Sunday 29 September 2019

एक छोटा-सा मजाक-A Little Joke:A Short Story by Anton Chekhov.

सरदियों की ख़ूबसूरत दोपहर... सरदी बहुत तेज़ है। नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है। उसके घुंघराले बालों में बर्फ़ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ़ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऎसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो।


हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है।--चलो नाद्या, एक बार फिसलें! --मैंने नाद्या से कहा-- सिर्फ़ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएंगे।


लेकिन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूँ तो जैसे उसका दम निकल जाता है।
  मैं सोचता हूँ-- लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने ख़तरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी।--मेरी बात मान लो! --मैंने उससे कहा-- नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?
 आख़िरकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूँ। ऎसा लगता है जैसे मौत का ख़तरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफ़ेद पड़ चुकी है और काँप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेज़ी से नीचे जा रही है।
 बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज़ है कि साँस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक तेज़ी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऎसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे।

मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या! --मैं धीमे से कहता हूँ।
 स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूँजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आख़िरकार हम नीचे पहुँच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफ़ेद पड़ गई है। उसकी साँसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूँ।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज़ नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूँ। --मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई दे रहा है।
 पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऎसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ़ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ, मैं सिगरेट पी रहा हूँ और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूँ।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज़्ज़त का सवाल हो गया है।
 जैसे उसकी ज़िन्दगी और उसके जीवन की ख़ुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नज़रों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भाँपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तज़ार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूँ। मैं

उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूँ-- अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूँ कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती।
वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही ख़ुशी उसे तंग कर रही है... --सुनिए! --मुझ से मुँह चुराते हुए वह कहती है। --क्या? --मैं पूछता हूँ। --चलिए, एक बार फिर फिसलें।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफ़ेद पड़ चुकी और काँपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूँ। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज़ और स्लेज की गूँज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या।
नीचे पहुँचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की तरफ़ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नज़र मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनती है।

उसके चेहरे पर हैरानी है। सिर्फ़ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है-- क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऎसा लगा हो, बस ऎसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस रहा है। बेचारी लड़की!
वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है वह रोने ही वाली है। --घर चलें? -- मैं पूछता हूँ। --लेकिन मुझे... मुझे तो यहाँ फिसलने में ख़ूब मज़ा रहा है। --वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती है: --और क्यों हम एक बार फिर फिसलें?

हुम... तो उसे यह फिसलना "अच्छा लगता है" पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफ़ेद दिखाई दे रही है और काँप रही है। उसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है।
लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसता हूँ और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुँच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है... मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूँ। वह धीमे-धीमे क़दमों से चल रही है और इन्तज़ार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा। मैं यह नोट करता हूँ कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।
दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है :"आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएँ तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या।" उस दिन से हम दोनों रोज़ फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही शब्द कहता हूँ :--मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फ़ीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की ख़ुमारी में रहने लगी है। हालाँकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और ख़तरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं।
 उसका शक हम दो ही लोगों पर है-- मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों पी जाए-- नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आँखें मुझे ही तलाश रही हैं।

फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है ...अकेले फिसलने में हालाँकि उसे डर लगता है, बहुत ज़्यादा डर! वह्बर्फ़ की तरह सफ़ेद पड़ चुकी है, वह काँप रही है, जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके।
 शायद आख़िर उसने फ़ैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि "जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं?" मैं देखता हूँ कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुँह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है।

वह अपनी आँखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है... स्लेज के फिसलने की गूँज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं-- मुझे नहीं मालूम... मैं बस यह देखता हूँ कि वह बेहद थकी हुई और कमज़ोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूँ कि वह ख़ुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।
 फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम गया। मार्च का महीना है... सूरज की किरंएं पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ़ से ढकी वह सफ़ेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक ख़त्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ़ पिघल जाती है।

हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है : हवा ख़ामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूँ-- हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहाँ चला जाऊंगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ़ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है।
शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास जाता हूँ और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ़ देखता हूँ। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नज़रों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे।
 उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आँसू ढुलकने लगते हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही होकि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए।


और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज़ में कहता हूँ : --मैं तुम से प्यार करता हूँ, नाद्या!
अचानक जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद ख़ुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूँ...

यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने ख़ुद शादी का फ़ैसला किया या नहीं-- इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसका पति-- एक बड़ा अफ़सर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और ख़ूबसूरत याद है।


और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूँ, मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऎसा मज़ाक किया था!...

The End

Tuesday 24 September 2019

Travelogue of Bikaner: Laughing City in Desert.Famous for Bhujyas.


Mera naam hai chameli
Main hu Malan albeli
Chali aayi main akeli Bikaner se
Mera naam hai chameli
Do you remember this song of film Raja aur Rank (1968).

This song was haunting me since my student life. That caused Bikaner in my dream for a long time, but never had a chance to plan a visit.

Bikaner was our 4th destination in Rajasthan. We board for Bikaner from Jaisalmer at 11.00P.M and reached Bikaner early morning at 5.00.A.M. Railway station of Bilkaner was well managed with a grand Rajasthani architectured building. Platforms were calm peacefull and clean.Retiring room was on first floor. Portor lifted our luggage and kept in our reserved rooms.

Lal garh Fort-Bikaner


Bikaner brings to life everything you want from a desert town; the dust-swirled vibrancy, the grand forts, the narrow lanes of a walled city, the red stone houses and the strange, familiar feeling of an outpost town with mixed threads of history lingering in the air.


History of Bikaner

Bikaner is said to have been founded in 1488, on a barren desert area called Jungaldesh by a Rajput Prince Rao Bika Ji, son of Rao Jodha Ji who founded Jodhpur.

Lal Garh Fort-Bikaner


Provoked by his father, Prince Bika Ji went on a campaign with a small military contingent of 500 soldiers and 100 cavalry men to establish his own Kingdom. 


After subduing the Chieftains of Rajputs clans and Jats in the vicinity, Bikaji established his kingdom in the middle of the Thar Desert which came to be known as Bikaner. It evolved into a beautiful city and an independent kingdom.


After subduing the Chieftains of Rajputs clans and Jats in the vicinity, Bikaji established his kingdom in the middle of the Thar Desert which came to be known as Bikaner. It evolved into a beautiful city and an independent kingdom.


Other version for establishing a new kingdom is narrated: -- As the second son of Jodha he had no chance of inheriting his father’s territory of Jodhpur or to the title of Maharaja. He, therefore, reconciled and decided to build his own kingdom at Bikaner.

Juna garh Fort
Our first place of visit in Bikaner was Junagarh Fort.Hired a three wheler auto rikshaw from rly station which charged Rs.50/=.Entry fees costed Rs.50/=each.

There was a waiting line for the visitors. Visitors can sit there on the benches. A guide was calling people in groups. The palace tickets include services of a guide. That guide will roam you around the palace and will tell all about the history of this palace.
Junagarh Fort was constructed by Raja Rai Singh, a general in army of  emperor Akbar in 1593.This grand fort is not on a hill top ,as many other forts of Rajasthan.


It has picturesque courtyards, and designed as a perfect mix blend of Moghal, Rajput and Gujrati style of architecture.  The main attractions inside this fort are Dungar Mahal, Anup Mahal, Ganga Mahal, Chandra Mahal, Hawa Mahal and Diwan-e- Khas.The Palace is well maintained and an eye feast for tourists.Junagarh Palace proved a heaven for my camera.


Lal Garh Palace.
About one hour visit of Junagrh Fort, we came out of this awesome palace,and reached Lal Garh Palce,which is about 3.00 Km  from here. This palace was built in 1902 by the Maharaja Sanga Singh in the memory of his father the Maharaja Lal Singh Ji.




Lal Garh Palace.was designed by an European architect, Sir Swinton Jacob. Thus, the overall architecture of this palace presents a superb blend of the Rajput and Victorian art influences.


Now, this property has been converted into an awe-inspiring heritage hotel known as the Luxmi Niwas Palace. The royal family still lives in a special suite in the Lalgarh palace, which they have converted into a heritage hotel.


After a beautiful mesmerizing trip to Junagarh fort and Lal garh Palace. We were hungry and exhausted. Decided to back in market around railway station for lunch. There were dozen hotels around.

The Rampuria Group of Havelies
"If dreams are cast in stones or if stones can sing they would be like the exteriors and interiors of Bikaner havelies".

The fine detailed carvings on the wall of the Havelis suddenly put you in to vintage mood .They make you think how Bikaner used to be when once the wealthy merchants who built these buildings lived here.


Rampuria group of Havelies are known for their more than 400 years old architecture splendor.

Originally, the havelies were the residence of wealthy merchants who had a fancy for beauty and art. For a major part of the year, they used to live in far-off lands where they went to earn money. They mostly came back to the city to rest, and enjoy and thus went on to build these havelis for leisure and relaxation.

Karni Mata Temple of Deshnokh

Besides its palaces Bikaner is highly popular for its temples.The most popular among them is Mata Krni Temple at a distance of about 26 Km in Deshnokh.


The Karni Mata Rat Temple of Bikaner was the most unique and freaky attraction.It was in my dream, since I saw a Tv. programme on Discovery Channel, over this temple.



This is only temple of world, where rats are pious and are worshiped. It is believed that around 20,000 rats live in remplex and are free to roam anywhere in temple complex.Devotees feed them milk and sweets to seek blessing of Devi Karni The Goddess.

An interesting fact that everyone told us was that these rats never leave the temple even though they are free to do so. I say, why leave when you are given a steady stream of tasty milk and treats. Worshipers make pilgrimages to the Karni Mata Temple not only to worship the rats, but to also heal their ailments.
Bhujya’s of Bikaner
Many people remember Bikaner only for its amazing, Forts, Palaces, Haveli’s, Camels, Sand Duens etc. But this desert city Bikaner is known international for it salted and spicy Bhujyas. Haldi Ram and Bikano are famous Brand names.
                                                     
In 1877, during the reign of Maharaja Shri Dungar Singh, the first batch of bhujia was produced in the princely state of Bikaner.
The credit of packaging this savory delight in packets and taking it to the world goes to Haldiram, and over 20,000 kgs of Bhujia are produced in Haldiram’s Bikaner factory every day. The local halwais of the bazaar themselves produce over 30,000 kg of bhujia daily.


This ends two days visit of the Laughing City ‘The Bikaner”.My camera is full of with sweet memories of colorful desert city.Next destination was Jaipur. It was interesting to hear people still refer to royalty as “Hamare Maharaj” (our king).

Tuesday 17 September 2019

Moazzam Jah: The junior Prince of Hyderabad.A Dreamy“thousand and one nights” nocturnal court

The "Nizams" (monarchs) of Hyderabad, were known for their luxurious lifestyle and all the princes of the royal family lived in the midst of great splendor, surrounded by courtiers who crawled in their presence, friends and flatterers.

One of those extravagant princes was Moazzam Jah (1907-1982), the second son of Mir Osman Ali Khan, last Nizam of Hyderabad, who was considered in 1937 as the richest man on the planet.

 But what Moazzam Jah liked most was poetry. With a pseudonym of "Shahji," he wrote "ghazals" and Urdu poetry, and established his own court composed of about 30 Urdu poets from various regions of India. The uniqueness of this court was that it met only at night.


Every time the sun set on the Indian Empire, a group of luxury cars sent by the prince took the members of the court, all with their best traditional attire, to gather in the palace. Moazzam occupied a central seat overlooking all the courtiers. 


The distinguishing feature of the Prince’s court was that it was held, as a rule, only during nights. Around 7.30 pm, the courtiers were brought from their homes in a posy of cars sent by the prince. They came with the aroma of attar renting the air.
 Prince Moazzam Jah with his  children
One after another, they greeted the Prince with ‘Seven Salaams’. Glasses of choicest drinks were served over exchange of pleasantries.

Then the Prince formally escorted all the courtiers to the adjacent dining hall where a multi-course meal awaited.The best biryani, exquisite dry-fruits from Arabia, custard and the finest pastry soaked in ghee were served in dazzling china and silver wares. Dinner ended at midnight when “paan” was served wrapped in gold paper.

Prince Moazzam's courtiers were then transferred to Durbar Hall, where comfortable padded sofas were waiting for them.

This happened even when at the court of the Nizam no courtier could sit in the presence of royalty. (Only the 'diwan' of Bahadur had the privilege of sitting in the presence of the Nizam).

The prince prepared the atmosphere by reciting a poem he had written and then invited the other poets to present their compositions to the entire audience. Moazzam's poets competed with each other to excel in their poetic abilities.

The court would go on thus till the first call for prayer, early in the morning, which would be heard from the nearby masjid.


The proceedings of the court would then wind up and the Prince would announce its adjournment. He would then take his dose of sleeping pills and withdraw to his private chamber.
The entire day time was meant for sleep and he woke up only for breakfast the next day, by 11, and for lunch at 3.00. And then, he woke up in the evening for the “day’s court”.


On every Idd he used to buy a new suit of clothes consisting of a sherwani and a pyjama which was presented to all his courtiers. For himself when he made a purchase, Burton’s Shop in Secunderabad was closed to all other customers except the wives of European military officers.
  
The Prince never purchased a piece. He would buy a whole roll. The idea was that nobody else should wear a sherwani made of a cloth similar to the one that he had purchased.

For Idd, agents were sent to different parts of the country to select and invite singers and dancers. Amongst them was also Begum Akhtar who at that time was known as Akhtari Bai Faizabadi.

Mir Osman Ali Khan -(VII) Nizam of Hyderabad

The beautiful Hill Fort palace, perched on the eastern slope of Naubat Pahad, in front of the Assembly Hall, was the residence of Moazzam Jah, where the young prince had his night court.

Hill Fort Palace was built in 1915 by Nawab Sir Nizamat Jung, who served as chief justice in the government of Nizam. His stay in the palace was for 15 years. The architecture is in style of Trinity College, Cambridge.
Hill Fort Palace (1930)
In 1929, after he went on Haj he wanted to live a simpler life so it was purchased by last Nizam Mir Osman Ali Khan, Asaf Jah VII for his son Prince Moazzam Jah, and it was then designated as the official residence of the chairman of the City Improvement Board.
Interior of Hill Fort Palace (19300
In 1931, Moazzam married Princess Niloufer, nephew of Abdul Majjid II, the last Turkish sultan. The Sultan, after being deposed by Mustafa Kemal Pasha in March 1924, lived in exile in France. Abdul Majjid's own daughter, Princess Durrushehvar, on the same occasion, married Azam Jah, Moazzam's elder brother.

Princess Nilofer

Proud Nizam Osman Ali Khan used to accompany them to public events. Princess Niloufer, known as ' the Kohinoor of Hyderabad’, was the only person who addressed Nizam as ‘Dad’, while her own daughters always addressed him as 'Sarkar'.

Prince Moazzam's love for poetry and his devotion to the court's nightlife unfortunately affected his married life. Niloufer complained about him to his father-in-law, but it was in vain, and he finally left Hyderabad court in 1952 to never return.

Princess Niloufer

After the merger of Hyderabad with India, in 1948, Moazzam faced serious financial problems. Nizam's allowances were drastically reduced and the family, accustomed to living in luxury, had to get used to living from the family fortune (which was not scarce).

Last Ottoman caliph -Abdul Majid 2nd
In 1949, the Prince left the Hill Fort Palace and went to Mumbai, where he lived for five years. Returning to Hyderabad in 1954, he moved to a modest house in the Red Hills. The nocturnal court virtually came to end with his leaving the Hill Fort Palace.


On September 15, 1989, the Junior Prince passed away. He was 82. There were very few who turned up at his funeral. The Prince, who entertained thousands in his life, and never ate a meal without the company of at least a score of ten, went almost alomost alone to his grave.

Oh, Allah. Kul and world mortal.
World mortal Allah Baki
Praise is to Allah.