल दलाल ने जो बंबई शहर के मुख़्तलिफ़ हिस्सों से दस रुपय से ले कर सौ रुपय तक वाली एक सौ बीस छोकरियों का धंदा करता था। “सौगंधी को बताया.......साली अपना धन यूं ना बर्बाद कर....तेरे अंग पर से ये कपड़ा भी उतार कर ले जाएगा।
वो तेरी माँ का यार.......
इस पलंग के पाए के नीचे छोटा सा गढ़ा खोद कर इस में सारे पैसे दबा दिया कर और जब वो यार आया करे तो उस से कहा कर....
तेरी जान की क़सम माधव, आज सुबह से एक धेले का मुँह नहीं देखा।
बाहर वाले से कह कर एक कप चाय और अफ़लातून बिस्कुट तो मंगा। भूक से मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं....
समझीं! बहुत नाज़ुक वक़्त आगया है मेरी जान....
इस साली कांग्रस ने शराब बंद करके बाज़ार बिलकुल मंदा कर दिया है।
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Sadat Hasan Manto |
पर तुझे तो कहीं न कहीं से पीने को मिल ही जाती है, भगवान की क़सम, जब तेरे यहां कभी रात की ख़ाली की हुई बोतल देखता हूँ और दारू की बॉस सूँघता हूँ तो जी चाहता है तेरी जून में चला जाऊं।”
सौगंधी को अपने जिस्म में सब से ज़्यादा अपना सीना पसंद था। एक बार जमुना ने उस से कहा था। “नीचे से इन बंब के गोलों को बांध के रखा कर, अंगया पहनेगी तो इन की सख्ताई ठीक रहेगी।”
सौगंधी ये सुन कर हंस दी। “जमुना तू सब को अपने मरी का समझती है। दस रुपय में लोग तेरी बोटियां तोड़ कर चले जाते हैं। तू तो समझती है कि सब के साथ भी ऐसा ही होता होगा....
कोई मोवा लगाए तो ऐसी वैसी जगह हाथ....
अरे हाँ,
कल की बात तुझे सुनाऊं राम लाल रात के दो बजे एक पंजाबी को लाया। रात का तीस रुपय तय हुआ....
जब सोने लगे तो मैंने बत्ती बुझा दी....
अरे वो तो डरने लगा....
सुनती हो जमुना? तेरी क़सम
अंधेरा होते ही उस का सारा ठाठ किर किरा होगया... वो डर गया! मैंने कहा चलो चलो देर क्यों करते हो। तीन बजने वाले हैं, अब दिन चढ़ आएगा....
बोला....
रौशनी करो....
रौशनी करो....
मैंने कहा, ये रौशनी क्या हुआ....
बोला लाईट....
लाईट!
.... उस की भींची हुई आवाज़ सुन कर मुझ से हंसी न रुकी।
“भई मैं तो लाईट न करूंगी!.......”
और ये कह कर मैंने उस की गोश्त भरी रान की चुटकी ली....
तड़प कर उठ बैठा और लाईट ओन करदी मैंने झट से चादर ओढ़ ली, और कहा, तुझे शर्म नहीं आती मर्दवे!
....... वो पलंग पर आया तो मैं उठी और लपक कर लाईट बुझा दी... वो फिर घबराने लगा....तेरी क़सम बड़े मज़े में रात कटी,
कभी अंधेरा कभी उजाला, कभी उजाला, कभी अंधेरा.... ट्राम की खड़खड़ हुई तो पतलून-ओ-तलव्वुन पहन कर वो उठ भागा.... साले ने तीस रुपय सट्टे में जीते होंगे। जो यूं मुफ़्त दे गया.... जमुना तू बिलकुल अल्हड़ है। बड़े बड़े गुर याद हैं मुझे इन लोगों को ठीक करने के लिए!”
सौगंधी को वाक़ई बहुत से गुर याद थे जो उस ने अपनी एक दो सहेलियों को बताए भी थे। आम तौर पर वो ये गुर सब को बताया करती थी
.... “अगर आदमी शरीफ़ हो, ज़्यादा बातें न करने वाला हो तो उस से ख़ूब शरारतें करो, अन-गिनत बातें करो।
उसे छेड़ो सताओ, उस के गुदगुदी करो। उस से खेलो.... अगर दाढ़ी रखता हो तो उस में उंगलियों से कंघी करते करते दो चार बाल भी नोच लो पेट बड़ा हो तो थपथपाओ.... उस को इतनी मोहलत ही न दो कि अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ कुछ करने पाए.... वो ख़ुश ख़ुश चला जाएगा और रक़म भी बची रहेगी .... ऐसे मर्द जो गुपचुप रहते हैं बड़े ख़तरनाक होते हैं बहन.... हड्डी पसली तोड़ देते हैं अगर इन का दाव चल जाये।”
सौगंधी इतनी चालाक नहीं थी जितनी ख़ुद को ज़ाहिर करती थी। उस के गाहक बहुत कम थे ग़ायत दर्जा जज़्बाती लड़की थी। यही वजह है कि वो तमाम गुर जो उसे याद थे उस के दिमाग़ से फिसल कर उस के पेट में आजाते थे जिस पर एक बच्चा पैदा करने के बाइस कई लकीरें पड़ गई थीं .... इन लकीरों को पहली मर्तबा देख कर उसे ऐसा लगा था कि उस के ख़ारिश ज़दा कुत्ते ने अपने पंजे से ये निशान बना दिए हैं।
सौगंधी दिमाग़ में ज़्यादा रहती थी लेकिन जूंही कोई नर्म नाज़ुक बात....
कोई कोमल बोली....
उस से कहता तो झट पिघल कर वो अपने जिस्म के दूसरे हिस्सों में फैल जाती। गो मर्द और औरत के जिस्मानी मिलाप को उस का दिमाग़ बिलकुल फ़ुज़ूल समझता था।
मगर उस के जिस्म के बाक़ी आज़ा सब के सब इस के बहुत बुरी तरह क़ाइल थे! वो थकन चाहते थे.... ऐसी थकन जो उन्हें झिंझोड़ कर.... उसे मारकर सुलाने पर मजबूर करदे! ऐसी नींद जो थक कर चूर चूर हो जाने के बाद आए, कितनी मज़ेदार होती है....... वो बेहोशी जो मार खा कर बंद बंद ढीले हो जाने पर तारी होती है, कितना आनंद देती है!....
कभी ऐसा होता है कि तुम हो और कभी ऐसा मालूम होता है कि तुम नहीं और इस होने और न होने के बीच में कभी कभी ऐसा भी महसूस होता है कि तुम हवा में बहुत ऊंची जगह लटकी हुई हो।ऊपर हवा, नीचे हवा, दाएं हवा, बाएं हवा, बस हवा ही हवा ! और फिर इस हवा में दम घुटना भी एक ख़ास मज़ा देता है।
बचपन में जब वो आंखमिचौली खेला करती थी, और अपनी माँ का बड़ा संदूक़ खोल कर उस में छुप जाया करती थी, तो नाकाफ़ी हवा में दम घुटने के साथ साथ पकड़े जाने के ख़ौफ़ से वो तेज़ धड़कन जो इस के दिल में पैदा होजाया करती थी कितना मज़ा दिया करती थी।
सौगंधी
चाहती थी कि अपनी सारी ज़िंदगी किसी ऐसे ही संदूक़ में छुप कर गुज़ार दे। जिस के बाहर ढ़ूढ़ने वाले फिरते रहें। कभी कभी उस को ढूंढ निकालें ताकि वो कभी उन को ढ़ूढ़ने की कोशिश करे! ये ज़िंदगी जो वो पाँच बरस से गुज़ार रही थी आंखमिचौली ही तो थी!.... कभी वो किसी को ढूंढ लेती थी और कभी कोई उसे ढूंढ लेता था....
बस यूंही उस का जीवन बीत रहा था। वो ख़ुश थी इस लिए कि उस को ख़ुश रहना पड़ता था। हर रोज़ रात को कोई न कोई मर्द उस के चौड़े सागवानी पलंग पर होता था और सौगंधी जिस को मर्दों के ठीक करने के लिए बेशुमार गुर याद थे।
इस बात का बार बार तहय्या करने पर भी कि वो उन मर्दों की कोई ऐसी वैसी बात नहीं मानेगी। और उन के साथ बड़े रूखेपन के साथ पेश आएगी। हमेशा अपने जज़्बात के धारे में बह जाया करती थी और फ़क़त एक प्यासी औरत रह जाया करती थी!
हर रोज़ रात को उस का पुराना या नया मुलाक़ाती उस से कहा करता था। “सौगंधी मैं तुझ से प्रेम करता हूँ।” और सौगंधी ये जानबूझ कर भी कि वो झूट बोलता है बस मोम हो जाती थी और ऐसा महसूस करती थी जैसे सचमुच उस से प्रेम किया जा रहा है.......प्रेम....... कितना सुंदर बोल है!
वो चाहती थी, उस को पिघला कर अपने सारे अंगों पर मल ले उस की मालिश करे ताकि ये सारे का सारा उस के मुसामों में रच जाये....
या फिर वो ख़ुद उस के अन्दर चली जाये।
सिमट सिमटा कर उस के अंदर दाख़िल हो जाये और ऊपर से ढकना बंद करदे। कभी कभी जब प्रेम किए जाने का जज़्बा उस के अंदर बहुत शिद्दत इख़्तियार कर लेता तो कई बार उस के जी में आता कि अपने पास पड़े हुए आदमी को गोद ही में लेकर थपथपाना शुरू करदे और लोरियां दे कर उसे गोद ही में सुला दे।
प्रेम कर सकने की अहलियत उस के अंदर इस क़दर ज़्यादा थी कि हर उस मर्द से जो उस के पास आता था। वो मोहब्बत कर सकती थी। और फिर उस को निबाह भी सकती थी। अब तक चार मर्दों से अपना प्रेम निबाह ही तो रही थी जिन की तस्वीरें इस के सामने दीवार पर लटक रही थीं।
हर वक़्त ये एहसास उस के दिल में मौजूद रहता था कि वो बहुत अच्छी है लेकिन ये अच्छा पन मर्दों में क्यों नहीं होता। ये बात उस की समझ में नहीं आती थी.... एक बार आईना देखते हुए बेइख़्तियार उस के मुँह से निकल गया था.... “सौगंधी.... तुझ से ज़माने ने अच्छा सुलूक नहीं किया!”
ये ज़माना यानी पाँच बरसों के दिन और उन की रातें, उस के जीवन के हर तार के साथ वाबस्ता थे। गो उस ज़माने से उस को ख़ुशी नसीब नहीं हुई थी जिस की ख़्वाहिश उस के दिल में मौजूद थी। ताहम वो चाहती थी कि यूंही उस के दिन बीतते चले जाएं, उसे कौन से महल खड़े करना थे जो रुपय पैसे का लालच करती।
दस रुपय उस का आम नर्ख़ था जिस में से ढाई रुपय राम लाल अपनी दलाली के काट लेता था। साढ़े सात रुपय उसे रोज़ मिल ही जाया करते थे जो उस की अकेली जान के लिए काफ़ी थे।
और माधव जब पूने से बाक़ौल राम लाल दलाल, सौगंधी पर धावे बोलने के लिए आता था तो वो दस पंद्रह रुपय ख़राज भी अदा करती थी! ये ख़राज सिर्फ़ इस बात का था कि सौगंधी को उस से कुछ वो होगया था।
राम लाल दलाल ठीक कहता था उस में ऐसी बात ज़रूर थी जो सौगंधी को बहुत भा गई थी। अब उस को छुपाना क्या! बता ही क्यों नहीं दें!....
सौगंधी से जब माधव की पहली मुलाक़ात हुई तो उस ने कहा था। “तुझे लाज नहीं आती अपना भाव करते!
जानती है तू मेरे साथ किस चीज़ का सौदा कर रही है ....... और मैं तेरे पास क्यों आया हूँ?....... छी छी छी ....... दस रुपय और जैसा कि तो कहती है ढाई रुपय दलाल के, बाक़ी रहे साढ़े सात, रहे ना साढ़े सात?....... अब इन साढ़े सात रूपों पर तू मुझे ऐसी चीज़ देने का वचन देती है जो तू दे ही नहीं सकती और मैं ऐसी चीज़ लेने आया।
जो मैं ले ही नहीं सकता
.... मुझे औरत चाहिए पर तुझे क्या उस वक़्त उसी घड़ी मर्द चाहिए?.......
मुझे तो कोई औरत भी भा जाएगी पर क्या मैं सतझे जचता हूँ!.......
तेरा मेरा नाता ही किया है कुछ भी नहीं....
बस ये दस रुपय, जिन में से ढाई रुपय दलाल में चले जाऐंगे और बाक़ी इधर उधर बिखर जाऐंगे, तेरे और मेरे बीच में बज रहे हैं....
तो भी इन का बजना सुन रही है और मैं भी।
तेरा मन कुछ और सोचता है मेरा मन कुछ और....क्यों ना कोई ऐसी बात करें कि तुझे मेरी ज़रूरत हो और मुझे तेरी....
पूने में हवालदार हूँ, महीने में एक बार आया करूंगा। तीन चार दिन के लिए....
ये धंदा छोड़....
मैं तुझे ख़र्च दे दिया करूंगा....
क्या भाड़ा है इस खोली का....?”
माधव ने और भी बहुत कुछ कहा था जिस का असर सौगंधी पर इस क़दर ज़्यादा हुआ था कि वो चंद लम्हात के लिए ख़ुद को हवालदारनी समझने लगी थी। बातें करने के बाद माधव ने उस के कमरे की बिखरी हुई चीज़ें करीने से रखी थीं और नंगी तस्वीरें जो सौगंधी ने अपने सिरहाने लटका रखी थीं, बिना पूछे गच्छे फाड़ दी थीं।
और कहा था....
“सौगंधी भई मैं ऐसी तस्वीरें यहां नहीं रखने दूंगा....
और पानी का ये घड़ा
.... देखना कितना मेला है और ये....
ये चीथड़े....
ये चन्दीयाँ....
उफ़ कितनी बुरी बॉस आती है, उठा के बाहर फेंक इन को....
और तू ने अपने बालों का सत्यानास कर रखा है....
और....
और....।”
तीन घंटे की बातचीत के बाद सौगंधी और माधव आपस में घुल मिल गए थे और सौगंधी को तो ऐसा महसूस हुआ था कि बरसों से हवालदार को जानती है, उस वक़्त तक किसी ने भी कमरे में बदबूदार चीथड़ों, मैले घड़े और नंगी तस्वीरों की मौजूदगी का ख़याल नहीं किया था और न कभी किसी ने उस को ये महसूस करने का मौक़ा दिया था कि उस का एक घर है जिस में घरेलू पन आसकता है।
लोग आते थे और बिस्तर तक ग़लाज़त को महसूस किए बग़ैर चले जाते थे। कोई सौगंधी से ये नहीं कहता था। “देख तो आज तेरी नाक कितनी लाल हो रही है कहीं ज़ुकाम न हो जाये तुझे.... ठहर में तेरे वास्ते दवा लाता हूँ।” माधव कितना अच्छा था उस की हर बात बावन तौला और पाओ रत्ती की थी। क्या खरी खरी सुनाई थीं उस ने सौगंधी को....... उसे महसूस होने लगा कि उसे माधव की ज़रूरत है। चुनांचे इन दोनों का संबंध हो गया।
महीने में एक बार माधव पूने से आता था और वापस जाते हुए हमेशा सौगंधी से कहा करता था। “देख सौगंधी! अगर तू ने फिर से अपना धंदा शुरू किया। तो बस तेरी मेरी टूट जाएगी....
अगर तू ने एक बार भी किसी मर्द को अपने यहां ठहराया तो चुटिया से पकड़ कर बाहर निकाल दूंगा.......
देख इस महीने का ख़र्च मैं तुझे पूना पहुंचते ही मनी आर्डर कर दूँगा.......
हाँ क्या भाड़ा है इस खोली का......
”
न माधव ने कभी पूना से ख़र्च भेजा था और न सौगंधी ने अपना धंदा बंद किया था। दोनों अच्छी तरह जानते थे कि क्या होरहा है। न सौगंधी ने कभी माधव से ये कहा था कि “तू ये क्या टरटर किया करता है, एक फूटी कौड़ी भी दी है कभी तू ने?”
और न माधव ने कभी सौगंधी से पूछा था। “ये माल तेरे पास कहाँ से आता है जब कि मैं तुझे कुछ देता ही नहीं.......”
दोनों झूटे थे। दोनों एक मुलम्मा की हुई ज़िंदगी बसर कर रहे थे.......
लेकिन सौगंधी ख़ुश थी जिस को असल सोना न मिले वो मुलम्मा किए हुए गहनों ही पर राज़ी हो जाया करता है।
इस वक़्त सौगंधी थकी माँदी सो रही थी। बिजली का क़ुमक़ुमा जिसे औफ़ करना वो भूल गई थी उस के सर के ऊपर लटक रहा था। उस की तेज़ रौशनी उस की मंदी हुई आँखों के सामने टकरा रही थी। मगर वो गहरी नींद सो रही थी।
दरवाज़े पर दस्तक हुई.... रात के दो बजे ये कौन आया था? सौगंधी के ख़्वाब आलूद कानों में दस्तक भुनभुनाहट बन कर पहुंची। दरवाज़ा जब ज़ोर से खटखटाया गया तो चौंक कर उठ बैठी.... दो मिली जुली शराबों और दाँतों के रेखों में फंसे हुए मछली के रेज़ों ने उस के मुँह के अंदर ऐसा लुआब पैदा कर दिया था जो बेहद कसैला और लेसदार था।
धोती के पल्लू से उस ने ये बदबूदार लुआब साफ़ किया और आँखें मलने लगी। पलंग पर वो अकेली थी। झुक कर इस ने पलंग के नीचे देखा तो उस का कुत्ता सूखे हुए चप्पलों पर मुँह रखे सो रहा था और नींद में किसी ग़ैर मरई चीज़ को मुँह चिड़ रहा था और तोता पीठ के बालों में सर दिए सोरहा था।
दरवाज़े पर दस्तक हुई। सौगंधी बिस्तर पर से उठी। सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। घड़े से पानी का एक डोंगा निकाल कर इस ने कुल्ली की। और दूसरा डोंगा गटा गट पी कर उस ने दरवाज़े का पट थोड़ा सा खोला और कहा। “राम लाल?”
राम लाल जो बाहर दस्तक देते हुए थक गया था। भुन्ना कर कहने लगा। “तुझे साँप सूंघ गया था या क्या होगया था। एक क्लाक(घंटे) से बाहर खड़ा दरवाज़ा खटखटा रहा हूँ कहाँ मर गई थी?.......
” फिर आवाज़ दबा कर उस ने हौले से कहा। “अंदर कोई है तो नहीं?”
जब सौगंधी ने कहा। “नहीं.......
” तो राम लाल की आवाज़ फिर ऊंची होगई। “तू दरवाज़ा क्यों नहीं खोलती?....
भई हद होगई है क्या नींद पाई है। यूं एक एक छोकरी उतारने में दो दो घंटे सर खपाना पड़े तो मैं अपना धंदा कर चुका....
अब तू मेरा मुँह क्या देखती है।
झटपट ये धोती उतार कर वह फूलों वाली साड़ी पहन, पावडर वावडर लगा और चल मेरे साथ....
बाहर मोटर में एक सेठ बैठे तेरा इंतिज़ार कर रहे हैं....
चल चल एक दम जल्दी कर।”
सौगंधी आराम-ए-कुर्सी पर बैठ गई और राम लाल आईने के सामने अपने बालों में कंघी करने लगा।सौगंधी ने तिपाई की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाया और बाम की शीशी उठा कर इस का ढकना खोलते हुए कहा। “राम लाल आज मेरा जी अच्छा नहीं।”
राम लाल ने कंघी दीवार गीर पर रख दी और मुड़ कर कहा। “तो पहले ही कह दिया होता।” सौगंधी ने माथे और कनपटियों पर बाम से छूते हुए ग़लत-फ़हमी दूर करदी।
“वो बात नहीं राम लाल!....
ऐसे ही मेरा जी अच्छा नहीं....
बहुत पी गई।”राम लाल के मुँह में पानी भर आया। “थोड़ी बची हो तो ला....
ज़रा हम भी मुँह का मज़ा ठीक कर लें।”
सौगंधी ने बाम की शीशी तिपाई पर रख दी और कहा। “बचाई होती तो ये मूवा सर में दर्द ही क्यों होता....
देख राम लाल! वो जो बाहर मोटर में बैठा है उसे अंदर ही ले आओ।”
राम
लाल ने जवाब दिया। “नहीं भई वो अंदर नहीं आ सकते। जैंटलमैन आदमी हैं। वो तो मोटर को गली के बाहर खड़ी करते हुए घबराते थे.... तू कपड़े वपड़े पहन ले और ज़रा गली के नुक्कड़ तक चल.... सब ठीक हो जाएगा।”
साढ़े सात रुपय का सौदा था। सौगंधी इस हालत में जब कि उस के सर में शिद्दत से दर्द हो रहा था। कभी क़बूल न करती मगर उसे रूपों की सख़्त ज़रूरत थी। उस की साथ वाली खोली में एक मद्रासी औरत रहती थी जिस का ख़ाविंद मोटर के नीचे आकर मर गया था।
उस औरत को अपनी जवान लड़की समेत वतन जाना था। लेकिन उस के पास चूँकि किराया ही नहीं था इस लिए वो कसमपुर्सी की हालत में पड़ी थी। सौगंधी ने कल ही उस को ढारस दी थी और उस से कहा था। “बहन तू चिंता न कर। मेरा मर्द पूने से आने ही वाला है मैं उस से कुछ रुपय ले कर तेरे जाने का बंद-ओ-बस्त कर दूँगी।”
माधव पूना से आने वाला था। मगर रूपों का बंद-ओ-बस्त तो सौगंधी ही को करना था। चुनांचे वो उठी और जल्दी जल्दी कपड़े तबदील करने लगी। पाँच मिनटों में उस ने धोती उतार कर फूलों वाली साड़ी पहनी और गालों पर सुर्ख़ पोडर लगा कर तैय्यार होगई। घड़े के ठंडे पानी का एक और डोंगा पिया और राम लाल के साथ हो ली।
गली जो कि छोटे शहरों के बाज़ार से भी कुछ बड़ी थी। बिलकुल ख़ामोश थी गैस के वो लैम्प जो खंबों पर जड़े थे पहले की निसबत बहुत धुँदली रौशनी दे रहे थे। ज़ंग के बाइस उन के शीशों को गदला कर दिया गया था। इस अंधी रौशनी में गली के आख़िरी सिरे पर एक मोटर नज़र आ रही थी।
कमज़ोर रौशनी में इसे स्याह रंग की मोटर का साया सा नज़र आया और रात के पिछले पहर की भेदों भरी ख़ामोशी.... सौगंधी को ऐसा लगा कि उसके सर का दर्द फ़िज़ा पर भी छा गया है। एक कसैला पन उसे हुआ के अंदर भी महसूस होता था जैसे ब्रांडी और बेवड़ा की बॉस से वो बोझल हो रही है।
आगे बढ़ कर राम लाल ने मोटर के अंदर बैठते हुए आदमियों से कुछ कहा। इतने में जब सौगंधी मोटर के पास पहुंच गई तो राम लाल ने एक तरफ़ हट कर कहा। “लीजिए वो आ गई।”
“बड़ी अच्छी छोकरी है थोड़े ही दिन हुए हैं इसे धंदा शुरू किए।”
फिर सौगंधी से मुख़ातब हो कर कहा। “सौगंधी, इधर आओ सेठ जी बुलाते हैं।”
सौगंधी साड़ी का एक किनारा अपनी उंगली पर लपेटती हुई आगे बढ़ी और मोटर के दरवाज़े के पास खड़ी होगई। सेठ साहिब ने बैट्री इस के चेहरे के पास रौशन की। एक लम्हे के लिए इस रौशनी ने सौगंधी की ख़ुमारआलूद आँखों में चकाचोंद पैदा की। बटन दबाने की