अवध की संस्कृति का इतिहास शुजाउद्दौला से और उसके भी अंतिम काल से प्रारंभ होता है । यानी उस वक्त से जबकि वह बक्सर की लड़ाई में हारकर और अंग्रेजों से नया क़रार करके खामोश बैठे और सैनिक गतिविधि की ओर से उपेक्षा बरती गयी । उस ज़माने में उनके बावरचीखाने के मुंतज़िम हसन रजा खां उर्फ मिर्जा हसन थे जो दिल्ली से आये हुए थे और एक प्रति ष्ठित घराने से संबंध रखते थे ।
नवाब शुजाउद्दौला का यह नियम था कि महल के अंदर अपनी बीवी बहू बेगम साहिबा के साथ खाना खाते ।
मेहरियां ख्वानों को बेगम साहिबा के सामने लेजाकर खोलती और दस्तरख्वान पर खाना चुना जाता । नवाब और बेगम के लिए हर रोज़ छह बावरचीखानों से खाना पाया करता: पहले तो, ऊपर लिखे नवाबी बावरचीखाने से, जिसके प्रबंधक मिर्जा हसन थे, मौलवी फज्ले अजीम खासे के रुवान खुद लेकर ड्योढ़ी में हाज़िर होने ।
उस बावरचीखाने में दो हज़ार रुपये रोज़ की पकाई होती जिसका यह मतलब हुअा कि बावरचियों और दीगर नौकरों की तनख्वाहों के अलावा माठ हज़ार रुपये माहवार या सात लाख बीस हजार रुपये सालाना की रक़म सिर्फ खाने -पीने की चीजों और ग़िजात्रों की कीमत में खर्च होती थी; दूसरे, मरकारी छोटे बावरचीखाने से जिसके प्रबंधक पहले तो मिर्जा हसन अली, तोशाखाने के प्रबंधक, थे लेकिन बाद में अंबर अली खां ख्वाजासरा के सुपुर्द हो गया था ।
उसमें तीन सौ रुपये रोज़ यानी एक लाख आठ हजार रुपये साल खानों की तैयारी मे खर्च होते थे; तीसरे, खुद बहू बेगम साहिबा के महल के अंदर का बावरचीखाना जिसका प्रबंधक बहार अली खां ख्वाजासरा था; चौथे, नवाब, बेगम साहिबा यानी शुजाउद्दौला की वाल्दा के बावरची खाने से; पांचवे, मिर्जा अली खां के बावरचीखाने से और छठे, नवाब सालारजंग के बावरचीखाने से।
नवाब शुजाऊद्दौला के बाद दरबार फैजाबाद से लखनऊ चला गया और नवाब आसफ़उद्दौला ने मिर्जा हसन रज़ा खां को सरफ़राजउद्दौला का खिताब देकर वजारत का खिलात दिया तो बावरचीखाने के प्रबंधक के पद को अपनी शान के खिलाफ़ समझकर उन्होंने मौलवी फ़ज़्ले अज़ीम साहब को सरकारी बावरचीखाने का स्थायी प्रबंधक नियुक्त कर दिया ।
मगर मौलवी फ़ज़्ले अज़ीम साइब पहले जिस तरह खासे के ख्वान लेकर बहू बेगम साहिबा की ड्योढ़ी पर हाज़िर हुआ करते थे, उसी तरह अब लखनऊ में भी नवाब आसफ़उद्दौला बहादुर की ड्योढ़ी पर हाज़िर होने लगे और अपने दूसरे रिश्तेदारों को भी बुला लिया और अपने काम में शरीफ कर लिया ।
आसफउद्दौला बहादुर के बाद वजीर अली खां के अल्प कालीन शासन काल में तफज्जुल हुसैन खां वज़ीर हुए तो उन्होंने उन सफ़ीपुर के भाइयों को हटाकर अपने लाये हुए गुलाम मुहम्मद उर्फ बड़े मिर्जा को बावरचीखाने का प्रबंधक नियुक्त कर दिया ।
इन घटनाओं से मालूम होता है कि लखनऊ को अपने प्रारंभिक काल ही में ऐसे बड़े- बड़े ज़बरदस्त और शौक़ीनी के बावरचीखाने मिले जिनका लाज़िमी नतीजा यह था कि बहुत ही बढ़िया किस्म के बावरची तैयार हों ।
खानों की तैयारी में विविधता बढ़े, नये - नये खाने ईजाद किये जायें और जो भी प्रवीण रसोइया दिल्ली और दूसरे स्थानों से आये वह यहां की खराद पर चढ़कर अपने हुनर में खास किस्म का कमाल और अपने तैयार किये हुए खानों में नयी तरह की नफ़ासत और खास किस्म का स्वाद पैदा करे ।
Abdul Haleem Sharar (1860-1926) |
लोग कहते हैं कि खुद हसन रजा खां सरफराजउद्दौला का दस्तरख्वान बहुत विशाल था । खाना खिलाने के वह बहुत शौक़ीन थे और जब उनकी यह रुचि देखकर सबसे बड़ा सरकारी बावरचीखाना उनके सुपुर्द हो गया तो उन्हें अपने हुनर में नवीनता पैदा करने और आविष्कार करने का कहां तक मौक़ा न मिला होगा?
और इसीका नतीजा यह भी था कि यों तो इस दुनिया में खाने के शौक़ीन सैकड़ों रईस पैदा हो गये, मगर नवाब सालारजंग के खानदान को आखिर तक नेमतखाने की ईजाद और तरक्की में खास शोहरत हुई ।
जानकार
सूत्रों से मालूम हुआ है कि खुद नवाब सालारजंग का बावरची जो सिर्फ उनके लिए खाना तैयार किया करता था, बारह सौ रुपये माहवार तनख्वाह पाता था जो तनख्वाह आज भी किसी बड़े- से - बड़े हिंदुस्तानी दरबार में किसी बावरची को नहीं मिलती ।
खास उनके लिए वह ऐसा भारी पुलाव पकाता कि सिवाय उनके और कोई उसे हजम न कर सकता था । यहां तक कि एक दिन नवाब शुजाउद्दौला ने उनसे कहा, " तुमने कभी हमें वह पुलाव न खिलाया जो खास अपने लिए पकवाया करते हो?”
अर्ज किया, “बेहतर है, आज हाज़िर करूंगा । “बावरची से कहा, "जितना पुलाव रोज़ पकाते हो, अाज उसका दूना पकायो । “उसने कहा, " मैं तो आपके खासे के लिए नौकर हं ,किसी और के लिए नहीं पका सकता । । " कहा, " ये नवाब साहब ने फ़रमाइश की है ।
मुमकिन
है
मैं
उनके
लिए
न
ले
जाऊं?
“उसने
कहा,
"कोई
हो,
मैं
तो
और
किसी
के
लिए
नहीं
पका
सकता
।
" जब
सालारजंग
ने
ज्यादा
जोर
दिया
तो
उसने
कहा,
" बेहतर,
मगर
शर्त
यह
है
कि
हुजूर
खुद
लेजाकर
अपने
सामने
खिलायें
और
कुछ
लुक्मों
(ग्रास)
से
ज्यादा
न
खाने
दें
और
एहतियातन
प्राब
दारखाने
(पानी
के
घड़ों
आदि)
का
इंतजाम
भी
करके
अपने
साथ
ले
जायें।
" सालारजंग
ने
ये
शर्ते
मान
लीं।
आखिर बावरची ने पुलाव तैयार किया और सालारजंग खुद लेकर पहुंचे और दस्तरख्वान पर पेश किया । शुजाउद्दौला ने खाते ही बहुत तारीफ़ की और बड़े शौक़ से खाने लगे, मगर दो - चार ही लुक्मे खाये थे कि सालारजंग ने बढ़कर हाथ पकड़ लिया और कहा,
“बस इससे ज़्यादा न खाइये । " शुजाउद्दौला ने हैरत से उनकी सूरत देखी और कहा, " इन चार लुक्मों में क्या होता है? " और यह कहकर ज़बरदस्ती दो -एक लुक्मे और खा ही लिये । अब प्यास लगी । सालारजंग ने अपने प्राबदारखाने से जो साथ गया था पानी मंगवा -मंगवाकर पिलाना शुरू किया । बड़ी देर के बाद खुदा खुदा करके प्यास बुझी और सालारजंग अपने घर आये ।
दूसरा कमाल यह था कि किसी एक चीज़ को अनेक प्रकार से दिखाकर ऐसा बना दिया जाये कि दस्तरख्वान पर ज़ाहिर में तो यह नज़र आये कि बीसियों किस्म के खाने मौजूद हैं मगर चखिये और गौर दीजिये तो वे सब एक ही चीज़ हैं ।
मसलन विश्वस्तसूत्रों से सुना जाता है कि दिल्ली के शाह जादों में से मिर्जा प्रासमान क़द्र,मिर्जा खुर्रम बख्त के बेटे , जो लखनऊ में आकर शीया हुए और चंद रोज़ यहां ठहरने के बाद बनारस में जाकर रहने लगे , लखनऊ में अपने प्रवास के समय वाजिद अली शाह ने उनकी दावत की तो दस्तरख्वान पर एक मुरब्बा लाकर रखा गया जो देखने में बहुत ही नफ़ीस , स्वादिष्ट और अच्छा मालूम होता था ।
मिर्जा आसमान क़द्र ने उसका प्रास खाया तो चकराये इसलिए कि वह मुरब्बा न था बल्कि गोश्त का नमकीन कोरमा था जिसकी सूरत रकाबदार (बेरा) ने बिल्कुल मुरब्बे की - सी बना दी थी ।
यों घोखा खा जाने पर उन्हें शर्मिदगी हुई और वाजिद अली शाह खुश हुए कि दिल्ली के एक प्रतिष्ठित राजकुमार को धोखा दे दिया । दो - चार रोज़ बाद मिर्जा प्रासमान क़द्र ने वाजिद अली शाह की दावत की और वाजिद अली शाह यह खयाल करके आये थे कि मुझे ज़रूर घोखा दिया जायेगा ।
मगर उस होशियारी पर भी धोखा खा गये इसलिए कि प्रास मान क़द्र के बावरची शेख हुसैन अली ने यह कमाल किया था कि गो दस्तर रुवान पर सैकड़ों किस्म के खाने चुने हुए थे : पुलाव था , जर्दा था , बिर यानी थी , कोरमा था , कबाब थे, तरकारियां थीं , चटनियां थीं , अचार थे, रोटियां थीं, परांठे थे , शीरमालें थीं , ग़रज़ कि हर नेमत मौजूद थी ।
मगर जिस चीज़ को चखा शकर की बनी हुई थी - सालन था तो शकर का, चावल थे तो शकर के, अचार था तो शकर का और रोटियां थीं तो शकर की, यहां तक कि कहते हैं तमाम बर्तन, दस्तरख्वान, और सिलफ़ची, लोटा तक शकर के थे । वाजिद अली शाह घबरा- घबराकर एक -एक चीज़ पर हाथ डालते थे और घोखे पर धोखा खाते थे ।
हम बयान कर आये हैं कि नवाब शुजाउद्दौला बहादुर के खासे पर छह जगहों से खाने के स्वान पाया करते थे । मगर यह उन्हीं तक सीमित न था, उनके बाद भी यह तरीका जारी रहा कि मक्सर अमीर खासकर शाही खान दान के लोगों को यह इज्जत दी जाती थी कि वे खासे के लिए खास - खास क़िस्म के खाने रोज़ाना भेजा करते थे ।
चुनांचे हमारे दोस्त नवाब मुहम्मद शफ़ी खां साहब बहादुर नशापुरी का बयान है कि उनके नाना नवाब आग़ा अली हसन खां साहब के घर से, जो नशापुरियों में सबसे ज्यादा नामवर और प्रतिष्ठित थे, बादशाह के लिए रौशनी रोटी और घी जाया करता था।
रौग़नी रोटियां इतनी बारीक और सफ़ाई से पकायी जातीं कि मोटे काग़ज़ से ज़्यादा मोटी न होतीं । और फिर यह मुमकिन न था कि चित्तियां पड़ें और न यह मजाल थी कि किसी जगह पर कच्ची रह जायें । मीठा घी भी एक खास चीज़ था जो बड़ी देखभाल से तैयार कराया जाता था ।
दिल्ली में बिरयानी का ज्यादा रिवाज है और था । मगर लखनऊ की सफ़ाई- सुथराई ने पुलाव को उस पर तरजीह दी ।
आम लोगों की नज़र में दोनों लगभग एक ही हैं, मगर बिरयानी में मसाले की ज्यादती से सालन मिले हुए चावलों की शान पैदा हो जाती है और पुलाव में इतना स्वाद और इतनी सफ़ाई- सुथराई थी कि बिरयानी उसके सामने मलगोबा - सी मालूम होती है ।
इसमें शक नहीं कि मामूली किस्म के पुलाव से बिरयानी अच्छी मालूम होती है। वह पुलाव खुश्का मालूम होता है जो खराबी बिरयानी में नहीं होती । मगर बढ़िया किस्म के पुलाव के मुक़ाबिले बिरयानी नफ़ासतपसंद लोगों की नज़र में बहुत ही लद्धड़ और बदनुमा खाना है । बस यही फ़र्क था जिसने लखनऊ में पुलाव को ज़्यादा प्रचलित कर दिया ।
पुलाव
वहां
कहने
को
तो
सात
तरह
के
मशहूर
हैं,
इनमें
से
भी
गुलज़ार
पुलाव,
नूर
पुलाव,
कोको
पुलाव,
मोती
पुलाव
और
चंवेली
पुलाव
के
नाम
हमें
इस
वक्त
याद
हैं।
मगर सच्चाई यह है कि यहां के ऊंचे लोगों के दस्तरख्वान पर बीसियों तरह के पुलाव हुआ करते थे । मुहम्मद अली शाह के बेटे मिर्जा अजीमउश्शान ने एक शादी के मौके पर समधी मिलाप की दावत की थी जिसमें खुद नवाब वाजिद अली शाह भी शरीक थे । उस दावत में दस्तरख्वान पर नमकीन और मीठे कुल सत्तर किस्म के चावल थे।
नसीरउद्दीन हैदर के शासन काल में बाहर का एक बावरची आया जो पिस्ते और बादाम की खिचड़ी पकाता, बादाम के सुडोल और साफ़ - सुथरे चावल बनाता, पिस्ते की दाल तैयार करता और इस नफ़ासत से पकाता कि मालूम होता कि बहुत ही उम्दा, नफ़ीस और फररी माश की खिचड़ी है मगर खाइये तो और ही लज्जत थी और ऐसा ज़ायका जिसका मज़ा ज़बान को जिंदगी भर न भूलता ।
मशहूर है कि नवाब प्रासफ़उद्दौला के सामने एक नया बावरची पेश हुमा, पूछा गया, “क्या पकाते हो?
“कहा, "सिर्फ माश (उड़द) पकाता हूं ।
“पूछा, " तनख्वाह क्या लोगे? " कहा, "पांच सौ रुपये । " नवाब ने नौकर रख लिया । मगर उसने कहा, "मैं चंद शर्तों पर नौकरी करूंगा । " पूछा, “वो शर्त क्या हैं? " कहा, “जब हुजूर को मेरे हाथ की दाल का शौक़ हो एक रोज़ पहले से हुक्म हो जाये और जब इत्तला दूं कि तैयार है तो हुजूर उसी वक्त खालें । " नवाब ने शर्ते भी मंजूर कर ल।
चंद माह के बाद उसे दाल पकाने का हुक्म हुआ । उसने तैयार की और नवाब को खबर की । उन्होंने कहा, " अच्छा दस्तरख्वान बिछा । " मगर नवाब बातों में लगे रहे । उसने जाकर फिर इत्तला दी कि " खासा तैयार है। " नवाब को फिर पाने में देर हुई । उसने तीसरी बार खबर की और इस पर भी नवाब साहब न आये तो उसने दाल की हांडी उठाकर एक सूखे पेड़ की जड़ में उंडेल दी और इस्तीफ़ा देकर चला गया ।
नवाब को अफ़सोस हुआ, ढूंढ़वाया मगर उसका पता न लगा । मगर चंद रोज़ बाद देखा तो जिस दरख्त के नीचे दाल फेंकी गयी थी वह हरा- भरा हो गया था ।
अमीरों का यह शौक़ देखकर बावरचियों ने भी तरह -तरह की नयी चीजें ईजाद करना शुरू कर दी: किसी ने पुलाव अनारदाना ईजाद किया , उसमें हर चावल प्राधा पुलक की तरह लाल और चमकदार होता और प्राधा सफेद, मगर उसमें भी शीशे की - सी चमक मौजूद होती ।
जब दस्तरख्वान पर लाकर लगाया जाता तो मालूम होता कि प्लेट में चितकबरे रंग के जवाहिरात रखे हुए हैं । एक और बावरची ने नौरत्न पुलाव पकाकर पेश किया जिस में नौरत्न के मशहूर जवाहिरात की तरह नौ रंग के चावल मिला दिये और फिर. रंगों की सफ़ाई और आबोताब अजीब लुत्फ़ पैदा कर रही थी । इसी तरह की खुदा जाने कितनी ईजादें हो गयीं जो तमाम घरों और बावरचीखानों में फैल गयीं ।
खाना तैयार करने वाले तीन गिरोह हैं: पहले
देगशोर जिनका काम देगों का धोना और बावरांचयों की मातहती में मजदूरी करना है; दूसरे बावरची, ये लोग खाना पकाते है और अक्सर बड़ी- बड़ी देगें तैयार करके उतारते हैं, तीसरे रकाबदार, यही लोग अपने हुनर में माहिर होते हैं । ये लोग आमतौर पर छोटी हांडियां पकाते हैं और बड़ी देगें उतारना अपनी शान और मर्तबे से नीचा काम समझते हैं ।
अगर्चे अक्सर बावरची भी छोटी हांडियां पकाते हैं मगर रकाबदारों का काम सिर्फ छोटी हांडियों तक सीमित था ।
ये लोग मेवों के फूल कतरते,खाना निकालने और लगाने में सलीक़ा , नफ़ासत और तकल्लुफ़ जाहिर करते । चोभों और कावों में जो पुलाव ज्यादा निकाला जाता उसपर मेवे और दूसरे तरीकों से गुलकारियां करते और बेल - बूटे बनाते थे ।बहत ही नफ़ीस और स्वादिष्ट मुरब्बे और अचार तैयार करते और खानों मेंअपनी दिलचस्पी के कारण सैकड़ों तरह की नवीनताएं पैदा करते ।
गाजीउद्दीन हैदर को जो अवध के पहले बादशाह थे, परांठे पसंद थे । उनका बावरची हर रोज़ छह परांठे पकाता और फी परांठा पांच सेर के हिसाब से ३० सेर घी रोज़ लिया करता ।
एक दिन प्रधान मंत्री मोतमद उद्दौला अागा मीर ने शाही बावरची को बुलाकर पूछा, " अरे भई यह तीस सेर घी क्या होता है? " कहा, " हुजूर परांठे पकाता हूं। " कहा, " भला मेरे सामने तो पकायो। " उसने कहा, " बहुत खूब ।” परांठे पकाये ।
जितना घी खपा खपाया और जो बाकी बचा फेंक दिया । मोतमद उद्दौला आग़ा मीर ने यह देख कर हैरत से कहा, "पूरा घी तो खर्च नहीं हरा? उसने कहा, “अब यह घी तो बिल्कुल तेल हो गया, इस काविल थोड़े ही है कि किसी और खाने में लगाया जाय ।
“वज़ीर से जवाब तो न बन पड़ा मगर हुक्म दे दिया कि, " प्राइंदा से सिर्फ पांच सेर घी दिया जाया करे, फ़ी परांठा एक सेर घी बहुत है । " बावरची ने कहा, बेहतर, मैं इतने ही घी में पका दिया करूंगा । " मगर बज़ीर की रोक -टोक से ऐसा नाराज़ हया कि मामूली किस्म के परांठे पकाकर बादशाह के खाने पर भेज दिये ।
जब कई दिन यही हालत रही तो बादशाह ने शिकायत की कि " ये परांठे प्रब कैसे प्राते हैं? " बावरची ने अर्ज किया, " हुजूर जैसे परांठे नवाब मोतमदउद्दौला बहादुर का हुक्म है पकाता हूं । " बादशाह ने उसकी असल वजह पूछी तो उसने सारा हाल बयान कर दिया । फ़ौरन मोतमदउद्दौला की याद हुई । उन्होंने अर्ज किया, " जहांपनाह, ये लोग ख्वाहमख्वाह को लूटते हैं ।
“बादशाह ने
इसके
जवाब
में
दस
-पांच
थप्पड़
और
घूसे
रसीद
किये
।
खूब
ठोंका
और
कहा,
“तुम
नहीं
लूटते
हो
तुम
जो
सारी
सल्तनत
और
सारे
मुल्क
को
लूटे
लेते
हो
इसका
खयाल
नहीं?
यह
जो
थोड़ा
सा
घी
ज्यादा
ले
लेता
है
और
वह
भी
मेरे
खासे
के
लिए,
यह
तुम्हें
नहीं
गवार
है?
“बहरहाल मोतमदउद्दौला ने तौबा की, कान अमेठे तो खिलप्रत प्राता हुप्रा जो इस बात की निशानी मानी जाती है कि आज जहांपनाह ने अपना स्नेह भरा हाथ फेरा है । फिर अपने घर पाये । उसके बाद उन्होंने कभी उस रकाबदार पर एतराज़ न किया और वह उसी तरह ३० सेर घी रोज लेता रहा।
नवाब अबुल कासिम खां एक शौक़ीन रईस थे । उनके यहां बहुत भारी पुलाव पकता। 34 सेर गोश्त की यखनी तैयार करके नियार ली जाती और उसमें चावल दम किये जाते ।
और फिर इस मजे के साथ कि ग्रास मुंह में रखते ही मालूम होता कि सब चावल खुद ही घुलकर हलक से उतर गये । फिर उसके साथ ऐसे हल्के कि क्या मजाल जो ज़रा भी महसूस हो सके कि उसमें किसी किस्म की गरिष्ठता है । इतनी ही या इससे ज्यादा ताक़त का पुलाव वाजिद अली शाह की खास महल साहिबा के लिए रोज तैयार हुआ करता था ।
अवध के अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह के साथ मटिया बुर्ज में एक रईस थे जिनका मुंशीउस्सुलतान बहादुर खिताब था । बड़े वज़ादार और नफ़ीस मिज़ाज शौकीनों में थे । खाने का बेहद शौक़ था और प्रगर्चे कई बाकमाल बावरची मौजूद थे मगर उन्हें, जब तक दो-एक चीजें खुद अपने हाथ से न पका लेते, खाने में मजा न आता ।
आखिर उनके अच्छे खाने की यहां तक ख्याति फैली कि वाजिद अली शाह कहा करते, " अच्छा तो मंशी उस्सुलतान खाते हैं, मैं क्या अच्छा खाऊंगा । " बचपन में छह- सात बरस तक मटिया बुर्ज में उन्हीं के साथ रहा और उन्हीं के साथ दस्तरख्वान पर शरीक होता रहा ।
मैंने उनके दस्तरख्वान पर तीस -चालीस किस्म के पुलाव और बीसियों किस्म के सालन देखे जिनमें से बाज़ ऐसे थे कि फिर कभी खाना नसीव न हुए । उन्हें हलवा सोहन का भी बड़ा शौक़ था जिसका ज़िक्र यथा स्थान किया जायेगा ।
आखिर
ज़माने
में
और
ग़दर
के
बाद
लखनऊ
में
हकीम
बंदा
मेहदी
मरहम
को
खाने
और
पहनने
का
बेहद
शौक
था
और
बड़े-बड़े
दौलतमंद
और
शौकीन
लोगों
को
यक़ीन
है
कि
जैसा
खाना
उन्होंने
खाया
और
जैसा
कपड़ा
उन्होने
पहना
उस
ज़माने
में
बहुत
कम
किसी
को
नसीब
हो
सका
।
हमारे एक बुजुर्ग दोस्त फ़रमाते हैं, " हमारे खानदान से हकीम साहब से बहुत रन्त - ज़ब्त था । एक दिन हकीम साहब ने हमारे वालिद और चचा को बुला भेजा कि एक पहलवान की दावत है, आप भी आकर लुत्फ़ देखिये। वालिद तशरीफ़ ले गये और मैं भी उनके साथ गया ।
वहां जाकर मालूम हुअा कि वह पहलवान रोज़ सुबह को बीस सेर दूध पीता है, उस पर ढाई-तीन सेर मेवा यानी बादाम और पिस्ते खाता है और दोपहर और शामको ढ़ाई सेर अाटे की रोटियां और एक दरम्याने दर्जे का बकरा खा जाता है । और इसी गिज़ा के मुताबिक उसका जिस्म भी था ।
वह नाश्ते के लिए बेचैन था और बार-बार तक़ाज़ा कर रहा था कि खाना जल्दी मंगवाइये । मगर हकीम साहब जानबूझ कर टाल रहे थे । यहां तक कि भूख की सस्ती ने उसे बेचैन कर दिया और अब वह नाराज़ होकर उठने लगा । तब हकीम साहब खाना भेजने का वायदा करके अंदर चले गये ।
थोड़ी देर और टाला और जब देखा कि अब वह भूख बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकता तो मेहरी के हाथ एक स्वान भेजा जिसकी सूरत देखते ही पहलवान साहब की जान में जान पायी मगर जब उसे खोला तो एक छोटी तश्तरी में थोड़ा- सा पुलाव था जिसकी मात्रा छटांक भर से ज्यादा न होगी।
उस
खाऊ
मेहमान
को
यह
चावल
देख
कर
बडा
तंश
आया
जो
उसके
एक
ग्रास
के
लिए
भी
काफ़ी
न
थे
।
इरादा
किया
कि
उठकर
चला
जाये
।
मगर
लोगों
ने
समझा
- बुझाकर
रोका
और
उसने
मजबूरन
वह
तश्तरी
उठाकर
मुंह
में
डाल
ली
और
वगर
मुंह
चलाए
निगल
गया
।
पाच मिनट के बाद उसने पानी मांगा और उसके पांच मिनट बाद फिर पानी पिया और डकार ली । अब अंदर से खाने के ख्वान पाये, दस्तरख्वान बिछा। खुद हकीम साहब भी पाये, ग्वाना चुना गया । और वही पुलाव जिस में से एक ग्रास पहले भेजा था उसकी प्लेट जिसमे कोई डेढ़ पाव चावल होंगे हकीम साहब के सामने लगायी गयी ।
हकीम साहब ने उस प्लेट को पहलवान के सामने पेश किया और कहा. “देखिये यह वही पुलाव है या कोई और? उसने माना कि वही है । हकीम माहब ने कहा, “तो अब खाइये ।
मुझे अफ़सोस है कि इसकी तैयारी में देर हुई और आपको तकलीफ़ उठानी पड़ी । पहलवान ने कहा, " मगर अब मुझे माफ फर्माइये । मैं उसी पहले लुक्मे से सेर (तृत्त) हो गया । और अब क चावल भी नहीं खा सकता । हज़ारों बार आग्रह किया मगर उसने बिल्कुल हाथ रोक लिया और कहा, खाऊं क्योंकर? जब पेट मे जगह भी हो ।
हकीम साहब ने चावल लेकर सब खा लिये और उससे कहा, बीस -बीस सेर और तीम -तीम सेर बा जाना इमान की गिजा नहीं, यह तो गाय - भैस की गिजा हुई। इंसान की गिजा यह है कि चंद लुप खाये मगर उनसे कूवन और नवानाई वह पाये जो बीस -तीस सेर ग़ल्ला खाने में भी न पा सके। अप इस एक लुक्म में सेर हो गये हैं, कल फिर पापकी दावत है ।
कल पाकर बताइयेगा कि इस एक लक्में से प्रापको वैसी ही क़वत और तवानाई महसूस हुई जैसी कि बीस सेर दूध और सेरों मेवे और गोश्त और ग़ल्ले से हासिल होती थी या उसमे कम?
और हम सबको भी हकीम साहब ने दूसरे दिन बुलाया । दूसरे दिन उम पहलवान ने पाकर बयान किया कि मुझे जिंदगी भर ऐसी तवानाई और चौचाली नसीब नहीं हई जैसी कि कल से आज तक