Monday 14 September 2020

Sahir Wizard of Words:साहिर की माँ उनके पिता की ग्यारवीं बीवी थीं. औरत ने जनम दिया मर्दों को,मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

Sahir was wizard of words.Poet of love ,romance and revolution.

साहिर की माँ उनके पिता की ग्यारवीं बीवी थीं। जब उनके पिता ने बाहरवीं शादी की तो उनकी माँ सरदार बेग़म का ये भरम भी जाता रहा कि वो पुत्र प्राप्ति के लिए शादी कर रहे हैं। अब आईने से गर्द हट चुकी थी और उनकी माँ को ये एहसास हो गया था कि उनका शौहर एक अय्यास आदमी है।

 

उन्होंने स्त्री के जीवन की त्रासदी को बरास्ते अपनी माँ भोगा था और उसे अपनी शायरी में आवाज़ भी दी थी।

 

उन्होंने लिखा---

औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब चाहा मसला, कुचला जब चाहा दुत्कार दिया

मर्दों के लिए हर जुल्म रवा, औरत के लिए रोना भी खता

मर्दों के लिए लाखों सेजें, औरत के लिए बस एक चिता

 

जिसके लिए औरतें जिस्म की भूख का सामान और अय्यासी का साधन मात्र हैं। जो जितना रईस होता है उसके पास उतनी विलासिता के साधन होते हैं। उतने ही विकल्प।

 

अब साहिर की माँ ख़ुद को अपने पति की नज़रों में किसी वस्तु, भोग का साधन, विलासिता के विकल्प से ज़्यादा नहीं देख पा रहीं थी। ऐसे ही उलझे हुए खयालों और सवालों वाली किसी रात उन्होंने तय किया कि वो अपने पति के साथ नहीं रहेंगी।

 

उनकी 12 माएँ थीं और एक पिता।

पहले बात करते हैं उनके असली नाम की. वैसे तो अब्दुल हई एक आम नाम है, लेकिन उनका यह नाम यूं ही नहीं रखा गया. दरअसल उनके पड़ोस में एक बहुत बड़ा राजनीतिक आदमी रहता था जिसका नाम भी अब्दुल हई था, जिससे उनके पिता की बिल्कुल भी नहीं बनती थी.

 

उस आदमी के खिलाफ अपना गुस्सा निकालने के लिए उनके पिता ने अपने बेटे का नाम अब्दुल हई रखा. अपने बेटे के बहाने वह उस आदमी को भला बुरा कह कर अपना दिल हल्का कर लेते थे. उनके पिता ने कभी भी अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियों को नहीं समझा.

 

उन्होंने 12 औरतों से निकाह किया. साहिर 11वीं पत्नी के बेटे थे. उनके पिता का व्यवहार ठीक होने की वजह से उनकी मां ने अपने पति फज़ल मोहम्मद से तलाक ले लिया और अपने भाई के पास आकर रहने लगीं.

 

उनकी 12 माएँ थीं और एक पिता। ये कहानीनुमा बात अब्दुल हयी के जीवन का यथार्थ थी। इसे ही शायद जादुई यथार्थवाद कहते हैं। जहाँ कुछ असंगत, कहानीनुमा, काल्पनिक सी बात यथार्थ में घटित होती है। अब्दुल हयी के जीवन के इसी तल्ख़ जादू ने उन्हें हर्फ़ों का जादूगर बना दिया। और वो अब्दुल हयी से शायर साहिर लुधियानवी बन गए। साहिर का शाब्दिक अर्थ जादूगर होता है।

 

उनके पति के पास बहुत सी औरतें थीं पर बेटा एक था। बेटा सिर्फ़ बेटा नहीं होता वह कुल का दीपक भी होता है। और कुल तो सिर्फ़ पुरुषों का होता है। महिलाओं का कोई कुल नहीं होता। सो मामला अदालत में पहुँच गया। मसअला था साहिर पर हक़ का।

 

अदालत में नन्हें साहिर ने अपनी माँ को चुना। और अदालत ने बच्चे को माँ की ज़्यादा ज़रूरत है, के सिद्धांत के आधार पर साहिर को उनकी माँ सरदार बेग़म को सौंप दिया।

 

ये साधारण सी घटना मर्दवादी मस्तिष्क पर आघात थी। कुल का चराग़ एक औरत कैसे हथिया सकती है। वो तो बेटा पैदा करने की मशीन भर है। पितृसत्ता की नज़र में बेटा पिता की खेती है। उसके पौरुष का फल।

 

तो साहिर का उनकी माँ के पास जाना उनके पिता फ़ज़ल मुहम्मद को अखर गया और उन्होंने अपने कारिंदे उन्हें ख़त्म करने के लिए लगा दिए। ये ऐसे ही था जैसे जो वस्तु मेरी नहीं वो किसी और की नहीं हो सकती। एक जीती जागती जान का, एक इंसानी बच्चे का वस्तु में बदल जाना कितना त्रासद हो सकता है ये साहिर और उनकी माँ ही समझ सकते थे। साहिर की माँ ने अपने गहने ज़ेवरात बेंच कर अपने बच्चे के लिए अंग रक्षक रखे। ताकि वो उसे अपने पति के हाथों मारे जाने से बचा सकें।

 

साहिर का जन्म 8 मार्च 1921 में पंजाब के लुधियाना शहर में एक ज़मीदार परिवार में हुआ. उनका बचपन उनके मोहब्बत के गीतों की तरह खुशग़वार नहीं रही.उनके वालिद और वालिदा के बीच रिश्तें काफी तल्ख़ भरे थे. खराब रिश्तों की वजह से हर दिन घर में झगड़ा होता था. यही कारण रहा कि एक वक्त पर जब उनके वालिद ने दूसरी शादी कर ली तब उनकी वालिदा उनको लेकर लुधियाना से लाहौर चली गईं।

 

साहिर अपनी मां से कितनी मोहब्बत करते थे इसका एक उदाहरण यह है कि जब लुधियाना से उनकी मां उन्हें लेकर लाहौर जा रही थीं तब साहिर महज 13 साल के थे. ट्रेन में अपनी मां से लिपटे साहिर ने कहा


अम्मी, मैं अब्बा की गालियां और मार रोज़ खा लूंगा, उफ़ तक नहीं करूंगा. पर चलो, ख़ुदा के वास्ते चलो यहां से.’ इस पर उनकी वालिदा ने उत्तर दिया, ‘अब यही अपना घर है और यहीं रहना है हमको, बेटा’. अपने अब्बा को भूल जाओ. वो ज़ालिम इंसान है।क्योंकि वो तुमसे नफरत करता हैं.''

 

यह कहते ही साहिर की वालिदा की आंखों से आंसू गिरने लगे मां।को रोता देख साहिर भी जोर-जोर से रोने लगे. ‘अम्मी, वादा करो तुम मुझे कभी छोड़ कर जाओगी.’ अपने वालिद का अपनी वालिदा के लिए खराब व्यवहार ने साहिर के बाल अवस्था या बाल मन पर उसका ऐसा प्रभाव छोड़ा कि उन्होंने बड़े हो कर लिखा

 

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

 

साहिर का अपनी मां से प्यार ही था जिसकी वजह से औरतों के दर्द, उनके सम्मान और अधिकार की बात वह अपने शेरों और गीतों में करते रहे।

दुनिया ने तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में

जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूं मैं

 

साहिर को हालातों ने सिखाया था कि दुनिया भर में जितनी भी रौनकें हैं वह औरतों के दम से हैं ।जितने भी रास्ते रौशन हैं वह औरतों की वजह से ही है। दरअसल साहिर समझते थे कि किसी भी मर्द के लिए एक अच्छा इंसान बनने की पहली और आखिरी शर्त एक औरत का सम्मान और उसकी भावनाओं की कद्र करना है।

 

साल था 1978, का माँ साहिर को छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए चली गईं। कहाँ ? एक ऐसी जगह जिसका पता किसी को नहीं मालूम। समझदार लोग नासमझी में उसे अल्लाह मियां का घर कहते हैं और धर्म की किताब जन्नत। पर साहिर की जन्नत तो उनकी माँ के क़दमों में थी।

 

सो साहिर माँ के जाने के बाद भीतर से दरकने लगे। और उनके हिस्से की तन्हाई माँ के जाने के बाद और बढ़ गई। माँ के जाने के बाद दुनिया का साहिर लुधियानवी और अपनी माँ का अब्दुल हयी दो साल भी नहीं जी सका। और 25 अक्टूबर 1980 की रात शराब की नीम बेहोशी में मौत के आग़ोश में समा गया। मौत की वजह हार्ट अटैक थी। उनके दिल पर हमले तो उनके जन्म से पहले ही होते रहे।

 

साहिर ने अपनी माँ के साथ हुए अन्याय को माँ के साथ भोगा था। इसलिए उनका यक़ीन दुनिया और ख़ुदा दोनों से उठ गया था।

 

इसलिए वो उस सुबह के इंतज़ार में जब हर ज़ुल्म--सितम मिट जाएगा गाते रहे, "वो सुबह कभी तो आएगी" और साथ ही दुनिया को लानत भेजते हुए कहते रहे "ये दुनिया दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है"

 

साहिर के अंदर आये इस बदलाव को समझने के लिए उस दौर पर एक नज़र डाली जाए. 60 के दशक में रूस के कम्युनिस्ट लीडर निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन के ख़िलाफ़ बोलकर और सोवियत रूस की अंदरूनी नीतियों में बदलाव करके साम्यवाद के अंत की शुरुआत कर दी थी.


चीन की हिंदुस्तान से जंग ने वामपंथी आंदोलनों की जड़ें हिला दीं, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी कम्युनिस्ट आंदोलन के विरोधाभास ज़ाहिर होते जा रहे थे और बचपन की ग़ुरबत और कम्युनिस्ट शायरों की बदहाली ने भी शायद साहिर की सोच में कुछ तब्दीली कर दी थी. ख़ैर, जो भी हो उनकी नफ़्सियाती (रोमांटिक) और नज़रियाती (गंभीर) शायरी दोनों ही कमाल की हैं।

 

"साढ़े पाँच फ़ुट का क़द, जो किसी तरह सीधा किया जा सके तो छह फ़ुट का हो जाए, लंबी लंबी लचकीली टाँगें, पतली सी कमर, चौड़ा सीना, चेहरे पर चेचक के दाग़, सरकश नाक, ख़ूबसूरत आँखें, आंखों से झींपाझींपा सा तफ़क्कुर, बड़े बड़े बाल, जिस्म पर क़मीज़, मुड़ी हुई पतलून और हाथ में सिगरेट का टिन."

साहिर को महफ़िलें जमाने का शौक

साहिर लुधियानवी के वालिद रईस ज़मींदार थे. साहिर ने भी ख़ूब इनाम--इकराम--दौलत कमाई और दोस्तों पर ख़ूब ख़र्च भी की. उन्हें महफ़िलें जमाने का शौक रहा. रात भर चलती दावतों में, जिनमें महंगी शराबें और शेर--सुख़न के दौर होते थे, शरीक होने वाले राजिंदर सिंह बेदी, कृष्ण चन्दर, सरदार जाफ़री और जांनिसारअख़्तरजैसे नाम थे.

 

वो हर किसी शायर का मज़ाक़ उड़ाते और अपने दोस्तों को गालियों से भी ख़ूब नवाज़ते. अपने दोस्तों और नौजवान शायरों को दरबारी की हैसियत से देखने का नज़रिया शायद उन्हें अपने ज़मींदार बाप से विरसे में मिला था.

जांनिसार अख़्तर साहिर के सबसे बड़े दरबारी थे.

जांनिसार अख़्तर साहिर के सबसे बड़े दरबारी थे. उनका रहना-खाना-पीना सब साहिर की ज़िम्मेदारी थी और साहिर की हां में हां मिलाना जांनिसार की. बक़ौल निदा, ‘...साहिर को अपनी तन्हाई से डर लगता था और जांनिसार उनके इस ख़ौफ़ को कम करने का माध्यम थे.

 

इसके लिए उन्हें हर महीने एक तयशुदा रक़म भी मिलती थी. साहिर का नाम उन दिनों फिल्मों में सफलता की ज़मानत समझा जाता था. दूसरों की मदद करना उनके लिए मुश्किल था और जांनिसार सिर्फ़ दोस्त ही नहीं ज़रूरत से ज़्यादा जल्दी शेर लिखने वाले शायर भी थे. साहिर को एक पंक्ति सोचने में जितना समय लगता था, जांनिसार उतने समय में 25 पंक्तियां जोड़ लेते थे. एक तरफ़ ज़रूरत थी, दूसरी ओर दौलत.’

 

जांनिसार ने अपने दौर में एक फिल्म बनाई थी - बहू बेगम. इस फिल्म के गीत साहिर के नाम पर हैं. ये फिल्म पिट गयी थी और गीतकार जांनिसार की साहिर को लेने की तिजारती मजबूरी को उनकी नाक़ाबिलियत समझा गया. निदा लिखते हैं, ‘जांनिसार तहज़ीबदार आदमी थे और उन्होंने घर की बात को बाहर नहीं निकाला पर एक शेर में कुछ इशारा ज़रूर किया है - ‘शायरी तुझको गंवाया है बहुत दिन हमने.’ अब जांनिसार हैं और ही साहिर जोबहू बेगमके और बाक़ी गीतों का सच बताएं.

एक बार निदा फ़ाज़ली भी घर से बाहर फिंकवा दिए गए.

तहज़ीब यक़ीनन विरसे में मिलती है, जावेद अख़्तर साहब ने भी कभी इस बात पर से पर्दा नहीं हटाया. और फिर एक दिन किसी बात पर साहिर ने अपने इसदरबारीदोस्त को गाली-गलौज करके घर से धक्के देकर बाहर करवा दिया था. उनकी महफ़िल में किसी और शायर की तारीफ करना मानो उन्हें अपनी बेइज़्ज़ती लगती थी और इसी जुर्म के तहत एक बार निदा फ़ाज़ली भी घर से बाहर फिंकवा दिए गए.

 

साहिर लुधियानवी का प्यार:अमृता प्रीतम और सुधा मल्होत्रा का साहिर

साहिर के व्यक्तित्व के दो महत्वपूर्ण पहलू थे. एक आशिकाना और दूसरा शायराना. जब भी उनके आशिकाना पहलू पर चर्चा होती है तो एक नाम जहन में अचानक याद जाता है. वह नाम अमृता प्रीतम का है. साहिर ने ताउम्र इश्क़ पर लिखा लेकिन खुद तन्हा ही रहे.

 

कोई छह फुट ऊंचे, पीछे की ओर को बाल किये, ऊंची और चौड़ी पेशानी, खुरदुरा चेहरा और आवाज़ में नाक से बोलने का हल्के से पुट वाले साहिर की कई दीवानियां हुईं. रहे वे भी कइयों के दीवाने, पर शादी किसी से नहीं की.

सबसे पहला इश्क़ प्रेम चौधरी से हुआ जिसके पिता ने उन्हें लाहौर कॉलेज से ही निकलवा दिया. फिर आयीं इसर कौर. कुछ दिन इश्क़ चला पर यहां भी बात नहीं बनी. कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग फिर भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आईं.

 

 फिर आयीं इसर कौर. कुछ दिन इश्क़ चला पर यहां भी बात नहीं बनी.कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग फिर भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आईं.दोनों के बीच प्यार के पैगामों का सिलसिला यूं चला की एक होकर भी दोनों एक-दूसरे से जुदा हो पाए.


उनका प्यार जमाने से अलहदा था. इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा था. अधूरी मोहब्बत का ये वो मुकम्मल अफसाना है जिसकी मिसाल इश्क करने वाले आज तक देते हैं. उनके लेखनी में कई जगहों पर अमृता के साथ एक अधूरी प्रेम कहानी जो अधूरी होकर भी पूरी थी वह देखने को मिलती है.

 

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना हो मुमकिन

उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा

 

अमृता प्रीतम ने अपनी किताबरसीदी टिकटमें अपने इश्क़ को तफ़्सील से बयां किया है. साहिर और अमृता दोनों अलहदा शख़्सियत के इंसान थे. दोनों शायरी के उस्ताद पर जहां साहिर ने अमृता से अपना इश्क़ दुनिया के सामने ज़ाहिर नहीं किया, वहीं अमृता ने कुछ भी छुपाते हुए ईमानदारी और हिम्मत दिखाई है.

 

उन्होंने बेबाकी से अपने साहिर के प्रति इश्क़ को ज़ाहिर किया है: ‘साहिर घंटों बैठा रहता और बस सिगरेटें फूंकता रहता और कुछ कहता. उसके जाने के बाद में उन बचे हुए सिगरेटों के टुकड़े संभालकर रख लेती, फिर अकेले में पीती और साहिर के हाथ और होंठ महसूस करती.

 

जब इमरोज़ के बच्चे की मां बनी तो बच्चे के साहिर के जैसे होने की ख़्वाहिश की. एक बार किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी कि, ‘अगर इमरोज़ मेरे सर पर छत है तो साहिर मेरा आसमां.’ अमृता ने साहिर का बहुत इंतज़ार किया पर वे नहीं आए.

 

सुधा मल्होत्रा

इसी बीच सुधा मल्होत्रा से भी उन्हें इश्क़ हो गया. आज के पाठक शायद सुधा मल्होत्रा के नाम से आशना हों - वो 50 -60 के दशक में एक बड़ी मारूफ़ गायिका थीं. सुधाजी का गाया एक गाना है - ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको. मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...’ इत्तिफ़ाक़ देखिये ये लिखा भी साहिर ही ने था. साहिर इन्हें भी भूल गए.

 

कुछ लोगों का ऐसा भी मानना था कि वे जानकर इश्क़ को अधूरा छोड़ देते थे जिससे अपनी शायरी में दर्द पैदा कर सकें. कमाल की बात ये कि अपनी हर माशूक़ा के लिए वे दीवानेपन की हद तक दीवाने भी थे.

 

जिन चाय के प्यालों में अमृता या सुधा चाय पीती थीं उन्हें किसी को हाथ भी नहीं लगाने देते. उनकी और जांनिसार की दोस्ती ख़त्म होने के पीछे कारण था कि जांनिसार उनकी पुरानी माशूक़ा से राब्ता बढ़ा रहे थे.

 

साहिर का फिल्मी सफ़र

लाहौर में छपीतल्ख़ियांकी शौहरत बंबई तक थी. बंबई में साहिर को प्रेम धवन का सहारा मिला. धवन अपने साथ ले जाकर उन्हें निर्माताओं और संगीतकारों से मिलवाते और इस तरह 1945 में आयी फिल्मदोराहामें उन्हें पहला गीत लिखने का मौका मिला

 

मोहब्बत तर्क की मैंने, गिरेबां सी लिया मैंने

ज़माने अब ख़ुश हो ज़हर ये पी लिया मैंने

 

पर ये सफ़र इतनी आसानी से बढ़ने वाला नहीं था. साहिर के फ़न को फ़िल्म वाले संजीदगी से नहीं ले रहे थे और साहिर इस बात पर अड़ गये कि लिखेंगे अपनी शर्तों पर और यह भी कि हल्का नहीं लिखेंगे. कभी बात बनती तो कभी बिगड़ जाती पर साहिर अपनी बात पर डटे रहे. आख़िरकार 1951 में एआर कारदार साहब की फिल्मनौजवानमें उन्हें सही मायने में पहला ब्रेक मिला.

 

इसके बाद 1950-1975 का फिल्मी दौर सिर्फ़ साहिर के नाम हो गया. ‘प्यासा’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘फंटूश’, ‘बाज़ी’, ‘काग़ज़ के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘शगुन’, ‘नया दौर’, ‘काजल’, ‘चंद्रलेखा’, ‘कभी-कभीजाने कितनी ऐसी फिल्में बनीं जो साहिर के गीतों और नग़्मों के बिना सोची ही नहीं जा सकती थीं. साहिर इतने हावी हो गए थे कि अगर फिल्म में उनका पसंदीदा संगीतकार नहीं होता तो वे गाने नहीं लिखते.

 

राज कपूर की एक फिल्मफिर सुबह होगीजो दोस्तोव्स्की केक्राइम एंड पनिशमेंटपर आधिरित थी. इस फिल्म में साहिर की ज़िद पर फ़िल्म के मौसिक़ीकार के तौर पर शंकर-जयकिशन की जगह ख़य्याम को लिया गया. इस बात पर उन्होंने तर्क ये दिया कि शंकर-जयकिशन समाजवाद को ठीक से नहीं समझते. बलदेव राज चोपड़ा और यश चोपड़ा की लगभग सभी फिल्मों के गाने साहिर लुधियानवी ने ही लिखे.

 

रेडियो सीलोन पर बजते गानों में पहले सिर्फ़ गायक और संगीतकार का ही नाम लिया जाता था. साहिर के आने के बाद गीतकार का भी नाम बोला जाने लगा. उनके असर ने गीतकारों को भी म्यूजिक कंपनी से रॉयल्टी में हक़ दिलवाया. कुछ एक गीतों को अगर छोड़ दें तो पहले वो गीत लिखते थे फिर मौसिक़ी तय होती थी और ये साहिर का ही उरूज था कि बतौर मेहनताना वे संगीतकार से एक रुपया ज़्यादा फ़ीस लेते थे

 

वह जब लिखते थे तो लगता था जैसे ज़िंदगी को कागज पर उसी रूप में लिख दिया गया हो. उस शायर का नाम है साहिर लुधियानवी. साहिर और ग़म का साथ ऐसा रहा जैसे ज़िंदगी और सांसों के बीच का सबंध हो. यह उनके हालात ही थे जिसको लेकर साहिर ने कहा

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया

बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

साहिर लुधियानवी : जिसने अपना हर इश्क़ अधूरा छोड़ा, शायद इसलिए कि वह साहिर बना रह सके

The End

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.

 





















 

Saturday 5 September 2020

The Romantic life of Victor Hugo:-One of The Greatest Writer of All Time

Victor Hugo (1802–1885) is widely regarded as one of the greatest writers of all time, dramatist of the Romantic movement.During a literary career that spanned more than sixty years, he wrote abundantly in an exceptional variety of genres: lyrics, satires, epics, philosophical poems, epigrams, novels, history, critical essays, political speeches, funeral orations, diaries, letters public and private, and dramas in verse and prose.

 

Hugo is considered to be one of the greatest and best-known French writers. Outside France, his most famous works are the novels Les Misérables, 1862, and The Hunchback of Notre-Dame (French: Notre-Dame de Paris), 1831.

 

He spent a romantic life with a wide variety of women of all ages, be they courtesans, actresses, prostitutes, admirers, servants or revolutionaries like Louise Michel for sexual activity.

 

As one reads Hugo's biography it is possible to see that perhaps such characters did not grow fully from his imagination. Victor Hugo had a large sexual appetite and he satiated it throughout his life with many different women.

 

Hugo’s Wife Adele Foucher.

The Romantic life of Hugo began when as a teenager; There are many stories linked with the marriage of Victor Hugo and his childhood sweetheart, Adele Foucher. Their marriage started strong, according to the biography of the French novelist. One of the people writing Hugo’s biography, Edward Behr, noted that Hugo made love nine times with his wife on their wedding night.

 

His mother discouraged the romance, believing that her son should marry into a finer family but after his mother's death he did marry Adele.

Together they had five children and it seemed as though the stage for their life was set. What more could a couple ask for, a happy marriage and many children? Apparently this couple wanted more because they were both guilty of infidelity.

 

Mistresses  & Infidelity of Victor Hugo

Victor Hugo loved his wife, but that didn’t stop him from cheating on her constantly. The famous writer had many mistresses, one of which was his son’s wife. His first mistress was Juliette Drouet. She became Hugo’s mistress in the same time his wife Adele was involved in an affair with Charles Augustin, a friend of the writer.

 

Drouet was the longest tenured mistress of the writer. Even though he had many other mistresses, he alwas came back to Juliette, even making her his unpaid secretary.

Mistresses Leonie Biard

A name that is mentioned in almost every biography of Hugo is mistresses, Leonie Biard. Around 1831 Hugo's wife, Adele Hugo became romantically involved with a well-known critic and good friend of Victor's named Sainte-Beuve.

Actress Juliette Drouet

From February 1833 until her death in 1883, Juliette Drouet devoted her whole life to Victor Hugo, who never married her even after his wife died in 1868. He took her on his numerous trips and she followed him in exile on Guernsey.

There Hugo rented a house for her near Hauteville House, his family home. She wrote some 20,000 letters in which she expressed her passion or vented her jealousy on her womanizing lover. On 25 September 1870 during the Siege of Paris (19 September 1870 – 28 January 1871) Hugo feared the worst. He left his children a note reading as follows:

 

"J.D. She saved my life in December 1851. For me she underwent exile. Never has her soul forsaken mine. Let those who have loved me love her. Let those who have loved me respect her. She is my widow."

Léonie d’Aunet

For more than seven years, Léonie d’Aunet, who was a married woman, was involved in a love relationship with Hugo. Both were caught in adultery on 5 July 1845. Hugo, who had been a Member of the Chamber of Peers since April, avoided condemnation whereas his mistress had to spend two months in prison and six in a convent. Many years after their separation, Hugo made a point of supporting her financially.

 

Victor Hugo bedded his son's lover Alice Ozy after writing erotic letters to her

Victor Hugo also seduced the wife of his son.Alice Ozy was cheating on Victor’s son.

 

He went to his father and asked for help in fixing the situation. Hugo fixed it by sending erotic odes to Alice who eventually succumbed to his charm and joined the list of Hugo's conquests much to the anger of his son. 

In response, Hugo slept with Alice himself, thinking that the embarrassing affair would “avenge” and cheer up his son. The boy was shockingly ungrateful towards Hugo’s efforts.

 

Though some might frown upon his many lovers others, like Graham who wrote one biography, empathized with him and seemed to think that his lusty love life simply helped to fuel his art.

 

"Sex for him was a form of contemplation" he found his outlet for contemplation in the many affairs that he had with actresses, wives and courtesans. To him "fallen women and courtesans were a pleasant antidote to the hypocrisy of high society."

 

He used to be naked ,while at work

He took all his clothes off, locked himself in a room with a pen and paper, and wrote. Hugo famously claimed that he wanted to be in a room where not even clothes distract him. He was forcing himself to write and ordered his servants not to bring him clothes until he has finished writing a chapter.

 

Foot fetish

Back in the days, most of the great minds were womanizers and enjoyed sex. Victor Hugo was one of the greatest writers, but also one of the greatest sexual players in the world of writers.What is interesting about Hugo’s sex life is that he was a foot fetishist.Many other great writers have also been foot fetishists, including Dostoevsky, F. Scott Fitzgerald and Goethe.

 

The End 

Disclaimer–Blogger has prepared this short write up with help of Wikipedia, many other materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.