Friday 10 June 2022

सौत: शिवानी की एक कहानी:- भोली-भाली विवाहित महिला को अपने पति और पड़ोसन पर विश्वास करना क्यों भारी पड़ा?

मुझे, जब उस बार एक मीटिंग में भाग लेने बम्बई जाना पड़ा तब मेरे सम्मुख मुख्य समस्या आई थी आवास की। कहाँ रहूँगी वहाँ? तब ही अचानक याद आया कि नीरा भी तो वहीं रहती थी। नीरा मेरे दूर सम्पर्क की चचेरी ननद थी।

 

पहले उसे यों अचानक अपने आगमन की सूचना देने में संकोच भी हुआ था। जनसंकुल बम्बई का जीवन कितना कठिन है एवं वहाँ के संकुचित- सीमित आवास में आतिथ्य निभाने में मेजबान के प्राण कैसे कंठगत हो जाते हैं, यह सब जानकर भी मुझे नीरा को लिखना ही पड़ा था, क्योंकि किसी होटल में रहने का साहस अन्त तक मैं सँजो नहीं पाई।

 

नीरा का फ्लैट छोटा होने पर भी बड़ा सुन्दर था, बत्तीस-बत्तीस फ्लैटों के गुलदस्ते, रात को दूर से देखने पर, किसी बन्दरगाह पर खड़े सुन्दर जहाजांे-से ही लगते थे।

 

नीरा को बम्बई का जीवन बहुत पसन्द था, तीन वर्षों के बम्बई-प्रवास ने उसका कायाकल्प कर दिया था। वैसे भी, वह पिथौरागढ़ के उस अनजाने ग्राम से बम्बई आई थी, जहाँ उसके विवाह तक, कुमाऊँ मोटर यूनियन की बस भी नहीं पहुँच पाई थी, उन दिनों मोटर-रोड का निर्माण-कार्य चल ही रहा था।

मुझे आज भी याद है, लग्न का समय बीता जा रहा था और उसकी बारात नहीं पहुँची थी। बड़ी देर बाद, उसकी बारात के थके-माँदे बराती बिना किसी बैंड-बाजे के ऐसे चले आए थे जैसे कोई मातमी जुलूस हो। पहाड़ी लद्दू घोड़े में बैठा, उसका सजीला दूल्हा भी वर्षा की बौछार में भीग-भाग, एकदम ही अनाकर्षक लग रहा था।

 

उधर नीरा आकर्षक न होने पर भी कामदार लहँगे-दुपट्टे में बड़ी प्यारी लग रही थी। नए गहने, कपड़े और नवीन जीवनसाथी का उल्लास उसके गदबदे गोल-मटोल चेहरे पर लज्जा का अंगराग बिखेर, उसकी उजली हँसी को और भी उजली बना गया था।

 

किन्तु आज की नीरा की न तो वेशभूषा में न वाणी में, वह पहाड़ी ढीलमढाल लटका था, न आतिथ्य में। उसके मुँह से ‘मैंने बोला,’ ‘तुमको होना क्या?’ आदि विभिन्न प्रदेशी उच्चारण सुन, मैंने उसे टोका भी था, "यह कैसे बोलने लगी हो, नीरा, क्या हो गया है तुम्हारी हिन्दी को?"

 

"क्या करूँ भाभी, मेरी पड़ोसिन हैदराबाद की है ना, इसी से बोली में उसकी छाप लग गई है। आज तुमसे मिलाऊँगी, बहुत ही प्यारी लड़की है।"

 

नीरा की प्रतिवेशिनी राज्यम बम्बई के एक प्रसिद्ध होटल में रिसेप्शनिस्ट थी। उसके पति मद्रास में ही किसी दवाओं की विदेशी फर्म में काम करते थे। दोनों का वेतन खासा-अच्छा था। उस पर उनकी एकमात्र पुत्री ननिहाल में पल रही थी। राज्यम स्वयं ऊटी के कान्वेन्ट से पढ़ी थी, इसी से अंगे्रजी का उच्चारण, उठने-बैठने का सलीका, सबकुछ खाँटी मेमसाहबी था।

 

वेशभूषा में भारतीय संस्कृति का लवलेश भी नहीं था। टखनियों तक झूल रही मैक्सी। बायाँ भाग, किसी समृद्ध थिएटर के रेशमी पर्दे की भाँति, बीचोंबीच, उन्मुक्त औदार्य से खुली परतों को समेट लेती, किन्तु उस कौशल में भी, उसकी सधी पूर्वाभ्यास से की गई उदासीनता, मैंने कनखियों ही में पकड़ ली थी।

 

गुलाबी रेशम की खुली भाँज के बीच, रह-रहकर उसकी गुलाबी रेशमी जंघा की क्षणिक छटा, बिजली-सी कौंध जाती।

 

किन्तु उसके चेहरे पर, वही स्वाभाविक सौम्य स्मित खेलता रहता, जैसा उन सर्कस सुन्दरियों के चेहरे पर रहता है, जो बालिश्त-भर की रेशमी कोपीन पहने टैªपीज़ के झूलों पर ऐसी ही उदासीनता से, सर्र से निकल जाती हैं।

 

उसकी मैक्सी का गला भी इसी औदार्य से खुला, किसी उत्तुंग पर्वतश्रेणी पर फिसल रहे पहाड़ी झरने के वेग से ही, झरझराता नीचे उतर गया था।

 

पतली ग्रीवा में थी सुवर्णमंडित रुद्राक्ष की माला, गेरुए रंग की शाट सिल्क की मैक्सी और कंठ की रुद्राक्ष कंठी से मेल खाता ही, उसका केशविन्यास भी था। संसारत्यागी अवधूत के से उस जटाजूट में भी एक रुद्राक्ष की माला लपेटी गई थी, हाथ में वैसा ही मेल खाता रुद्राक्ष का कंकण था।

 

बाद में नीरा ने बताया था कि वह जूड़े की लेटेस्ट स्टाइल है, ‘फारीदाबा हेयर स्टाइल है, भाभी,’ उसने बड़े गर्व से अपनी शृंगारपटु सहेली की उपस्थिति में ही फिर उसका प्रशस्तिपत्र पढ़ दिया था, ‘पर हम-तुम पर थोड़े ही ना अच्छी लग सकती है, यह तो राज्यम ही है कि कैसी ही बनकर क्यों न निकल पड़े, लोग मुड़-मुड़कर देखते रहते हैं।

 

बात ठीक ही कही थी नीरा ने। लड़की वास्तव में व्यक्तित्वसम्पन्ना थी, कुर्गी थी, इसी से रंग था एकदम चिट्टा सुर्ख, उस पर कुछ ‘ब्लेशऔन की महिमा थी, कुछ ‘प्लग कलर्ड लिपस्टिक की। उसे देखकर, मुझे वाजिदअली शाह की जोगिया बेगम, सिकन्दर महल का स्मरण हो आया। वयस होगी कोई तेईस-चैबीस के लगभग, किन्तु व्यवहार अल्हड़ षोडशी का था।

 

होटल की रिसेप्शनिस्ट थी, इसी से छल्लेदार बातें बनाने में पारंगत थी। मेरा परिचय पाते ही, वह मेरे पास अपना मोढ़ा खिसका लाई, ‘सो यू आर ए राइटर हाउ वेरी-वेरी इंटरे¯स्टग, क्या लिखती हैं आप, उपन्यास, कहानी या नाटक?’ जी में तो आया कह दूँ, तुम्हें देखकर तो अभी एक नाटक ही लिखने को मन कर रहा है, पर तब क्या जानती थी कि एक दिन उसे ही नायिका बनाकर लेखनी स्वयं ही मुखरा बन उठेगी।

 

रात का खाना राज्यम नित्य नीरा के साथ ही खाती थी। मैं नीरा का व्यवहार, फुर्ती और पाक-कौशल देखकर मुग्ध हो गई थी। एक बालिश्त के, अपने उस गुफा-से सँकरे चैके में उसने इतनी चीजें कब बना दीं, और कैसे? न उसके पास कोई नौकर था न महरी, फिर भी मैं जितनी देर मीटिंग में रही, उसने न जाने क्या-क्या बना लिया था।

 

पूड़ी-कचैड़ी, तीन तरह की सूखी, रसेदार सब्जियाँ, ठेठ पहाड़ी रायता और मीठी चटनी। बम्बई में भी उसने उत्तराखंड के स्वादिष्ट पकवानों की महिमा को पूर्ण रूप से साकार कर दिया, तो मैं अवाक् रह गई। कुमाऊँ के पकवान देखने में जितने ही आडम्बरहीन और अनाकर्षक होते हैं, खाने में उतने ही सुस्वादु और मौलिक।

 

उन सरल पकवानों की भूमिका कितनी दुरूह होती है, यह मैं जानती थी। "अरी, ऐसे कुरकुरे सिंगल तो पहाड़ की बड़ी- बूढ़ियाँ भी नहीं बना पाती होंगी और यह करड़ी ककड़ी कहाँ मिल गई तुझे?" पहाड़ी करड़ी ककड़ी के पीले गंडे-से कलेवर को मैंने ठीक ही पहचाना था।

 

"बाबूजी अल्मोड़े से लाए थे, ठीक उसी दिन मुझे तुम्हारा तार मिला तो मैंने उठाकर फ्रिज में रख दी, सोचा तुम आओगी तो ठेठ पहाड़ी दावत करूँगी, ये रायता राज्यम को भी बहुत पसन्द है, क्यों है ना, राज्यम?"

 

पर उसकी भोजनप्रिया प्रतिवेशिनी को उत्तर देने का अवकाश ही कहाँ था? रायते का डोंगा, लगभग साफ कर, वह अब किसी क्षुधाकातर भिक्षु की भाँति कचैड़ियों के अम्बार पर टूटी।

 

मुझे अपनी लोलुपता को रँगे हाथों पकड़ लिया गया देख, वह बड़ी ही मोहक हँसी से घायल कर कहने लगी, "क्या गजब का खाना बनाती हो नीरा, इसी से आज इतना खा रही हूँ, अपने होटल का खाना तो एकदम चरी-भूसा है इसके सामने!"

 

पर, मैंने प्रायः ही देखा है कि डाइटिंग के चक्कर में बँधी ये छरहरी आधुनिकाएँ दावतों में, स्वेच्छा से ही जिह्ना पर लगे संयम अंकुश को दूर पटक, भूखे कंगलों की भाँति खाने पर टूट पड़ती हैं।

 

"क्यों, तुम्हारे सुख्यात होटलों में तो सुना, चित्र-जगत के सितारों का नित्य मेला ही जुटा रहता है और वहाँ उनके नाम कई कमरे स्थायी रूप से आरक्षित रहते हंै," मेरा स्वर, शायद कुछ अधिक व्यंग्यात्मक हो उठा था।

 

"अजी, उनकी बात छोड़िए," वह अब दो कचैड़ियों को रोल कर आलूदम के एक भीम आलू से पेट फुला, बड़ी नजाकत से कुतरती कहने लगी, "वे क्या वहाँ खाना खाने आते हैं?" फिर वह कुटिल रहस्यमयी कनखियों से मेरे ननदोई को देखकर मुस्कराई, वह मुझे अच्छा नहीं लगा।

 

अपने कहानी- उपन्यासों में, ऐसी असंख्य प्रेमासिक्त कुटिल कनखियों का वर्णन करते-करते अब किसी भी स्वयं-दूती नारी के अन्तर्मन के छायाचित्र को मैं, न चाहने पर भी किसी एक्स-रे प्लेट में उभरे, भग्न अस्थिकोटर-सा स्पष्ट देख लेती हूँ। उस दिन दावत लगभग तीन घंटे चली थी।

 

इस बीच उस चपला सुन्दरी प्रतिवेशिनी की उपस्थिति ने, मुझे अपनी सरल ननद के अदृष्ट के प्रति आशंकित ही किया था। खाने के बाद अचानक याद आया कि मीठी खीर के पश्चात वह अत्यन्त अनिवार्य भारतीय मुखशुद्धि का प्रबन्ध करना भूल गई थी।

 

"हाय राम, मैं तो भूल ही गई थी कि आप पान खाती हैं वैसे तो चैपाटी दूर नहीं है पर..."

 

"अरे, क्या पर पर करता," उसकी मेखलाधारिणी कैबरे नर्तकी-सी प्रतिवेशिनी हँसती उठ गई, "हम अभी लाएगा चलो तो, महेश, निकालो अपना स्कूटर..."


मैं स्तब्ध रह गई। इतनी रात को, क्या यह लड़की अपनी इस अधखुली मैक्सी में, महेश की कमर में हाथ डाल, मेरे लिए पान लेने जाएगी। "नहीं-नहीं मुझे पान की कोई ऐसी आदत नहीं है," मैंने कहा, पर मेरी भोली ननद के चेहरे पर, अपनी सखी के प्रति कृतज्ञता की सहश्र किरणें फूट रही थीं। "प्लीज, राज्यम, पुड़ा-भर लेती आना, फ्रिज में रख दूँगी।"

 

और फिर मेरी भयत्रस्त आँखों के सामने वह अपनी सखी के सहचर की कमर में हाथ डाले हवा-सी निकल गई। बड़ी देर बाद दोनों पान लेकर लौटे तो मैंने कठोर दृष्टि से महेश को घूरा। उसे मैं क्या आज से जानती थी? फटे कोट की बाँह से नाक पोंछता महेश प्रायः ही तो हमारे यहाँ कभी पिता के लिए शिवपुराण माँगने आता और कभी विष्णुपुराण।

 

उसके पिता गोविन्दवल्लभ पांडे हमारे कुल-पुरोहित थे और मेरा ही नहीं, मेरे सब भाई- बहनों का षष्ठी-पूजन उन्होंने किया था। मैं देख रही थी कि महेश मेरी आँखों से आँखंे नहीं मिला पा रहा है।

 

जब नीरा की प्रतिवेशिनी विदा हुई तब वह मेरा बिस्तर लगाने मेरे कमरे में आई। "भाभी, कैसी लगी मेरी सहेली? है ना गजब की लड़की? इसके होटल में कोई भी वी.आई.पी. अतिथि आएँ, इसकी ड्यूटी न हो तब भी इसे ही बुलाया जाता है।"

 

"मैं समझ सकती हूँ, तुम्हारी सखी के व्यक्तित्व की सृष्टि ही विधाता ने पुरुषों का आतिथ्य निभाने के लिए की है," मैंने कहा।

 

पर भोली नीरा ने मेरे उत्तर के व्यंग्य को, एक कान से सुन, दूसरे से निकाल दिया। वह फिर उसी उत्साह से कहने लगी, "है तो मद्रासी, पर रंग हम-तुमसे भी गोरा है।

 

उस पर कपड़े पहनने में तो इसका जवाब नहीं है, भाभी, चाहे कुछ भी न पहने तब भी हीरे-सी दमकती है।"

 

"वह तो देख ही लिया," मेरा रूखा स्वर फिर उस चिकने घड़े पर तेल-सा ढरक गया।

"अच्छी लगी ना तुम्हें?"

"नहीं," न चाहने पर भी मेरे हृदय की बात होंठों पर फिसल गई।

"क्यों?" चादर की सिलवटें ठीक करते उसके दोनों हाथ रुक गए।

 

"इसलिए कि मुझे स्कूल-कॉलेज न जानेवाले लड़के और ससुराल न जानेवाली लड़कियाँ जरा भी अच्छी नहीं लगतीं..." मैंने हँसकर कहा।

"तो क्या हो गया, उसके पति तो यहाँ आते रहते हैं, फिर बेचारी करे भी क्या! सास बेहद तेज है।"

 

मैं तीन दिन तक नीरा की अतिथि बनी रही, और उन दिनों की संक्षिप्त अवधि में ही, उसकी उस चतुरा प्रतिवेशिनी का व्यवहार मुझे स्तब्ध कर गया।

 

नित्य-प्रायः वह महेश के आफिस जाने तक नीरा के यहाँ ही डटी रहती, मैं अपने कमरे से ही देखती, वह महेश के कमरे में बैठी खिलखिला रही है और मेरी मूर्खा ननद चैके में भाड़ झोंक रही है।

 

चाय-नाश्ता वहीं से लेकर वह होटल जाती और पाँच बजे लौटती, फिर अपना ताला खोलने से पहले वह नीरा की ही घंटी बजाती।

 

रात को भी उसका खाना नीरा के यहाँ ही रहता। बड़ी रात तक ताश चलता, गिलासों की खनक से ही मैं जान जाती कि ताशों के जोर-जोर से पटके जाने और असंस्कारी कहकहों के पीछे किसी गहरे जलपान का बहुत बड़ा योगदान है।

 

स्कटर की घर्र-घर्र सुन, मैंने खिड़की से झाँका था, महाराज पृथ्वीराज की मुद्रा में महेश पीठ पीछे लिपटी संयुक्ता को लेकर शायद मेरे ही लिए पान लेने जा रहा था।

 

जी में आया, उसी क्षण अपनी उस सांसारिक बुद्धिहीना ननद को कमरे में बुलाकर झापड़ कस दूँ। पर तीन दिन के लिए जिस स्नेही ननद के गृह में अतिथि बनकर आई थी उसके निर्मल चित्त में सन्देह का व्यर्थ बीजारोपण कर मुझे मिलता भी क्या? हो सकता था वह सन्देह मेरी आवश्यकता से अधिक, संस्कारग्रस्त देहाती चित्त की, कल्पना-मात्र हो!

 

क्या पता? आधुनिक पतिव्रता की मान्यताएँ, अब हमारी मान्यताओं से भिन्न हों, वह पति को ऐसी स्वतन्त्रता स्वेच्छा से ही दे देती हों। फिर भी चलते-चलते मैंने उसे सावधान कर ही दिया था, "देखो नीरा, तुम बहुत भोली हो, फ्लैट का जीवन निश्चय ही कुछ अंशों में मनुष्य के जीवन को अनुभवों से समृद्ध करता है, किन्तु इसके लिए तुम फ्लैटवासियों को अपनी एक बहुमूल्य धरोहर खोनी भी पड़ती है, वह है तुम लोगों की प्राइवेसी!

 

किसी भी परिवार के सुख के लिए इस प्राइवेसी का अक्षुण्ण रहना अनिवार्य होता है। यहाँ तो तुम्हारी एक छींक, खाँसी या डकार तक पर तुम्हारा अधिकार नहीं रहता, उसी क्षण वह दूसरे परिवार की छींक- खाँसी बन जाती है। तुम्हारी सखी से तुम्हारी ऐसी मैत्री देखकर बड़ा आनन्द आया, किन्तु एक अंग्रेजी की कहावत सुनी है? अन्तरंगता घृणा की जननी होती है, इसे मत भूलना, नीरा!"

 

"हाय भाभी, तुम्हें क्या लगता है कि मैं किसी से लड़ूँगी?"

मैं फिर कह ही क्या सकती थी?

 

मैं जब रात की गाड़ी से चलने लगी तब नीरा की प्रतिवेशिनी फिर मेरे लिए स्कूटर भगाती पान ले आई थी। मैंने पुड़ा बटुए में डाल लिया और जैसे ही स्टेशन पीछे छूटा, मैंने बँधा पुड़ा खिड़की से बाहर फेंक दिया। फिर एक वर्ष तक मुझे नीरा की कोई खबर नहीं मिली।

 

पिछली बार एक शादी में पहाड़ गई तब उसकी माँ मिल गई। कभी उनकी गाई घोड़ी-बन्ना के बिना कोई भी विवाह-उत्सव सम्पन्न नहीं होता था। उस दिन एक निर्जन कोने में ऐसी बैठी थीं कि पहले मैं उन्हें देख भी नहीं पाई। नन्हे-से घूँघट की यवनिका में उनका उतरा, कुम्हलाया चेहरा देख मैं स्तब्ध रह गई।

 

क्या हो गया था मेरी इस आनन्दी सास को? अभी दो वर्ष पूर्व नीरा के भाई की शादी में उन्होंने मेरे ससुर के सूट-बूट में लैस हो, कभी गोरे साहब और कभी पहाड़ की सरल ब्राह्मणी का अपूर्व अभिनय कर हमें हँसा-हँसाकर मार दिया था।

 

किसी अनुभवी वैट्रोवयुलिस्ट की गुड़िया की भाँति वह कभी मोटी मर्दानी आवाज़ में गोरे साहब का प्रणय निवेदन करतीं, फिर तत्काल कंठ का पैंतरा बदल जनानी, काँपती आवाज़ में थरथराकर गातीं, ‘हाथ जोडूँ गोरा जी, मैं तो बीबी बामणी।

 

मैंने उन्हें देखते ही हँसकर ढोलक उनकी ओर लुढ़का दी, "लो चाची, ये क्या मुँह लटकाए बैठी हो? हो जाए एक कड़कती-सी घोड़ी!"

 

दुर्बल हाथों से ढोलक को मेरी ही ओर वापसी ढलान में लुढ़का उन्होंने अपनी डबडबाई आँखें फेर लीं। मेरी देवरानी ने मुझे चिकोटी काटी, "क्या कर रही हो, दीदी, आज पहली बार तो औरतों में आकर बैठी हैं, नहीं तो अम्माजी ने तो पलँग ही पकड़ ली थी।"

"क्यों?" मैंने फुसफुसाकर पूछा।

 

"सुना नहीं तुमने? अभागा महेश नाक कटाकर अपनी पड़ोसिन के साथ, नौकरी छोड़-छाड़, मद्रास भाग गया है। नीरा का तार पाकर बाबूजी उसे यहाँ लिवा लाए। पर लाने से क्या होता है? दिन-रात कमरे में गुमसुम पड़ी रहती है। कई डॉक्टरों को दिखा चुके हैं। कहते हैं दिमाग का मर्ज है, किसी दिमाग के डॉक्टर को दिखाइए। हृदय पर कोई भारी आघात लगा है।" 


इससे बड़ा आघात किसी भी नारी को और लग भी क्या सकता था? मैं उस आनन्द-उत्सव के बीच सिर लटकाए बैठी चाची के उस वेदनाविधुर चेहरे की ओर दूसरी बार आँख उठाकर नहीं देख पाई। चलने लगी तो देवरानी चाँदी की तश्तरी में पान ले आई, "लो भाभी, मैं तो भूल ही गई थी कि तुम पान खाती हो।" ठीक एक वर्ष पहले ये ही शब्द नीरा ने भी कहे थे।

 

"नहीं, मैं अब पान नहीं खाती," कह मैंने तश्तरी खिसका दी और उठ गई। वैसे तो नीरा की सौत मेरे लिए पान लेने न जाती, तब भी होनी होकर ही रहती, पर मुझे बार-बार यही लगता है कि वह पृथ्वीराज-संयुक्ता की जोड़ी यदि आधी-आधी रात को मेरे लिए पान लेने न जाती तो शायद नीरा का उतना बड़ा सर्वनाश भी नहीं होता।

The End

  









Tuesday 7 June 2022

‘Lust for life’ विन्सेंट वैन गोघ की जीवनी:- विनसेंट वान गफ ने जिस पिस्तौल से खुदकुशी की थी, वह सवा करोड़ रुपए में नीलाम हुई।अपनी मौत के बाद विख्यात होने वाले डच चित्रकार विनसेंट वान गफ

 Lust for life विन्सेंट वैन गोघ की जीवनी:-- इसी जीवन पर लिखा इरविंग स्टोन का उपन्यास लस्ट फॉर लाइफ दुनिया के चर्चित उपन्यासों में से है.


भविष्य के महान कलाकार का जन्म 30 मार्च, 1853 को ज़ुंडर्ट शहर में हुआ था, जो हॉलैंड में स्थित है। गफ ने 1890 में पेट में गोली मारकर खुदकुशी कर ली थी।


विन्सेंट वैन गोघ का यह जीवन छोटा, लेकिन विराट है.

20वीं सदी की आधुनिक चित्रकला पर वॉन गॉग की कूची की ऐतिहासिक और अमिट छाप है. नीदरलैंड के इस चित्रकार की पेंटिंग जितनी क्रांतिकारी रही उतना ही जीवन भी.

लस्ट फॉर लाइफ की कल्पना के साकार होने और उसके प्रकाशन तक पहुंचने की कथा भी एक व्यथा ही है. एक किताब के इतिहास तक पहुंचने की संघर्ष यात्रा है. वॉन गॉग के विराट जीवन को किताब के पन्नों में समाहित करने की प्रक्रिया आसान नहीं रही है.

 

वह साल 1926 था जब यूनवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया, बर्कले से स्नातक युवक इरविंग स्टोन पेरिस में एक गुमनाम डच पेंटर विसेंट वॉन गॉग की पेंटिंग एग्जीबिशन देखने पहुंचा. स्टोन उस समय नाट्य लेखन की ट्रेनिंग के लिए 15 महीने पेरिस में था.

 

लेकिन जब इस डज पेंटर की पेंटिंग्स देखकर लौटा तो दिलो-दिमाग से वॉन गॉग को निकाल नहीं पाया. तस्वीरों के रंग भीतर चढ़ चुके थे और चित्रकार का जीवन आत्मा को उद्वेलित करने लगा.

बस यहीं से शुरू हुई लस्ट फॉर लाइफ की यात्रा. इरविंग ने अमेरिका में विेसेंट के जीवन को दुनिया के सामने लाने की ठानी. लेकिन यह दुर्गम था. इरविंग के लिए यह महाजीवन विश्व मानचित्र पर उकेरना आसान नहीं था.

 

पैसों की तंगी, आर्थिक हालात, भरोसा इरविंग के सामने चुनौती थे. उन्होंने लगातर छह अपराध कथाएं लिखीं और पांच कहानियां बेचकर विसेंट के जीवन पर यूरोप में रहकर छह माह शोध किया. लस्ट फॉर लाइफ को इरविंग अपने हद्य से सींचा. पांडुलिपी तैयार थी लेकिन प्रकाशक नहीं.

 

यह विराट जीवन यात्रा शुरुआत में कठिनाइयों भरी रही.

इरविंग स्टोन खुद विन्सेंट के जाने के तेरह साल बाद पैदा हुए थे और जब उन्होंने इस किताब को लिखना शुरू किया था, विन्सेंट को मरे करीब चालीस साल हो चुके थे.

 

यह एक सच्चाई है कि किस्सों और अफवाहों की भूखी दुनिया में किसी भी मृत व्यक्ति को लेकर इतने अरसे में बहुत सारे सच-झूठ स्थापित हो चुके होते हैं. जाहिर है विन्सेंट के जीवन में घटी एक-एक घटना के दर्जनों संस्करण तब तक बन चुके होंगे.

 

सत्ताईस-अट्ठाईस साल के युवा इरविंग स्टोन ने कुछ साल यूरोप में बिताने और शोध कर चुकने के बाद ही विन्सेंट की जीवनी लिखने का मन बनाया था.

 

कच्चे माल के सबसे विश्वस्त स्रोत के तौर पर उन्होंने विन्सेंट और उसके भाई थियो के बीच चले पत्रव्यवहार पर निर्भर रहना तय किया था. इसके अलावा विन्सेंट से कैसा भी सम्बन्ध रख चुके जितने लोगों से मुलाक़ात या पत्रव्यवहार संभव था, वह किया गया.

 

अपने शोध के दौरान इरविंग स्टोन ने सुन रखा था कि अपनी मौत से दो साल पहले एक अजीब भावनात्मक क्षण में विन्सेंट ने अपना कान काट कर एक वेश्या को तोहफे में दे दिया था.

 

दिसंबर 1888 में घटी इस घटना के गवाह डाक्टर फीलिक्स रे ने 1930 में इरविंग स्टोन को बाकायदा एक चिठ्ठी लिख कर इस घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि उन्हें विन्सेंट का पूरा कान काटना पड़ा था. इसके बाद ही स्टोन ने इस घटना को किताब में जगह दी.

 

1931 में किताब पूरी हुई और सात प्रकाशकों ने इसे छपने लायक न मानते हुए इसकी पांडुलिपि को वापस किया.

 

अंततः तीन साल बाद किताब छपी और उसके बाद जो घटा वह किताबों की दुनिया के इतिहास का हिस्सा बन चुका है.

 

पिछले सौ से भी अधिक सालों में विन्सेंट वान गॉग दुनिया का सबसे महबूब कलाकार बन चुका है. उसे लेकर गीत रचे गए हैं, कोई पचास फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्रीज़ बन चुकी हैं, सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी हैं और असंख्य शोध लगातार हो रहे हैं.

 

फिर भी ‘लस्ट फॉर लाइफ में कुछ तो है जो यह अपने प्रकाशन के लगभग नब्बे सालों बाद भी दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने और पढ़ी जाने वाली किताबों की सूची में अपनी जगह बनाए रखती है.

विन्सेंट वैन गॉग सबसे प्रसिद्ध डच चित्रकार हैं जिन्होंने हमेशा के लिए 20 वीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में से एक के रूप में विश्व कला के इतिहास में प्रवेश किया।

 

उनके द्वारा बनाई जाने वाली पेंटिंग्स अपने में ढेरों भावनाएं समाए होती थी. वह हर किसी के दिल को छूती थी. शायद यही कारण था कि उनके हुनर को विलक्षण श्रेणी में रखा गया.

 

हालांकि, इस विलक्षण कलाकार का व्यक्तिगत जीवन कुछ खासा अच्छा नहीं था. वह पूरी जिंदगी अपने मानसिक रोग से लड़ते रहे और उनकी आथिर्क स्थिति हमेशा उनके संयम का इम्तिहान लेती रही.

 

इन्हीं हालातों ने उनके हुनर को और तराशा और वह विश्व विख्यात हुए.

बावजूद इसके यह हैरान कर देने वाला तथ्य है कि इस महान कलाकार के हुनर को उनके जीते जी वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था!

आज भले ही उनकी मौत के बाद उनकी बनाई तस्वीरें मिलियन डॉलर में बिकती हैं. मगर जीते जी यह कलाकार पैसों की तंगी से जूझता रहा. शायद यही कारण था कि मजह 37 साल की आयु में वैन गोघ ने आत्महत्या कर हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं थीं.

 

आईए जानते हैं कैसे शुरु हआ था इस महान कलाकार का सफर और आखिर वह कौन से हालात थे, जिन्होंने वैन को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया-

 

मां से विरासत में मिला चित्रकला का गुर

विन्सेंट वैन गोघ का जन्म 30 मार्च 1853 को नीदरलैण्ड के ग्रूट क्षेत्र में हुआ था. उनके पिता थियोडोरस वैन गोघ ओस्टेरे शहर के मंत्री थे और मां एना कोरनेलिआ एक कलाकार थीं.

 

वह तरह-तरह की चित्रकला करती थीं. मतलब आप समझ सकते हैं कि कैसे वैन में चित्रकला का इतना अद्भुत हुनर आया होगा. वैन गोघ के दो छोटे भाई और दो बहने भी थीं.

 

परिवार बड़ा होने के कारण घर में आर्थिक तंगी की स्थिति अक्सर रहती थी.इसी के चलते 15 साल की उम्र में वैन गोघ को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी. स्कूल छोड़ने के बाद वैन ने अपने अंकल के आर्ट शॉप पर डीलर की नौकरी करनी शुरु कर दी.

 

इस दौरान वैन का झुकाव न सिर्फ चित्रकला की और बढ़ा, बल्कि उन्होंने अपनी देशी भाषा डच के अलावा जर्मनी, फ्रैंच और इंग्लिश भाषा पर भी अच्छी पकड़ बना ली.

 

करीब 20 साल बाद 1873 में वैन को लंडन में भेज दिया गया. चित्रकला के प्रति बढ़ता प्यार लगातार उन्हें अपनी ओर खींच रहा था. यही वजह थी कि वह अपने खाली समय में लंदन की अन्य आर्ट गैलरी में जाकर अन्य कलाकारों की कला को निहारते रहते थे.

 

हालांकि, किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था. वैन को चर्च से निकाल दिया गया.

अपने जीवन से हताश वैन ने अब मन बना लिया कि वह अपनी भावनाओं को कैनवस पर पेंटिंग के रुप में उतारेंगे और अपनी कला के जरिए ही लोगों तक अपनी बात पहुचाएंगे. वैन इल नए रास्ते पर निकल तो पड़े थे, लेकिन यह इतना आसाना नहीं था.

 

लोगों द्वारा उनकी पेंटिंग्स को लेकर दी जाने वाली प्रतिक्रिया हमेशा उन्हें मायूस कर देती थी. उनकी अधिकतर पेंटिंग्स को बेकार कह कर नकार दिया जाता था.

 

वैन ने कभी हार नहीं मानी

बल्कि खुद को बेहतर कलाकार बनाने के लिए 1881 में उन्होंने ब्रुसेल्स अकादमी से वाटर कलर पेंटिंग करने की कला सीखी.

अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वैन ने डच परिदृश्य चित्रकार एंटोन माउवे के साथ काम करना शुरु किया. उनसे परिदृश्य चित्रकला के गुर सीखने के बाद आखिरकार 1885 में वैन ने एक पेंटिंग बनाई, जिसका नाम पोटैटो इटरस था.

 

इस पेंटिंग को उनकी मौत के बाद बहुत सराहा गया था और इसे एक नायाब पेंटिंग का खिताब दिया गया. इसके बाद वैन 1886 में पेरिस अपने छोटे भाई थीओ के पास आ गए और उसके साथ ही रहने लगे. पेरिस आने के बाद वैन ने अपने काम को और बेहतर करने के लिए अलग-अलग कलाकारों द्वारा लिखी गई किताबों से ज्ञान लेना शुरु कर दिया.

 

इतना ही नहीं वह अक्सर दूसरे चित्रकारों से मिलते थे और उनसे उनके काम के बारे में बात करते थे. वैन अपना अधिकतर समय अपनी पेंटिंग्स बनाने में ही बिताते थे.

वह अलग-अलग तरह की चित्रकला करते थे, जिनमें ऑयल पेंटिंग, ड्राइंग, स्केच और पोर्ट्रेट इत्यादि शामिल थे.

 

मानसिक तनाव बना मौत की वजह!

यकीनन अपने जीवन में तरह-तरह के हालातों का सामना कर वैन गोघ एक परिपक्व कलाकार बने. मगर उन सब चीजों ने कहीं न कहीं वैन को मानसिक तौर पर प्रभावित किया.

 

नतीजतन अपनी उम्र के 37वें साल तक आते-आते वह मानसिक रुप से बीमार रहने लग गए!

कई बार वह अपने होश खोकर पेंट को खाने लग जाते थे. वैन की दिमागी हालत को देखते हुए उनके छोटे भाई थियो और थियो की पत्नी वैन के साथ रहने लगे.

 

दिन प्रतिदिन बिगड़ती वैन की हालत अब थियो के लिए भी चिंता का विषय बन गई थी, जिसे देखते हुए उन्होंने वैन को मानसिक रोगियों के अस्पताल में दाखिल करवा दिया. अपनी खराब मानसिक स्थिति के बावजूद चित्रकला के प्रति वैन की चाहत कम नहीं हुई और उन्होंने अस्पताल के बाग में जाकर फिर से अपनी पेंटिंग बनानी शुरु कर दी.

 

इस दौरान उन्होंने अपने जीवन की प्रसिद्ध पेंटिंग में से दो ‘लरिसिस और ‘द स्टैरी नाइटबनाई.

 

मगर जैसे-जैसे समय बीत रहा था वैन की समस्या गंभीर होती जा रही थी. वह लगातार तनाव ग्रस्त रहने लगे थे. वह छोटी छोटी बातों पर इतना परेशान हो जाते थे कि उनकी तबियत बिगड़ जाती थी.

 

आखिरकार वैन के तनाव की सीमा पार हुई और 27 जुलाई 1890 को सुबह के समय पेंटिंग बनाते हुए अचानक वैन ने पिस्टल उठाई और खुद ही अपनी छाती में गोली मार ली!

 

वैन को तुरंत अस्पताल ले जाया गयालेकिन कुछ दिन बाद वैन की मौत हो गई.वैन की मौत का सबसे बड़ा धक्का उनके भाई थियो को लगा थाक्योंकि थियो सिर्फ वैन के भाई ही नहींबल्कि व्यापारिक साथी भी थेवैन की बनाई पेंटिंग को आगे बेचते थे.

इस तरह दुनिया का एक बड़ा पेंटर खुद अपनी मौत का ज़िम्मेदार बन गया.

डच चित्रकार विनसेंट वान गफ ने जिस पिस्तौल से खुदकुशी की थी, वह सवा करोड़ रुपए में नीलाम हुई।

पेरिस में इसकी नीलामी की गई। हालांकि, आयोजकों ने उस व्यक्ति के नाम के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है, जिसने पिस्तौल खरीदी। उनका कहना है कि कला की दुनिया में यह सबसे चर्चित हथियार है।

हालांकि, आयोजक इस बात की पुष्टि नहीं कर सके कि इसी पिस्तौल से गफ ने खुदकुशी की थी। उनका कहना है कि गफ की मौत के लगभग 75 साल बाद यह हथियार उसी जगह से मिला था, जहां गफ का शव पाया गया।

 

पिस्तौल का कैलिबर भी गफ के पेट में मिली गोली से मेल खाता है। वैज्ञानिक जांच से भी पता चला कि 1890 के बाद से पिस्तौल जमीन में दबी हुई थी।

 

पेट में गोली मारकर खुदकुशी की थी

गफ ने 1890 में पेट में गोली मारकर खुदकुशी कर ली थी। 1965 में 7 एमएम की यह पिस्तौल एक किसान को ऑवर्स-सुर-ओइस गांव के उस खेत में से मिली थी, जहां गफ का शव पाया गया था। उसने वहां के एक होटल के मालिक को सौंप दिया। तब से यह हथियार होटल मालिक के परिजन के पास था। 2016 में इसे गफ के म्यूजियम में रखा गया।

 

मरने के बाद मिली असल सफलता!

वैन ने अपने पूरे जीवन में करीब 860 ऑयल पेंटिंग्स, 1300 से अधिक वाटर कलर पेंटिंग और ढेरों स्कैच बनाएं. उनकी कुछ पेंटिंग की कीमत मिलियन डॉलर में है, जिन्हें कला के दीवाने खरीदने के लिए उत्साहित रहते हैं.

 

आज चाहे वैन दुनिया को अलविदा कह गए हैं, लेकिन उनकी विरासत को आज भी बड़े प्यार और आदर सम्मान के साथ 1973 में उनके नाम पर खोले गए संग्रहालय में संजो कर रखा गया है.

 

यह संग्रहालय एम्सटरडैम में है, जहां वैन गोघ की बनाई गई 200 पेंटिंग्स, 500 ड्राविंग और 750 लिखित दस्तावेज संभाल के रखे गए हैं.

 

इनमें वह चिट्ठियां भी शामिल हैं, जिन्हें वैन ने अपने भाई थियो को लिखा था.आज भी हजारों लोग इस संग्रहालय में जाकर वैन की अद्भुत कला को निहारते हैं और उस अनोखे कलाकार की सोच को जानने की कोशिश करते हैं.

 

विन्सेंट आज भले ही इस दुनिया में नहीं हैं मगर वह जिंदा हैं अपनी बनाई पेंटिंग्स में. आज भी लोग उनकी पेंटिंग को देख कर उसके भाव को समझने की कोशिश करते हैं.

 

माना जाता है कि आज से कई सालों बादजब भी इतिहास के बड़े पेंटरों का नाम लिया जाएगा तो उसमें विन्सेंट का नाम जरूर आएगा!

 

विन्सेन्ट वैन गॉग के जीवन में अकेलेपन की विशेषता थी। उसे चर्च द्वारा खारिज कर दिया गया था और प्यार की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। परिवार और दोस्त उसके खिलाफ हो गए जब तक कि उसने आखिरकार आत्महत्या नहीं की।

विन्सेन्ट वैन गॉग का जन्म 1853 में एक पादरी के यहाँ हुआ था। उन्होंने जल्दी स्कूल छोड़ दिया और अपने परिवार द्वारा एक कला की दुकान के लिए काम करने के लिए मजबूर हो गए। नतीजतन, वह लंदन में समाप्त हो गया।

 

वहां उसे अपने पहले प्यार, उसकी मकान मालकिन की बेटी से मिला, लेकिन उसने उसे अस्वीकार कर दिया। टूटे हुए दिल के साथ, वैन गॉग 1875 में पेरिस चले गए। बाद के वर्षों में उन्होंने खुद को धर्म के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन कई निराशाओं के बाद आखिरकार वे ईसाई धर्म से दूर हो गए।

 

केवल 27 साल की उम्र में ही वैन गॉग ने पेंटर बनने का फैसला कर लिया था। उन्हें उनके भाई थियो, एक कला डीलर द्वारा वित्तपोषित किया गया था, जिसे विंसेंट ने पैसे के बदले में अपनी पेंटिंग भेजी थी।

 

वान गाग कलाकारों से मिलने के लिए ब्रसेल्स चले गए, लेकिन लंबे समय में वह न तो खुश थे और न ही सफल, इसलिए वह अपने माता-पिता के साथ वापस चले गए।

 

घर पर, वह अपने एक चचेरे भाई के साथ प्यार में पड़ गया, लेकिन उसका प्यार अनुत्तरित रहा और एक पारिवारिक विवाद का कारण बना, जिसके परिणामस्वरूप वह फिर से बाहर चला गया।

 

नीदरलैंड में कुछ वर्षों के बाद, वैन गॉग 1886 में पेरिस में अपने भाई थियो में चले गए। इस दौरान उन्होंने प्रभाववाद की ओर रुख किया। उन्होंने हल्के रंगों के साथ प्रयोग किया और पेंटिंग की विभिन्न तकनीकों को आजमाना शुरू किया। पेरिस में दो साल के बाद, वैन गॉग को थियो के लिए काम करने के लिए मार्सिले में जाना था, लेकिन वह आर्ल्स में फंस गया।

 

वहां वैन गॉग "एटलियर्स डेस स्यूडेंस" बनाना चाहते थे, एक ऐसी जगह जहां कलाकार रह सकते हैं और साथ काम कर सकते हैं। केवल पॉल गाउगिन ने उनके निमंत्रण को स्वीकार किया। केवल दो महीनों के बाद, दोनों एक तर्क में एक साथ रहते थे, जिसके परिणामस्वरूप वैन गॉग ने अपने अधिकांश बाएं कान काट दिए। चोट इतनी गंभीर थी कि अगले दिन खून की कमी के कारण उन्हें बाहर निकाल दिया गया।

 

इसके बाद, वैन गॉग को स्पष्ट रूप से एक मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन वहां भी उनकी मदद नहीं की जा सकी। कुछ महीनों के बाद, वैन गॉग ने आत्महत्या का प्रयास किया जब उसने विषाक्त पेंट को निगलने की कोशिश की।

 

इस समय के दौरान, थियो ने वान गाग के कुछ चित्रों को एक प्रसिद्ध कला प्रदर्शनी में प्रस्तुत किया। प्रतिक्रियाएं बेहद सकारात्मक रही हैं। वान गाग को अपने जीवन में पहली बार कलात्मक पहचान मिली। लेकिन सफलता ने उसे खुश करने के बजाय डांट दिया।

 

उन्होंने मानसिक अस्पताल को छोड़ दिया और ऑवर्स में चले गए। थियो में दो छोटी यात्राओं के बाद, जिनमें से प्रत्येक एक विवाद में समाप्त हो गया, और एक और उसके डॉक्टर की बेटी के साथ असफल प्रेम संबंध थे, वैन गॉग ने 27 जुलाई, 1890 को पिस्तौल से खुद को सीने में गोली मार ली।

 

गंभीर चोट के बावजूद, वह अपनी सराय लौट आया और केवल दो दिन बाद अपने भाई की उपस्थिति में उसकी मृत्यु हो गई। वैन गोघ ने खुद को क्यों मारा, अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है।

मौत की मंशा के बारे में कई अटकलें हैं। कुछ लोग दावा करते हैं कि वह नहीं चाहता था कि थियो, जिसे अपने परिवार का ख्याल रखना है, एक बोझ बनना है, और यहां तक कि यह भी उम्मीद है कि उनकी मृत्यु से उनके चित्रों की कीमत बढ़ जाएगी। अन्य सिद्धांतों का कहना है कि हत्या करने के लिए कोई वास्तविक इरादे के साथ मदद के लिए प्रयास सिर्फ एक रोना था।

 

कलाकार का निजी जीवन

वैन गॉग को कभी भी वास्तविक बड़ा प्यार नहीं था। वह अक्सर महिलाओं से प्यार करता था और जल्दी ही उन्हें भूल जाता था। लेकिन ज्यादातर उन्हें हमेशा एकतरफा प्यार का सामना करना पड़ा। उनकी उपस्थिति ने विपरीत लिंग के प्रतिनिधियों के बीच प्रशंसा नहीं जगाई। विन्सेंट अक्सर यौन असंतोष से पीड़ित होता था, जिससे उसकी मानसिक स्थिति प्रभावित होती थी।

 

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, वान गाग अक्सर वेश्याओं का दौरा करते थे, और इसलिए विभिन्न यौन रोगों को उठाते थे, जिससे कलाकार का पहले से ही खराब स्वास्थ्य खराब हो गया था।

 

समाधि-लेख- वान गाग को समर्पित आर्सेनी टारकोवस्की की एक कविता से

मैं अपने लिए खड़ा हूँ, और मेरे ऊपर मंडरा रहा हूँ

सरू एक लौ की तरह घूमता रहा।

नींबू क्रोन और गहरा नीला

उनके बिना मैं खुद नहीं बन जाता;

मैं अपने स्वयं के भाषण को अपमानित करता

जब मैं किसी और का बोझ अपने कंधों पर फेंक देता।

और एक परी की यह अशिष्टता, किसके साथ

वह मेरी रेखा को अपना स्मियर बनाता है,

आपको उनके शिष्य के माध्यम से भी ले जाता है

जहां वान गाग सांस लेते हैं।

The End

Disclaimer–Blogger has posted this short write up ‘Lust for life’ विन्सेंट वैन गोघ की जीवनी:- अपनी मौत के बाद विख्यात होने वाले डच चित्रकार विनसेंट वान गफ ने जिस पिस्तौल से खुदकुशी की थीवह सवा करोड़ रुपए में नीलाम हुई”। with help of materials and images available on net. Images on this blog are posted to make the text interesting.The materials and images are the copy right of original writers. The copyright of these materials are with the respective owners.Blogger is thankful to original writers.