हमारे दूर-दराज़ के प्रान्तों में से एक थी जागीर इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव की। जवानी में वह फ़ौज में काम करता था, सन् 1797 में निवृत्त होकर वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से फिर कभी कहीं नहीं गया। उसने एक ग़रीब कुलीना से ब्याह किया था, जो प्रसूति के समय ईश्वर को प्यारी हो गई, जब वह सीमा पर तैनात था।
घर-गृहस्थी के झँझटों ने उसके दुख को शीघ्र ही शान्त कर दिया। उसने अपने प्लान के मुताबिक घर बनाया, कपड़ों की फ़ैक्ट्री शुरू की, नफ़े को तिगुना किया और स्वयम् को समूचे प्रान्त का अति बुद्धिमान व्यक्ति समझने लगा, जिसका उसके यहाँ अपने परिवारजनों और कुत्तों समेत निरन्तर आने वाले पड़ोसियों ने विरोध नहीं किया।
कामकाज के दिनों में वह मखमल का कुर्ता पहनता, त्यौहारों के अवसर पर घर में बनाए कपड़े का कोट पहना करता; हिसाब-किताब ख़ुद ही लिखता और ‘सिनेट समाचार’ के अलावा कभी कुछ न पढ़ता। आमतौर पर वह लोकप्रिय ही था, हालाँकि उसे घमण्डी भी समझते थे।
उसके साथ उसके निकटतम पड़ोसी ग्रिगोरी इवानविच मूरम्स्की की बिल्कुल नहीं पटती थी। यह ख़ानदानी रूसी ज़मीन्दार था। अपनी जागीर का अधिकांश भाग मॉस्को में उड़ा देने के बाद एवम् अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद वह जागीर के शेष बचे भाग में आ गया और यहाँ भी फ़िज़ूलखर्ची करने लगा, मगर दूसरी तरह से।
उसने अंग्रेज़ी ढंग से एक बगीचा बनवाया, जिस पर शेष जमा पूँजी खर्च कर दी। उसके अस्तबल अंग्रेज़ी जॉकियों से लैस थे। उसकी बेटी की देखभाल के लिए अंग्रेज़ी मैड़म थी। अपने खेतों में वह फ़सल अंग्रेज़ी ढंग से ही उगाता :
मगर नकल से औरों की
उगे न रूसी अन्न…
और इसीलिए, खर्चों में कटौती करने के बावजूद ग्रिगोरी इवानविच के नफ़े में कोई वृद्धि नहीं हुई, गाँव में भी उसने औरों से ऋण लेना आरंभ कर दिया, मगर फिर भी उसे कोई बेवकूफ़ नहीं समझता, क्योंकि वह पहला ज़मीन्दार था, जिसने ‘संरक्षण–परिषद’ में अपनी जागीर रख दी थी। यह कदम उन दिनों काफ़ी जटिल और साहसिक माना जाता था। उसकी आलोचना करने वालों में बेरेस्तोव सर्वाधिक कठोर था।
किसी भी नए कदम का विरोध करना उसकी चारित्रिक विशेषता थी। अपने पड़ोसी की ‘अंग्रेज़ियत’ के प्रति वह उदासीन न रह सका और हर पल किसी-न-किसी बहाने से उसकी निंदा करने से वह न चूकता। मेहमान को अपनी मिल्कियत दिखाते समय, अपनी कार्यकुशलता की तारीफ़ के जवाब में वह व्यंग्यभरी मुस्कान से कहता : “हाँ, हमारे यहाँ ग्रिगोरी इवानविच जैसी बात तो नहीं है।
हम कहाँ अंग्रेज़ी तरीके अपनाने लगे। रूसी तरीके से ही खाते-पीते रहें तो बहुत है।” इसी तरह के अन्य मज़ाक, पड़ोसियों की मेहेरबानी से, नमक-मिर्च के साथ ग्रिगोरी इवानविच तक पहुँचते। अंग्रेज़ियत का दीवाना अपनी आलोचना को उतनी ही बेचैनी से सुनता, जैसा हमारे संवाददाता करते हैं। वह तैश में आ जाता और अपने आलोचक को भालू और गँवार कहता।
तो, ऐसे थे सम्बंध इन दोनों ज़मीन्दारों के बीच, जब बेरेस्तोब का बेटा पिता के पास गाँव में आया। उसने विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी और सेना में भर्ती होने का इरादा रखता था, मगर पिता इसके लिए राज़ी नहीं होते थे।
शासकीय नौकरी के लिए यह नौजवान स्वयम् को अयोग्य पाता था। दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े थे और फ़िलहाल युवा अलेक्सेइ ज़मीन्दारों का जीवन जी रहा था, और मौके के इंतज़ार में मूँछे भी बढ़ा रहा था।
Alexanfaer Pushkin |
अलेक्सेइ सचमुच ही बाँका जवान था, बड़े दुख की बात होती, यदि फ़ौजी वर्दी उसके बलिष्ठ शरीर पर न सजती और घोड़े पर तनकर बैठने के स्थान पर वह सरकारी कागज़ातों पर झुक-झुककर अपनी जवानी गँवा देता। जिस तरह शिकार करते समय, रास्ते की परवाह किए बगैर, वह अपना घोड़ा सबसे आगे दौड़ाता, वह देखकर पड़ोसी एकमत से कहते कि वह कभी भी सरकारी अफ़सर न बन पाएगा।
जवान लड़कियाँ उसकी ओर देखतीं, कुछ-कुछ तो देखती ही रह जातीं, मगर अलेक्सेइ उनकी ओर कम ही ध्यान देता, उसकी बेरुखी की वजह वे किसी प्रेम सम्बन्ध को समझतीं। वास्तव में उसके ख़तों में से किसी एक पर लिखा गया पता हाथोंहाथ घूम भी चुका था,
“अकुलीना पेत्रोव्ना कूरच्किना, मॉस्को, अलेक्सेइ मठ के सामने, सवेल्येव डॉक्टर का मकान, और आपसे विनती करता हूँ, कि कृपया यह पत्र ए। एन। आर। तक पहुँचा दें।”
मेरे वे पाठक, जो कभी गाँवों में नहीं रहे हैं, यह अन्दाज़ भी नहीं लगा सकते कि गाँवों की ये युवतियाँ क्या चीज़ होती हैं। खुली हवा में पली-बढ़ी अपने बगीचों के सेब के पेड़ों की छाँव में बैठी, वे जीवन और समाज का अनुभव किताबों से प्राप्त करती हैं। एकान्त, आज़ादी और किताबें उनमें अल्पायु में ही वे भाव और इच्छाएँ जागृत कर देते हैं, जिनसे हमारी बेख़बर सुन्दरियाँ अनभिज्ञ रहती हैं।
ग्रामीण कुलीना के लिए घण्टी की आवाज़ एक रोमांचक घटना होती है, निकटवर्ती शहर की यात्रा जीवन का एक महत्वपूर्ण पर्व बन जाती है, और किसी मेहमान का आगमन उनके दिल पर लम्बा या कभी-कभी शाश्वत प्रभाव छोड़ जाता है।
उनकी कुछ अजीब हरकतों पर कोई भी दिल खोलकर हँस सकता है, मगर इस सतही आलोचक के मज़ाक उन्हें प्रदत्त गुणों को नष्ट नहीं कर सकते, जिनमें कुछ प्रमुख हैं :
चारित्रिक विशेषता, आत्मनिर्भरता, जिसके बगैर, जॉन पॉल के अनुसार, किसी व्यक्ति की महानता का अस्तित्व ही नहीं
राजधानियों में, बेशक, महिलाएँ बेहतर शिक्षा पाती हैं, मगर उच्च-भ्रू समाज के तौर-तरीके शीघ्र ही उनके चरित्र को कुन्द कर देते हैं और आत्माओं को उनके सिरों की टोपियों जैसा एक-सार बना देते हैं।यह हम उनकी आलोचना करते हुए नहीं कह रहे हैं। मगर हमारी राय, जैसा कि एक प्राचीन विचारक ने लिखा है, अपनी जगह सही है।
यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है, कि अलेक्सेइ ने हमारी सुन्दरियों पर कैसा प्रभाव डाला होगा। वह पहला नौजवान था जो उन्हें दुखी और निराश प्रतीत हुआ, पहला ऐसा व्यक्ति था जो उनसे खोई हुई ख़ुशियों और अपनी मुरझाती हुई जवानी की बातें करता : ऊपर से खोपड़ी की तस्वीर वाली काली अँगूठी पहने रहता। यह सब उस प्रदेश के लिए एकदम नया था। सुन्दरियाँ उसके पीछे पागल हो चलीं।
मगर उसके ख़यालों में सर्वाधिक खोई रहने वाली थी मेरे ‘अंग्रेज़’ की बेटी लीज़ा (या बेत्सी, जैसा कि ग्रिगोरी इवानविच उसे बुलाते), दोनों के पिता कभी एक-दूसरे के यहाँ जाते न थे, उसने अलेक्सेइ को अब तक देखा न था, जबकि सारी नौजवान पड़ोसिनें सिर्फ उसी के बारे में बतियातीं।
उसकी उम्र थी सत्रह साल। काली आँखें उसके साँवले, बेहद प्यारे चेहरे को सजीवता प्रदान करतीं। वह इकलौती और इसी कारण लाड़-प्यार में पली सन्तान थी।उसकी चंचलता और पल-पल की शरारतें पिता को आनन्दित करतीं।
चालीस वर्षीय, अनुशासनप्रिय, अविवाहित मिस जैक्सन को हैरान करतीं, जो काफ़ी पाउडर लगाया करती, भौंहों पर सुरमा लगाती, साल में दो बार ‘पामेला’ पढ़ती, इस सबके बदले में दो हज़ार रूबल्स प्राप्त करती और ‘इस जंगली रूस’ में उकताहट से मरी जाती।
लीज़ा की सखी-सेविका थी नास्त्या। वह कुछ बड़ी थी, मगर थी उतनी ही चंचल जितनी उसकी मालकिन। लीज़ा उसे बेहद प्यार करती, उसे अपने सारे भेद बताती, उसके साथ शरारती चालें सोचती। संक्षेप में प्रिलूचिनो गाँव में नास्त्या का महत्त्व किसी फ्रांसीसी शोकांतिका की विश्वासपात्र सखी से कहीं अधिक था।
“आज मुझे बाहर जाने की इजाज़त दीजिए”, नास्त्या ने एक दिन मालकिन को पोषाक पहनाते हुए कहा।
“ठीक है, मगर कहाँ?”
“तुगीलोवो में, बेरेस्तोव के यहाँ। उनके रसोइये की बीबी का जन्मदिन है और वह कल हमें भोजन का निमन्त्रण देने आई थी।”
“क्या ख़ूब!” लीज़ा बोली, “मालिकों का झगड़ा है, और नौकर एक-दूसरे की मेहमाननवाज़ी करते हैं!”
“हमें मालिकों से क्या लेना-देना!” नास्त्या ने विरोध किया, “फिर मैं तो आपकी नौकरानी हूँ, न कि आपके पिता की। आपकी तो अभी तक युवा बेरेस्तोव से नोक-झोंक नहीं हुई है; बूढ़ों को लड़ने दो, अगर उन्हें इसी में मज़ा आता है तो।”
“नास्त्या, अलेक्सेइ बेरेस्तोव को देखने की कोशिश करना और फिर मुझे अच्छी तरह बताना कि वह दिखने में कैसा है और आदमी कैसा है।”
नास्त्या ने वादा किया, और लीज़ा पूरे दिन बड़ी बेचैनी से उसके लौटने का इंतज़ार करती रही। शाम को नास्त्या वापस लौटी।
“तो, लिज़ावेता ग्रिगोरियेव्ना”, उसने कमरे में घुसते हुए कहा, “युवा बेरेस्तोव को देख लिया, बड़ी देर तक देखा, सारे दिन हम एक साथ ही रहे।”
“ऐसा कैसे? सिलसिले से बताओ।”
“लीजिए, हम यहाँ से गए : मैं, अनीस्या ईगरव्ना, नेनिला, दून्का…”
“ठीक है, जानती हूँ। फिर?”
“कृपया बोलने दें, सब कुछ सिलसिलेवार ही बताऊँगी। तो हम ठीक भोजन के वकत ही पहुँचे। कमरा लोगों से भरा था। कोल्चिन के, ज़ख़ारव के नौकर थे, बेटियों के साथ हरकारिन थी, ख्लूपिन के…”
“ओह! और बेरेस्तोव?”
“रुकिए भी! तो हम मेज़ पर बैठे, सबसे पहले हरकारिन, मैं उसकी बगल में…बेटियाँ कुड़कुड़ाती रहीं, मगर मैं तो उन पर थूकती भी नहीं…”
“ओह, नास्त्या, तुम हमेशा अपनी इन लम्बी-चौड़ी बातों से कितना तंग करती हो!”
“और, आप कितनी बेसब्र हैं। तो हम खाना ख़त्म करके उठे…हम तीन घण्टे बैठे रहे थे मेज़ पर, खाना लाजवाब था : केक – नीली, लाल धारियोंवाला…वहाँ से निकलकर हम बगीचे में आँखमिचौली खेलने चले गए, और नौजवान मालिक वहीं आया।”
“क्या कहती है? क्या यह सच है कि वह बहुत सुन्दर है?”
“आश्चर्यजनक रूप से अच्छा है, ख़ूबसूरत भी कह सकते हैं। सुघड़, सुडौल, लम्बा, गालों पर लाली…”
“सच? और मैं सोच रही थी कि उसका चेहरा निस्तेज होगा। तो? कैसा लगा वह तुझे? दुखी, सोच में डूबा हुआ?”
“क्या कहती हैं! इतना दीवाना, इतना उत्तेजना से भरपूर व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। वह तो हम लोगों के साथ आँखमिचौली खेलने लगा।”
“तुम लोगों के साथ आँखमिचौली? असंभव!”
“बिल्कुल संभव है! और क्या सोचा उसने? पकड़ लेता और फ़ौरन चूम लेता!”
“तेरी मर्ज़ी नास्त्या, चाहे जितना झूठ बोल।”
“मर्ज़ी आपकी, मगर मैं झूठ नहीं बोल रही। मैं तो बड़ी मुश्किल से स्वयम् को छुड़ा पाई, पूरा दिन उसने हम लोगों के साथ ही बिताया।”
“तो फिर, लोग तो कहते हैं कि वह किसी और से प्यार करता है और औरों की तरफ़ देखता तक नहीं है?”
“मालूम नहीं, मेरी तरफ़ तो उसने इतनी बार देखा, और हरकारे की बेटी तान्या की ओर भी, हाँ, कोल्बिन्स्की की पाशा को भी देखता रहा, मगर झूठ कहूँ, तो पाप लगे, किसी का अपमान उसने नहीं किया, इतना लाड़ लड़ाता रहा।”
“बड़े अचरज की बात है। घर में उसके बारे में क्या सुना?”
“मालिक, कहते हैं, कि बड़ा सुन्दर है, इतना भला, इतना हँसमुख है। एक ही बात अच्छी नहीं है : लड़कियों के पीछे भागना उसे बहुत अच्छा लगता है। मगर, मेरे ख़याल से, यह कोई बुरी बात नहीं है। समय के साथ-साथ ठीक हो जाएगा।”
“आह, कितना दिल चाह रहा है उसे देखने को!” लीज़ा ने गहरी साँस लेकर कहा।
यह कौन-सी बड़ी बात है? तुगीलोवो यहाँ से दूर तो नहीं है, सिर्फ तीन मील, उस तरफ़ पैदल घूमने निकल जाइए या घोड़े पर जाइए, शायद आपकी उससे मुलाकात हो जाए। वह तो हर रोज़ सुबह-सुबह बन्दूक लेकर शिकार पर निकलता है।”
“नहीं, यह ठीक नहीं है। वह सोच सकता है, कि मैं उसके पीछे पड़ी हूँ। फिर हमारे पिता भी एक-दूसरे से बोलते नहीं हैं, तो, मैं उससे कभी मिल ही नहीं पाऊँगी… आह, नास्त्या! देख, जानती हो, मैं क्या करूँगी? मैं देहातिन का भेस बनाऊँगी!”
“सचमुच ऐसा ही कीजिए, मोटा कुर्ता पहनिए, सराफ़ान डालिए और बेधड़क चली जाइए तुगीलोवो, दावे के साथ कहती हूँ कि बेरेस्तोव आपको देखता ही रह जाएगा।”
“हाँ, मुझे स्थानीय बोली भी अच्छी तरह आती है। आह, नास्त्या, प्यारी नास्त्या! कैसा बढ़िया ख़याल है!” और लीज़ा अपने इस ख़ुशनुमा प्रस्ताव को शीघ्र ही मूर्तरूप देने का निश्चय करके सो गई।
दूसरे ही दिन वह अपनी योजना को पूरा करने में जुट गई। उसने बाज़ार से नीले डिज़ाइन वाला मोटा कपड़ा और ताँबे के बटन मँगवाए, नास्त्या की मदद से अपने लिए ब्लाउज़ और सराफ़ान काटकर सारी नौकरानियों को उन्हें सीने के लिए बिठा दिया, और शाम तक सारी तैयारी पूरी हो गई।
लीज़ा इन नए कपड़ों को पहनकर आईने के सामने खड़ी हो गई और उसने मान लिया कि इतनी सुन्दर तो वह स्वयम् को पहले कभी नहीं लगी थी। उसने अपनी भूमिका को दोहराया, चलते-चलते नीचे झुकती और मिट्टी की बिल्लियों की भाँति सिर को कई बार झटका देती, किसानों की बोली में बातें करती, बाँह से मुँह ढाँककर मुस्कुराती, और नास्त्या की दाद पाती।
बस एक मुश्किल थी :
उसने आँगन में नंगे पैर चलने की कोशिश की, मगर घास-फूस उसके कोमल पैरों में चुभती, और रेत एवम् कंकर उससे बर्दाश्त न होते। यहाँ भी नास्या ने उसकी सहायता की। उसने लीज़ा के पैर की नाप ली, त्रोफ़ीम गड़रिये के पास गई और उसे उस नाप की चप्पल बनाने को कहा।
दूसरे दिन उजाला होने से पहले ही लीज़ा उठ गई। पूरा घर अभी सो रहा था। दरवाज़े के बाहर नास्त्या गड़रिये का इंतज़ार कर रही थी। बिगुल की आवाज़ सुनाई दी और भेड़ों का झुण्ड ज़मीन्दार के घर के निकट से गुज़रा।
नास्त्या के निकट से गुज़रते हुए त्रोफ़ीम ने उसे नन्ही, सुन्दर चप्पलों की जोड़ी थमा दी और उससे इनाम में पचास कोपेक पाए। लीज़ा ने चुपचाप देहातिन का भेस बनाया, फुसफुसाकर नास्त्या को मिस जैक्सन के बारे में कुछ सूचनाएँ दीं और पिछवाड़े के उद्यान से होकर खेतों की ओर भागी।
पूरब में लाली छा रही थी और बादलों के सुनहरे झुण्ड मानो सूरज का इंतज़ार कर रहे थे, जैसे दरबारी सम्राट की प्रतीक्षा कर हों। स्वच्छा आकाश, सुबह की ताज़गी, दूब, धीमी हवा और पंछियों के गान ने लीज़ा के हृदय को बच्चों जैसी ख़ुशी से भर दिया, किसी परिचित से आकस्मिक मुठभेड़ होने के भय से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह चल नहीं रही हो, बल्कि उड़ रही हो।
पिता की जागीर की सीमा पर बने वन के निकट आने पर लीज़ा धीरे-धीरे चलने लगी। यहीं पर उसे अलेक्सेइ का इंतज़ार करना था। उसका दिल न जाने क्यों ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मगर हमारी जवान शरारती लड़कियों के दिल में बैठा भय ही उनका सबसे बड़ा आकर्षण होता है।
लीज़ा वन के झुरमुट में घुसी। उसकी दबी, प्रतिध्वनित होती सरसराहट ने नवयुवती का स्वागत किया। उसकी प्रसन्नता लुप्त हो गई। धीरे-धीरे वह मीठे सपनों की दुनिया में खो गई। वह सोच रही थी…मगर क्या एक सत्रह बरस की, बसन्त की ख़ुशनुमा सुबह छः बजे वन में घूम रही, अकेली युवती के ख़यालों को जानना सम्भव है?
तो, वह ख़यालों में डूबी, दोतरफ़ा ऊँचे-ऊँचे पेड़ों वाले छायादार रास्ते पर चली जा रही थी कि अचानक एक सुन्दर शिकारी कुत्ता उस पर भौंका। लीज़ा डर गई और चीख़ने लगी। तभी एक आवाज़ सुनाई दी, “चुप, स्बोगर, यहाँ आओ…” और झाड़ियों के पीछे से एक नौजवान शिकारी निकला। “कोई बात नहीं, सुन्दरी”, उसने लीज़ा से कहा, “मेरा कुत्ता काटता नहीं है।”
लीज़ा अब तक भय पर काबू पाकर स्थिति का फ़ायदा उठाने में सफ़ल हो चुकी थी।”ओह, नहीं, मालिक!”
कुछ भयभीत, कुछ लज्जित होने का नाटक करते हुए वह बोली,”डर लागत है : कैसा तो होव वह दुष्ट, फिर झपटे है।”
अलेक्सेइ (पाठक उसे पहचान चुके हैं) इस बीच एकटक उस जवान देहातिन को घूरता रहा। “अगर डर लगता है तो तुम्हें छोड़ आऊँगा”,
वह उससे बोला, “क्या तुम मुझे अपने साथ चलने दोगी?”
“तुम्हें मना कउन करत है?” लीज़ा ने जवाब दिया, “चाह होवे तो राह है और रास्ता तो सबका होवे।”
“कहाँ से आई हो?”
“प्रिलूचिनो से, वसीली लुहार की लड़की, कुकुरमुत्ते चुनने जात हूँ।” (लीज़ा ने हाथ में डोलची पकड़ रखी थी) और तुम, मालिक? तुगीलोवो के तो नहीं?”
“ठीक कहा”, अलेक्सेइ बोला, “मैं छोटे मालिक का नौकर हूँ।” अलेक्सेइ अपना दर्जा उसके बराबर बताना चाहता था। मगर लीज़ा ने उसकी ओर देखा और हँस पड़ी। “झूठ बोलो हो,” वह बोली, “बुद्धू न समझो। देखती हूँ, तुम ख़ुद ही मालिक हो।”
“तुम ऐसा क्यों सोच रही हो?”
“सब देखत हूँ।”
“फिर भी?”
“मालिक और नौकर में फ़रक कैसे नाहीं पता चले? कपड़े तो हम जैसे नाही पहने। बोली हम जैसी नाही, कुत्ते पे चिल्लाए भी तो हम जैसे नाहीं।”
लीज़ा अलेक्सेइ को अधिकाधिक अच्छी लगने लगी थी। भले देहातियों से दिखावा करने की आदत न होने से, अलेक्सेइ उसे बाँहों में भरने ही वाला था, कि लीज़ा छिटक कर दूर हो गई और चेहरे पर इतने कठोर एवम् ठण्डे भाव ले आई थी…हालाँकि अलेक्सेइ को यह सब हँसा तो गया, मगर साथ ही वह और आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका।
“अगर आप चाहते हैं कि हम आगे भी दोस्त बने रहें,” उसने भाव खाते हुए कहा, “तो अपने आप को बहकने न दें।”
“इतनी ज्ञान की बातें तुम्हें किसने सिखाईं?” अलेक्सेइ ने ठहाका मारते हुए पूछ लिया, कहीं मेरी परिचिता, तुम्हारी मालकिन की सखी नास्तेन्का ने तो नहीं? देखो तो, कैसे-कैसे तरीकों से ज्ञान का प्रकाश फ़ैलता है।”
लीज़ा को महसूस हुआ कि वह अपनी भूमिका भूल गई है और उसने फ़ौरन स्थिति सँभाल ली। “क्या सोचत हो? का हम मालिक के घर कभी न जाऊँ हूँ। चलो; सब देखत-सुनत हूँ वहाँ पे। फिर भी,”
वह बोलती रही, “तुमसे बतियाने से कुकुरमुत्ते न बटोरे जावें।
जाओ तुम मालिक, इस तरफ़ –
मैं जाऊँ अपनी राह। माफ़ी माँगू हूँ…” लीज़ा ने दूर जाना चाहा, अलेक्सेइ ने फ़ौरन उसका हाथ पकड़ लिया।
“तुम्हारा नाम क्या है, मेरी जान?”
“अकुलीना।”
लीज़ा ने
अपनी ऊँगलियाँ
अलेक्सेइ के
हाथों से
छुड़ाने की
कोशिश करते
हुए कहा,
“छोड़ भी
देवो, मालिक,
घर जाने
का भी
बख़त होई
गवा।”
“अकुलीना,
मेरी दोस्त,
तुम्हारे बापू
वसीली लुहार
के यहाँ
मैं ज़रूर
आऊँगा।”
“का कहत हो?” लीज़ा ने ज़ोरदार प्रतिवाद किया, “ख़ुदा के लिए, आना मत। अगर घर में पता चले, कि हम मालिक के संग जंगल में अकेले बतियात रहिन तो बुरा होवे, बापू म्हारो, वसीली लुहार, मरते दम तक मोहे मारेगा।”
“मगर मैं तो तुमसे दुबारा ज़रूर मिलना चाहता हूँ।”
“फिर लौट के आऊँ हूँ मैं कुकुरमुत्ते चुनने।”
“मगर कब?”
“चाहे कल ही।”
“प्यारी अकुलीना, तुम्हें चूमना चाहता हूँ, मगर हिम्मत नहीं होती। तो फिर कल, इसी समय, ठीक है ना?”
“हाँ-हाँ।”
“और तुम मुझे धोखा तो नहीं दोगी?”
“नहीं दूँगी धोखा।”
“कसम खाओ।”
”पावन शुक्रवार की कसम, आऊँगी।”
नौजवान व्यक्ति जुदा हुए। लीज़ा वन से निकली, खेतों से होती हुई, उद्यान में छिपती-छिपाती फैक्ट्री की ओर भागी, जहाँ नास्त्या उसका इंतज़ार कर रही थी। वहाँ उसने कपड़े बदले, अपनी शान्त, विश्वस्त सखी के प्रश्नों के उड़े-उड़े से जवाब दिए और मेहमानखाने में दाखिल हुई। मेज़ सज चुकी थी