''उस तरफ क्या ताकती है, साली तेरा खसम है उधर?'' अमरीक सिंह ने कृपाण की नोक से दिलशाद की पसलियों को गुदगुदाया, और बाँया गाल खींचकर उसका मुँह पश्चिम से पूरब की ओर घुमा दिया
दिलशाद मुस्करा दी। यह मुस्कराहट उसकी विशेषता बन गयी थी। बचपन में उसका सफलतम हथियार उसका रोना था। एक थोड़ी-सी ईं-ईं, राँ-राँ करके वह माँ के सीने में छुपे हुए दूध से लेकर, अलमारी में रखी हुई बर्फी तक हरेक चीज प्राप्त कर लेती थी।
अब जवानी ने उसकी मुस्कराहट में प्रभाव पैदा कर दिया था। इस नए जादू के बारे में उसे उस समय मालूम हुआ, जब उसकी एक मुस्कराहट पर निसार होकर रहीम ख़ाँ ने कसम खा ली थी कि, अगर चाँद-सूरज या तारे भी उसे उठा ले जाएँ तो वह धरती-आकाश के फैलाव फाँदकर उसे छीन लाएगा।
रहीम ख़ाँ झूठा था। मक्कार कहीं का। आसमानों की बात तो दूर की बात थी, वह तो उसे धरती ही धरती खो बैठा। दिलशाद नंजर बचा-बचाकर बैठी थी, और कल्पना में अपने माथे को उस स्थान पर झुका दिया करती थी, जिसके दामन में दया की एक बेचैन दुनिया छुपी बतायी जाती थी। पश्चिम की ओर काबा था। काबा अल्लाह का घर था।
उसकी कल्पना दिलशाद के दिल में श्रध्दा और आशा का एक चमकता दीया जला देती थी। लेकिन, अमरीक सिंह को पश्चिम से बड़ी चिढ़ थी। यूँ भी सिखों की इस बस्ती में कुछ रीतियाँ बड़ी टेढ़ी थीं। एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। बारह बजे से बारह बजे तक उनके शरीर कमान की तरह तने रहते थे। यूँ मालूम होता था, किसी ने बस्ती-भर के बच्चों, जवानों और बूढ़ों को बिजली के तार में पिरोकर, उनमें करंट दौड़ा दिया हो।
अमरीक सिंह का घर मस्जिद के पीछे था। उस मस्जिद के संबन्ध में सारे गाँव में यह बात फैल रही थी, कि शाम होते ही, उसके कुएँ से विचित्र डरावनी आवांजें आती हैं, जैसे दो-चार बकरों के गले पर एक साथ छुरी फेरी जा रही हो।
''साला-हरामी!''
अमरीक सिंह कहा करता था, ''मरने के बाद भी डकरा रहा है, भैंसे के समान। डाल तो कुछ टोकरे कुएँ में।''
''अरे भाई, छोड़ो भी।'' अमरीक सिंह का भाई त्रिलोक सिंह मजाक उड़ा रहा था, ''बाँग दे रहा है मुल्ला।''
लेकिन अमरीक सिंह की पत्नी डरती थी। रात के सन्नाटे में जब मस्जिद का कुआँ गला फाड़-फाड़कर चिंघाड़ता तो उसका सारा शरीर पसीने में नहा उठता। उसकी आँखों के सामने मुल्ला अलीबख्श का चित्र आ जाता, जो मस्जिद के हुजरे में रहा करता था। निर्बल शरीर, दो हाथ की सफेद दाढ़ी, आँखों पर मोटे शीशे का चश्मा, सिर पर पीली मलमल की बेढब-सी पगड़ी। हाथों में कँपकँपाहट, गर्दन में उभरी नसें। लेकिन जब वह मिम्बर पर खड़ा होकर, पाँचों समय की अजान देता था, तो मस्जिद के गुम्बज गूँज उठते।
अजान की आवाज से अमरीक सिंह की पत्नी को बड़ा कष्ट होता। उसने बड़े-बूढ़ों से सुन रखा था, कि अंजान में काले जादू के बोल होते हैं। जवान औरतें उसे सुनकर 'बाँगी' हो जाती हैं। अगर अविवाहित लड़की बाँगी हो जाए तो उसके बाँझ होने का डर रहता है, और अगर विवाहित पत्नी बाँगी हो जाएे तो उसके गर्भ गिरने लगते थे।
इसलिए अमरीक सिंह के घर में, कई पीढ़ियों से यह रीति थी, कि उधर अजान की आवाज हवा में लहरायी और इधर किसी ने कटोरे चम्मच से बजाना आरम्भ किया, किसी ने चिमटे को तवे से लड़ाया। कोई भागकर कोठरी में जा घुसी।
अमरीक सिंह की पत्नी के पेट में सवा लाख खालसे पल रहे थे। सिक्खों की गिनती में एक सिक्ख सवा लाख इनसानों के बराबर गिना जाता था। जब मस्जिद का कुआँ आधी रात गये अमरीक सिंह की पत्नी की कल्पना में भयानक गूँज बनकर डकारता तो उसके पेट में खालसों की फौंज भाग-दौड़ मचाने लगती।
कभी उसके कानों में कुएँ की चिंघाड़ें दिल दहला देने वाले रूप में गूँजतीं, कभी उसकी कल्पना में कुआँ जबड़ा फाड़े उसकी ओर लपकता। हर समय उसे यह धड़का लगा रहता कि, मुल्ला अलीबख्श कुएँ की दीवार के साथ रेंगता हुआ बाहर निकल रहा है, और आँख झपकते ही कुएँ की मुँडेर पर खड़ा होकर न जाने उसे कब बाँग कर रख देगा।
अमरीक की बहन अभी अविवाहित थी, लेकिन उसके दिल पर सवा लाख का कब्जा था। रात को जब वह अपनी चारपाई पर लेटकर उन मीठी-मीठी गुदगुदाइयों को याद करती जो मकई के खेत की ओट में सवा लाखों की भूखी उँगलियाँ उसके शरीर को छलनी बनाकर रख देती थीं, तो उसके सीने में इच्छाओं की एक भीड़ उमड़ आती, और वह विचारों ही विचारों में अपने शरीर को जवाँ-जवाँ शक्तिशाली खालसों के अस्तित्व से आबाद कर लेतीमगर, फिर, मस्जिद वाले कुएँ की दिल दहला देनेवाली आवाज उसकी कल्पना के महल को ढहा देती, और उसे तुरन्त महसूस होता कि कुएँ की गहराई से भी मुल्ला अलीबख्श काले जादू के बोल पुकार-पुकार कर उसके पेट से चलने वाली पीढ़ियों के नाके बन्द कर रहा है।
अमरीक को अपनी पत्नी और बहन दोनों पर गुस्सा आता था। कायर की बच्चियाँ! मुल्ला अलीबख्श तो कब से दूर दफन हो चुका है। जिस दिन वह कुएँ की मुँडेर पर बैठा वंजू कर रहा था, अमरीक ने ख़ुद उसे भाले की नोंक पर उछाला, त्रिलोक ने उस पर अपनी कृपाण को आंजमाया, ज्ञानी दरबार सिंह ने उसके झुझाते हुए खून में लथपथ शरीर को तड़ाक से कुएँ में फेंक डाला।
एक मुल्ला अलीबख्श ही क्या अब तो चमकोर का सारा गाँव साफ हो चुका था, कुछ लोग भाग गये थे, कुछ मर चुके थे। लेकिन यह औरतें थीं कि अब भी बाँगों के डर से अपनी बच्चेदानियों को छुपाये-छुपाये फिरती थीं। इसलिए जब अमरीक सिंह की पत्नी और बहन सोते-सोते चीखकर छातियाँ पीटने लगतीं तो उसका दिल क्रोध से बुरी तरह जलने लगता, और वह चिमटा उठाकर उन्हें पीटने लगता।
मारते-मारते उसके हाथ थक जाते। बाजुओं में थकान आ जाती और वह अपनी दाढ़ी से पसीने की बूँदों को पोंछता हुआ पागलों के समान लपककर दिलशाद के पास चला जाता। इसी प्रकार गाँव भर के लोग अपनी पत्नियों और बहनों से भागकर अपने शरीर के तूफान को कम करने के लिए दिलशाद के पास चले जाएा करते थे।
दिलशाद को मस्जिद में रखा गया था। यूँ तो उसके पास शरीर भी था और जान भी, लेकिन, उसकी सबसे लोकप्रिय चीज उसके अब्बा की वह माला (तस्बीह) थी। मुल्ला अलीबख्श के हाथ उस माला पर घूमते-घूमते बूढ़े हो गये थे। पीले पत्थर के गोल-गोल दानों पर उसकी उँगलियों के निशान फरयादी के समान चिपके हुए थे। यही कुछ मोती थे जिससे दिलशाद की लुटी हुई सीप अब तक आबाद थी। वह दिन-भर उस माला को गले में डाले कमींज के नीचे छुपाये रहती थी, लेकिन शाम पड़ते ही उसे किसी वीरान कोने में दबा देती थी।
आधी रात गये वह मस्जिद वाले कुएँ की मुँडेर से लिपटकर रोया करती थी। उसकी आँखें कुएँ में टकटकी लगाये थक जाती थीं, कि शायद उसके अब्बा की तैरती हुई पगड़ी की एक झलक, कभी उसकी आँखों को जीवित कर दे। उसके कान कुएँ की तरफ लगे थक जाते थे, कि शायद उसके अब्बा की अन्तिम सिसकी, एक बार फिर सुनाई दे, या वे भयानक चिंघाड़ें, जिन्होंने गाँव भर की औरतों को परेशान कर रखा था, उसके कानों तक भी पहुँचें।
लेकिन कुआँ ऍंधेरों से भरा था और कब्र के समान खामोश। जब कभी कोई आवारा चमगादड़ उसमें पर फड़फड़ाती तो, हर फड़फड़ाहट के साथ बदबू के तेज भभके वातावरण में बिखर जाते थे, क्योंकि अलीबख्श का गला मरने के बाद भी बन्द रखने के लिए, कुएँ को गन्दे कूड़े-करकट से अटाअट भर दिया था।
दिलशाद का अस्तित्व एक टूटे हुए तारे के समान था, जिसके टुकड़े आकाश के वीरानों में अकेले ही अकेले भटक रहे हों। आकाश का फैलाव मिट चुका था। सूरज और चाँद छुप गये थे। तारों के दीप बुझ चुके थे। वह अकेली रह गयी थी, बिना किसी सहारे के मस्जिद के दरवाजे के साथ लगी हुई, सहमी हुई, घबरायी हुई चकित। उसके दम से मस्जिद फिर आबाद हो गयी थी। लोग बोरियाँ बाँध-बाँधकर वहाँ आते थे।
चमकौर की मस्जिद, गुरुद्वारों से भी अधिक आबाद हो गयी थी। धीरे-धीरे विवाहित और अविवाहित माँओं को यह अहसास सताने लगा कि मुल्ला अलीबख्श के बाद उसकी बेटी उनकी कोख को लूटने पर तुली है। वह तो चिमटे खा-खाकर अपनी चारपाइयों पर सो जाती थीं, लेकिन उनके बहादुर पति रात-भर दिलशाद के साथ अपनी आनेवाली पीढ़ियों का सौदा किया करते थे। अमरीक सिंह, उसका बाप, उसका भाईएक के बाद दूसरा, दूसरे के साथ तीसरा...रात-भर वे नंजरें बचा-बचाकर मौका जाँच-जाँचकर मस्जिद के आस्ताने पर हाजिरी देते थे।
भुनी कलेजी और गुर्दे उड़ाते थे। तले हुए कबाबों का दौर चलता था और अपनी पीढ़ी के बीज जिन्हें हरा-भरा रखने के लिए उनकी पत्नियाँ सौ-सौ तरह के जतन करतीं, वह बिना झिझके मस्जिद की चारदीवारी में बिखेर आते और एक दिन बैठे-बिठाये दिलशाद सरसों के समान फूल उठी। जब यह बात फैली तो गाँव में आग लग गयी थी, पत्नियों ने चीख-चीखकर अपना सिर पीट लिया, क्वाँरी लड़कियों ने रो-रोकर अपनी आँखें सुजा लीं और मकई के खेतों में छुप-छुपकर अपने खालसों से मिलना छोड़ दिया।
कुएँ की चिंघाड़े तेज होने लगीं। घरों में फिट पर फिट आने लगे। चिमटे पर चिमटे चलने लगे। एक कोहराम मच गया। पहले तो सबकी यह राय हुई कि बच्चे के जन्म लेने से पहले ही दिलशाद को मारकर कुएँ में फेंक दिया जाए, लेकिन फिर अमरीक सिंह को एक लाभदायक तरकीब सूझी। आम के आम गुठलियों के दाम। एक दिन वह दिलशाद को, अपनी गाड़ी में बिठाकर, पास के थाने में ले गया और अपहरण की गयी मुसलमान औरतों को खोज निकालने के अपने प्रयत्न के सबूत में दिलशाद को पेश कर दिया।
थानेदार लभूराम ने अमरीक सिंह के इस कार्य की बड़ी प्रशंसा की। पुलिस की ओर से धन्यवाद का एक प्रमाण-पत्र उसे मिलेगा, और कमिश्नर साहब की ओर से भी। फिर थानेदार साहब ने ऐनक उठाकर दिलशाद को भरपूर नंजरों से देखा। अच्छी जवान थोड़ी पीली-सी। लेकिन गर्म-गर्म, और जब उनकी नंजर दिलशाद के पेट पर पड़ी तो उनकी उभरी हुई इच्छा को एक धक्का-सा लगा।
पहले उन्होंने सोचा कि अगर दस-बीस दिन की बात हो उसे भी थाने में रख लें, लेकिन जब हेड कांस्टेबल दुर्योधन सिंह ने जोड़-तोड़ के हिसाब लगाया कि, अभी 'ख़लास' होने में साढ़े तीन महीने शेष हैं, तो थानेदार को बड़ी निराशा हुई।
लेकिन फिर भी रात को खाना खाकर पतली-सी बनियान और जाँघिया डालकर चारपाई पर लेटे तो, उन्होंने पाँव दबाने के लिए दिलशाद को अपने पास बुलाया। जाते चोर की लँगोटी ही सही। थानेदार साहब के पाँव का दर्द बढ़ते-बढ़ते पिंडलियों तक आ गया, फिर घुटनों में, फिर रानों के अन्दर फिर कूल्हों के आसपास, फिर वह दिलशाद का हाथ पकड़कर अपनी दुखती हुई रगों को दबाते रहे। थानेदार जी के लिए इच्छा का दूसरा नाम संतोष था।
दिलशाद के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। पिछले कुछ महीनों में उसने जीवन के कुछ ऐसे खेल खेले, कि उसके शरीर की बोटी-बोटी जैसे मरहम का फाहा बनकर रह गयी थी। जो कोई जहाँ से चाहता लगा लेता। उसके शरीर का हर भाग भड़कते हुए, काँपते हुए, बेचैन इंसानों को कुछ क्षणों में ही सन्तोष का प्याला पिला देता था।
लेकिन उसकी अपनी रग-रग में कितने फोड़े थेकाश! रहीम खाँ होता तो देखता। दिलशाद को अपने आप पर गुस्सा आता था कि, उसने बेचारे रहीम खाँ को बेकार ही निराश किया था। एक दिन जब उसने उसे जबरदस्ती चूमने की कोशिश की थी, तो दिलशाद ने गुस्से से उसके सिर पर ऐसा दोहत्थड़ मारा था, कि उसकी चूड़ियाँ टूटकर रहीम ख़ाँ के माथे में गड़ गयी थीं, और फिर रात-भर अंगारों पर लोटती रही थी कि, न जाने खुदा और रहीम ख़ाँ को इस पाप की क्या सजा देंगे। बेचारा रहीम खाँ!
पन्द्रह-बीस दिन बाद जब थानेदार के घुटनों, कूल्हों और कमर का दर्द कुछ कम हुआ तो उन्होंने दिलशाद को छुट्टी दे दी और हेड कांस्टेबल के साथ अम्बाला कैम्प में भेज दिया। रास्ते में हेड कांस्टेबल के कूल्हों और घुटनों में कई बार दर्द उठा, लेकिन दिलशाद फुर्ती से उसके दर्द का उपचार करती रही। दस घंटे की यात्रा उन्होंने दस-बारह दिनों में कुशलता के साथ तय की।
अम्बाला कैम्प में बहुत-सी लड़कियाँ थीं। बहुत सुन्दर, जवान औरतें भी, लेकिन टूटे हुए तारों के समान, जिनकी चमक बुझ गयी थी। जिनकी आकाश गंगा लुट गयी हो। हर दिन फौंजी ट्रक आते थे, और नई-नई लड़कियों को, नई-नई औरतों को कैम्प में छोड़ जाते थे।
दिलशाद को अब एक प्रकार की छुट्टी थी। यूँ तो अच्छी सन्तान हमेशा माँ-बाप का सहारा होती है। लेकिन दिलशाद को अपनी होनेवाली सन्तान पर बड़ा भरोसा था। उसने पैदा होने से पहले की अपनी मजबूर माँ को अपने संरक्षण में ले रखा था।
अम्बाला कैम्प के पास रेलवे लाइन थी। सूरज के उजाले में रेल की पटरियाँ, चाँदी के तार बनकर चमकती थीं और बहुत दूर पश्चिम की ओर उनकी चाँदी जैसी लड़ियाँ, सपनों के सुहाने टापुओं में गुम हो जाती थीं, और कैम्प की औरतें उन पटरियों को छू-छूकर मस्त हो जाती थीं कि उनका दूसरा सिरा पूर्वी पंजाब में नहीं, बल्कि पश्चिमी पंजाब में है।
पश्चिमी पंजाब का ध्यान आते ही दिलशाद की याद में एक नन्हा-सा दीया टिमटिमा उठतापश्चिम में काबा हैकाबा अल्लाह का घर है। लेकिन कैम्प की दूसरी औरतें कहती थीं, पश्चिम में और भी बहुत कुछ है। वहाँ हमारे भाई हैं, हमारी बहनें हैं, हमारे माँ-बाप हैं, वहाँ आदर है, वहाँ आराम है .दिलशाद सोचती थी कि शायद वहाँ रहीम ख़ाँ भी हो।
यह ध्यान आते ही उसके शरीर का अंग-अंग मचल उठता। वह बेचैन हो जाती कि, पर लगाये, उड़ जाएे और अपने थके, दुखे हुए शरीर पर पवित्र धरती की मिट्टी मल ले। सप्ताह दो सप्ताह, महीने दो महीने, दिन बीतते गये। रातें बीतीं और पश्चिम की प्रसन्न कर देनेवाली कल्पना, दिलशाद के सीने में गुलबूटे खिलाती रही।
अम्बाला कैम्प की आबादी बढ़ती गयी। मेजर प्रीतम सिंह और उसके जवानों का दिल अच्छी तरह भर