Part (1)
चर्चा थी कि सागर तटबंध पर एक नया चेहरा नजर आ रहा है - कोई कुत्ते वाली महिला है। द्मीत्री द्मीत्रिच गूरोव के लिए याल्टा में हर चीज़ जानी-पहचानी सी हो गयी थी, उसे यहाँ आये दो हफ्ते हो चले थे, और अब वह भी नये आने वालों में दिलचस्पी लेने लगा था।
वेर्ने के मण्डप में बैठे हुए उसने तटबंध पर मंझले कद की, हल्के सुनहरे बालों वाली एक महिला को घूमते देखा। वह बेरेट पहने थी, और उसके पीछे-पीछे पोमेरानियन नस्ल का छोटा-सा सफ़ेद कुत्ता दौड़ रहा था।
और फिर वह दिन में कई बार पार्क में और बगीचे में उसे दिखायी दी। वह अकेली ही घूमती होती - वही बेरेट पहने और उसी सफ़ेद कुत्ते के साथ। कोई नहीं जानता था कि वह कौन है, सो सब उसे बस कुत्ते वाली महिला ही कहते थे।
उसे देखकर गूरोव सोचता, “अगर इसका पति या कोई परिचित इसके साथ नहीं है, तो इससे जान-पहचान कर लेना बुरा नहीं होगा।”
वह अभी चालीस का भी नहीं हुआ था, पर उसके एक बारह साल की बेटी थी और दो बेटे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे। उसकी शादी जल्दी ही कर दी गयी थी, जब वह विश्वविद्यालय में द्वितीय वर्ष का छात्र था, और अब उसकी पत्नी उससे ड्योढ़ी उम्र की लगती थी। वह रोबीली स्त्री थी - ऊँचा-कद, सीधी देह, भौंहें काली-सी; और वह स्वयं को चिंतनशील व्यक्ति कहती थी।
वह बहुत पढ़ती थी, लिपि में रूढ़ियों का पालन नहीं करती थी, पर पति को द्मीत्री नहीं, बल्कि प्राचीन उच्चारण के नियमों के अनुसार दिमीत्री कहती थी। गूरोव मन ही मन उसे अदूरदर्शी, संकीर्णमना, अनाकर्षक मानता था, उससे डरता था और इसलिए घर से बाहर रहना ही उसे ज़्यादा अच्छा लगता था।
बहुत पहले से ही वह उससे बेवफाई करने लगा था और अक्सर करता था। शायद यही कारण था कि स्त्रियों के बारे में उसकी राय प्रायः सदा ही ख़राब होती थी, और जब उसके सामने उनकी चर्चा चलती तो वह उन्हें “घटिया नस्ल!” ही कहता था।
उसे लगता था कि उसे इतने कटु अनुभव हो चुके हैं कि वह अब स्त्रियों को जो चाहे कह सकता है। लेकिन इस “घटिया नस्ल” के बिना दो दिन भी जीना उसके लिए मुश्किल था। पुरुषों का साथ उसे नीरस लगता था, वह अजीब-सा महसूस करता था, उनसे वह ज़्यादा बातें नहीं करता था और उसका व्यवहार बड़ा औपचारिक-सा होता था। पर स्त्रियों के बीच वह किसी तरह का संकोच नहीं अनुभव करता था, सदा बातचीत का विषय ढूँढ़ लेता था और उसका व्यवहार सहज-स्वाभाविक होता था; उनके साथ चुप रहना भी उसे आसान लगता था।
उसके रूप-रंग में, उसके स्वभाव में, सारे चरित्र में ही कोई अनबूझ सम्मोहन था, जिससे स्त्रियाँ सहज ही उसकी ओर आकर्षित हो जाती थीं। उसे इस बात का आभास था, और स्वयं उसे भी कोई शक्ति उनकी ओर खींचे लिये जाती थी।
बारम्बार के सचमुच ही कटु अनुभवों से वह कब का यह समझ चुका था कि किसी भी स्त्री के साथ घनिष्ठता, जो आरम्भ में जीवन में एक सुखद विविधता लाती है और एक प्यारा-सा, हल्का-फुल्का रोमांस ही लगती है, भद्र लोगों के लिए, विशेषतः मास्कोवासियों के लिए, जो स्वभाव से ही मंथर और अनिश्चयी होते हैं, बड़ी मुश्किल समस्या बन जाती है, और अन्ततः स्थिति असह्य हो जाती है।
लेकिन हर बार किसी रोचक स्त्री से भेंट होने पर पुराने अनुभव की यह कटुता जाने कहाँ खो जाती थी, और जीवन का आनन्द लेने को जी करता था, सब कुछ इतना सरल और मजेदार लगता था।
और एक दिन जब वह पार्क में खाना खा रहा था, बेरेट पहने वह महिला धीरे-धीरे आकर बगल वाली मेज के पास बैठ गयी। उसके चेहरे के हाव-भाव, उसकी चाल, उसकी पोशाक और केश विन्यास से गूरोव समझ गया कि वह सम्भ्रान्त कुल की है, विवाहिता है, याल्टा में पहली बार आयी है, कि वह अकेली है और यहाँ उसका मन नहीं लग रहा है...याल्टा जैसी जगहों में बिगड़े चाल-चलन के जो किस्से सुनने में आते हैं, उनमें बहुत कुछ झूठ होता है।
गूरोव उन्हें ओछी बातें समझता था और जानता था कि ऐसे किस्से ज़्यादातर वही लोग गढ़ते हैं, जो ख़ुशी से पाप करते, बशर्ते उन्हें ऐसा करना आता। पर अब, जब वह महिला उससे तीन क़दम दूर बगल की मेज के पास आ बैठी, तो उसे सहज ही पायी जा सकने वाली विजय और पहाड़ों की सैरों के ये किस्से याद हो आये और उसके मन में एक प्रलोभन जागा, जल्दी से एक क्षणिक सम्बन्ध बना लेने का, एक अनजान स्त्री के साथ, जिसका वह नाम तक नहीं जानता, रोमांस का विचार उसके मनोमस्तिष्क पर हावी हो गया।
उसने कुत्ते को पुचकार कर बुलाया और जब वह उसके पास आ गया, तो उँगली हिलायी। कुत्ता गुर्राने लगा। गूरोव ने फिर से उँगली हिलायी।महिला ने उसकी ओर देखा और तुरन्त ही आँखें नीची कर लीं।
“काटता नहीं है,” यह कहते हुए उसका चेहरा गुलाबी हो उठा।
“इसे हड्डी दे सकता हूँ?” और जब महिला ने “हाँ” में सिर हिलाया, तो गूरोव ने नम्रता से पूछा, “आपको याल्टा आये काफ़ी दिन हो गये?”
“पाँच दिन।”
“मैं तो दूसरा हफ्ता काट रहा हूँ”
कुछ देर तक वे चुप रहे।
“समय तो जल्दी ही बीत जाता है, पर यह जगह बड़ी उकताऊ है!” महिला ने गूरोव की ओर देखे बिना ही कहा।
“यह कहना भी एक फैशन की ही बात है कि यह जगह बड़ी उकताऊ है। किसी कस्बे-वस्बे में सारी उम्र रहते हुए तो लोग ऊबते नहीं, पर यहाँ आते ही शिकायत करने लगते हैं, ‘हाय, कितनी ऊब है!, हाय, कितनी धूल है!’ कोई सुने तो सोचे जनाब सीधे ग्रेनादा से पधारे हैं!”
वह हँस दी।
फिर दोनों अपरिचितों की ही भाँति चुपचाप खाना खाते रहे, पर खाने के बाद वे साथ-साथ चल पड़े, और उनके बीच हल्की-फुल्की, हास्य-विनोद भरी बातचीत होने लगी। यह दो आजाद, सन्तुष्ट लोगों की बातचीत थी, जिनके लिए सब बराबर होता है - कहीं भी जाया जाये, कुछ भी किया जाये। वे घूम रहे थे और ये बातें कर रहे थे कि समुद्र पर कैसा विचित्र प्रकाश पड़ रहा है;
जल का रंग कोमल नीला-फिरोज़ी था और चन्द्र किरणें उस पर सुनहरी चादर बिछा रही थीं। ये बातें कर रहे थे कि दिन भर की गर्मी के बाद बड़ी उमस हो रही है। गूरोव ने बताया कि वह मास्को का रहने वाला है, कि उसने भाषा और साहित्य की शिक्षा पायी थी, पर काम बैंक में करता है;
कभी उसने ओपेरा में गाने की तैयारी भी की थी, पर फिर यह विचार छोड़ दिया, कि मास्को में उसके दो मकान हैं...और महिला ने गूरोव को बताया कि वह पीटर्सबर्ग में बड़ी हुई, पर विवाह उसका स- नगर में हुआ, जहाँ वह दो साल से रह रही है, कि वह और महीना भर याल्टा में रहेगी और फिर शायद उसका पति उसे लेने आयेगा।
वह भी कुछ दिन आराम करना चाहता है। वह किसी भी तरह यह नहीं बता पा रही थी कि उसका पति कहाँ काम करता है - प्रदेश के सरकारी कार्यालय में या जिला कार्यालय में, और उसे स्वयं इस बात पर हँसी आ रही थी। गूरोव ने यह भी जाना कि उसका नाम आन्ना सेर्गेयेव्ना है।
होटल के अपने कमरे में लौटकर वह उसके बारे में सोचता रहा, कि कल शायद फिर उसकी भेंट होगी; ऐसा होना ही चाहिए। जब वह सोने के लिए लेटा, तो उसे ख़याल आया कि कुछ साल पहले तक वह महिला विद्यालय में ही पढ़ती थी, जैसे अब उसकी बेटी पढ़ रही है; उसे याद आया कि आन्ना सेर्गेयेव्ना की हँसी में, अपरिचित व्यक्ति के साथ बातें करने के उसके अन्दाज में अभी कितना अल्हड़ता भरा संकोच है।
निश्चय ही वह जीवन में पहली बार ऐसे वातावरण में अकेली थी, जहाँ दूसरों की नजरें उस पर थीं, और मन में एक ही विचार छिपाकर पुरुष उससे बातें करते थे, और वह इस विचार को भांपे बिना नहीं रह सकती थी। गूरोव को उसकी सुकोमल गर्दन, उसकी हल्की सुरमई आँखें याद आईं।
“उसे देख कर मन में एक विचित्र दया-सी उठती है,” यह सोचते हुए वह सो गया।
Part
(2)
उनकी जान-पहचान हुए एक हफ्ता बीत गया। छुट्टी का दिन था। कमरों में उमस हो रही थी, बाहर धूल के सतून उठ रहे थे, टोपियाँ उड़-उड़ जाती थीं। दिन भर प्यास सताती रही। गूरोव बार-बार मण्डप में जाता और कभी आन्ना सेर्गेयेव्ना को सोडा वाटर ले देता, कभी आइसक्रीम खाने को कहता। समझ में नहीं आता था कि कहाँ जाया जाये।
शाम को जब हवा ज़रा थम गयी, तो वे घाट पर गये स्टीमर देखने। घाट पर घूमने वालों की भीड़ थी; किसी के स्वागत के लिए लोग जमा थे, उनके हाथों में गुलदस्ते थे। और यहाँ याल्टा की सजी-धजी भीड़ की दो विशिष्टतायें साफ़ देखी जा सकती थीं ।अधेड़ महिलायें युवतियों जैसे वस्त्र पहने थीं और बहुत से जनरल थे।
समुद्र में ऊँची लहरें उठती रही थीं, इसलिए स्टीमर देर से आया, जब सूरज डूब चुका था, और घाट पर लगने से पहले देर तक इधर-उधर मुड़ता रहा। आन्ना सेर्गेयेव्ना आँखों के आगे लार्नेट पकड़े स्टीमर और सवारियों को देखती रही, मानो किसी परिचित को ढूँढ़ रही हो, और जब वह गूरोव से कुछ कहती, तो उसकी आँखें चमकती लगतीं। वह बहुत बोल रही थी, और उसके प्रश्न असंबद्ध थे, वह कुछ पूछती और उसी क्षण यह भूल भी जाती कि क्या पूछा है; फिर भीड़ में उससे लार्नेट खो गया।
सजी-धजी भीड़ छंट रही थी और अब लोगों के चेहरे दिखायी नहीं दे रहे थे, हवा बिल्कुल थम गयी थी। गूरोव और आन्ना सेर्गेयेव्ना यह प्रतीक्षा करते से खड़े थे कि स्टीमर से और तो कोई नहीं उतर रहा। आन्ना सेर्गेयेव्ना चुप थी, गूरोव की ओर नहीं देख रही थी, बस फूल सूंघे जा रही थी। गूरोव बोला -
“शाम को मौसम अच्छा हो गया है। अब कहाँ चलें? गाड़ी ले कर कहीं चला जाये?”
आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कोई जवाब नहीं दिया।
तब गूरोव ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं, सहसा उसे बांहों में भर लिया और उसके होंठों पर चुम्बन लिया, फूलों की सुगंध और नमी उसके नथुनों में भर गयी और उसने सहमी नजर इधर-उधर दौड़ायी - किसी ने देखा तो नहीं?
“चलिये, आपके यहाँ चलें...” वह हौले से बोला।
और दोनों जल्दी-जल्दी चल दिये।
आन्ना सेर्गेयेव्ना के कमरे में उमस थी, इत्र की महक आ रही थी, जो उसने जापानी दुकान में ख़रीदा था। उसकी ओर देखते हुए गूरोव अब सोच रहा था, “जीवन में कैसी-कैसी मुलाकातें होती हैं!” उसके जीवन में मृदु स्वभाव की बेफिक्र स्त्रियाँ आयी थीं, जो प्रेम से हर्षविभोर होतीं, और क्षणिक सुख पा कर भी उसका आभार मानतीं।
और उसकी पत्नी जैसी स्त्रियाँ भी, जिनके प्रेम में कोई सच्चाई न थी, वे बड़बोली थीं, बहुत बनती थीं, उनका प्रेम हिस्टीरिया की तरह उठता था, और प्रेम में उनके हाव-भाव ऐसे होते थे, मानो यह प्रेम नहीं, मन की प्यास नहीं बल्कि कोई अत्यधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ है; दो-तीन अत्यंत रूपवती स्त्रियाँ भी थीं, जिनके मन में भावनाओं का तूफान नहीं उठता था, बस कभी-कभार चेहरे पर हिंस्र भाव झलक उठता, एक ऐसी हठपूर्ण इच्छा कि जीवन जो कुछ दे सकता है उससे अधिक खसोट लें।
और ये स्त्रियाँ जवानी की दहलीज लांघ चुकी थीं, नखरे भरी थीं, बुद्धिमान नहीं थीं, सोचती-विचारती नहीं थीं, पर अपना हक जमाती थीं, और गूरोव जब उनके प्रति ठण्डा पड़ जाता, तो उनका रूप उसके मन में घृणा जगाता और उनकी शमीज की लेस उसे मछली के शल्क जैसी लगती।
लेकिन यहाँ वही संकोच, अनुभवहीन यौवन की वही अनघड़ता थी और एक अजीब-सी अनुभूति थी। ऐसी सकपकाहट सी महसूस हो रही थी, मानो किसी ने सहसा दरवाज़े पर दस्तक दी हो। जो कुछ घटा था, उसपर आन्ना सेर्गेयेव्ना की, इस “कुत्ते वाली महिला” की प्रतिक्रिया विचित्र थी।
अत्यंत गम्भीर, मानो यह उसका पतन ही हो; ऐसा लग रहा था और यह अजीब, बेमौके की बात थी। उसका चेहरा मुरझा गया, गालों पर बाल लटक रहे थे, दुख में डूबी वह विचारमग्न बैठी थी - हूबहू किसी प्राचीन चित्र में बनी पतिता-सी।
“यह अच्छा नहीं हुआ,” वह बोली। “अब आप ही मुझे बुरी समझेंगे।”
कमरे में तरबूज रखा हुआ था। गूरोव ने एक फांक काटी और धीरे-धीरे खाने लगा। कम से कम आधा घण्टा चुप्पी छाई रही।
आन्ना सेर्गेयेव्ना के रोम-रोम से पाकदामनी का अहसास होता था, वह भोली, भद्र स्त्री थी, उसका जीवन अनुभव अभी थोड़ा ही था; वह बड़ी मर्मस्पर्शी लग रही थी। मेज पर जल रही एकमात्र मोमबत्ती की मद्धम रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी, स्पष्ट था कि उसके हृदय में घोर उथल-पुथल हो रही है।
“मैं तुम्हें बुरी क्यों समझने लगा?” गूरोव ने पूछा। “तुम ख़ुद नहीं जानती हो क्या कह रही हो।”
“हे प्रभु, मुझे क्षमा करो!” आन्ना सेर्गेयेव्ना ने कहा और उसकी आँखें आँसुओं से भर आयीं। “बड़ी भयानक बात है यह!”
“तुम तो मानो सफाई दे रही हो।”
“मैं क्या सफाई दे सकती हूँ? मैं नीच, पतिता हूँ, मुझे अपने आप से नफरत हो रही है और सफाई की तो मैं सोच ही नहीं सकती। मैंने पति को नहीं, अपने आप को धोखा दिया है। मेरा पति, हो सकता है, ईमानदार, अच्छा आदमी हो, पर वह अरदली है! मुझे नहीं पता वह क्या नौकरी करता है, कैसा काम करता है, पर मैं जानती हूँ कि वह अरदली है।
जब उससे मेरी शादी हुई थी, तो मैं बीस बरस की थी, मेरे मन में अथाह कौतूहल था, मैं अधिक अच्छे, सुन्दर जीवन की कल्पना करती थी। मैं अपने आप से कहती थी कि कोई दूसरा जीवन भी तो है! मैं जीना चाहती थी, जीना, जीना...मैं कौतूहल के मारे मरी जा रही थी...आप यह सब नहीं समझते, पर ईश्वर क़सम, अपने आप पर मेरा बस नहीं रहा था, मुझे जाने क्या होता जा रहा था, मुझे कोई रोक नहीं सकता था, मैंने पति से कहा कि मैं बीमार हूँ, और यहाँ चली आयी...यहाँ भी मैं बावली-सी, नशे की-सी हालत में घूमती रही...और अब मैं एक तुच्छ कुलटा औरत हूँ, जिससे कोई भी नफरत कर सकता है।”
गूरोव यह सुनते-सुनते उकता गया, उसे उसके भोलेपन पर, इस प्रायश्चित पर, जो इतना अप्रत्याशित और असामायिक था, खीझ हो रही थी। यदि आन्ना सेर्गेयेव्ना की आँखों में आसू न होते तो यह सोचा जा सकता था कि वह मजाक कर रही है या फिर नाटक। गूरोव हौले से बोला -
“मेरी समझ में नहीं आता तुम चाहती क्या हो?”
उसने गूरोव की छाती में अपना मुँह छिपा लिया और उससे सट गयी।
“मुझ पर विश्वास कीजिए, भगवान के वास्ते,” वह कह रही थी। “मुझे सच्चा, पाक जीवन ही अच्छा लगता है, पाप से मुझे घिन है, मैं ख़ुद नहीं जानती मैं क्या कर रही हूँ। आम लोग कहते हैं - बुद्धि मारी गयी। अब मैं भी कह सकती हूँ: शैतान ने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी।”
“बस, बस...” वह बुदबुदा रहा था।वह उसकी निश्चल, भयभीत आँखों में आँखें डाल कर देख रहा था, उसे चूम रहा था, स्नेह भरे स्वर में हौले-हौले बोल रहा था, और वह धीरे-धीरे शान्त हो गयी, फिर से उसका मन खिलने लगा; दोनों हँसने लगे।
फिर जब वे बाहर निकले, तो तटबंध पर एक भी व्यक्ति नहीं था। सरू वृक्षों से घिरा नगर निष्प्राण लग रहा था, परन्तु तट से टकराता समुद्र अभी भी शोर कर रहा था। लहरों पर एक बड़ी नाव डोल रही थी और उस पर उनींदा-सा लैंप टिमटिमा रहा था।
एक घोड़ागाड़ी लेकर वे ओरेयान्दा चले गये। “होटल में मुझे तुम्हारा कुलनाम पता चला - बोर्ड पर लिखा है फोन दीदेरित्स। तुम्हारा पति क्या जर्मन है?,” गूरोव ने पूछा।“नहीं, उसका दादा शायद जर्मन था, ख़ुद उसका बपतिस्मा रूसी आर्थोडोक्स चर्च में ही हुआ था।”
ओरेयान्दा में वे गिरजे से थोड़ी दूर एक बेंच पर बैठ गये और चुपचाप नीचे समुद्र की ओर देखने लगे। भोर के कोहरे के पीछे से याल्टा का हल्का-सा आभास ही होता था, पहाड़ों की चोटियों पर निश्चल सफ़ेद बादल छाये हुए थे। पेड़ों की पत्तियाँ हिल-डुल नहीं रही थीं, टिड्डे झंकार कर रहे थे और समुद्र का नीचे से आता एकसार शोर शान्ति की,