विदेश लोगों को छुआछूत के बारे में पता तो है लेकिन वास्तविक जीवन में इससे सबक न पड़ने के कारण, वे यह नहीं जान सकते कि दरअसल यह प्रथा कितनी दमनकारी है। उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में हिंदुओं के गाँव के एक किनारे कुछ अछूत रहते हैं, हर रोज गाँव का मैला उठाते हैं, हिंदुओं के दरवाजे पर भोजन की भीख माँगते हैं, हिंदू बनिया की दुकान से मसाले और तेल खरीदते वक्त कुछ दूरी पर खड़े होते हैं, गाँव को हर मायने में अपना मानते हैं और फिर भी गाँव के किसी सामान को कभी छूते नहीं या उसे अपनी परछाईं से भी दूर रखते हैं।
अछूतों के प्रति ऊँची जाति के हिंदुओं के व्यवहार को बताने का बेहतर तरीका क्या हो सकता है। इसके दो तरीके हो सकते हैं। पहला, सामान्य जानकारी दी जाए या फिर दूसरा, अछूतों के साथ व्यवहार के कुछ मामलों का वर्णन किया जाए। मुझे लगा कि दूसरा तरीका ही ज्यादा कारगर होगा। इन उदाहरणों में कुछ मेरे अपने अनुभव हैं तो कुछ दूसरों के अनुभव। मैं अपने साथ हुई घटनाओं के जिक्र से शुरुआत करता हूँ।
बचपन में दुस्वप्न बनी कोरेगाँव की यात्रा
हमारा परिवार मूल रूप से बांबे प्रेसिडेंसी के रत्नागिरी जिले में स्थित डापोली तालुके का निवासी है। ईस्ट इंडिया कंपनी का राज शुरू होने के साथ ही मेरे पुरखे अपने वंशानुगत धंधे को छोड़कर कंपनी की फौज में भर्ती हो गए थे। मेरे पिता ने भी परिवार की परंपरा के मुताबिक फौज में नौकरी कर ली।
वे अफसर की रैंक तक पहुँचे और सूबेदार के पद से सेवनिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद मेरे पिता परिवार के साथ डापोली गए, ताकि वहाँ पर फिर से बस जाएँ। लेकिन कुछ वजहों से उनका मन बदल गया। परिवार डापोली से सतारा आ गया, जहाँ हम
1904 तक रहे।
मेरी याददाश्त के मुताबिक पहली घटना
1901 की है, जब हम सतारा में रहते थे। मेरी माँ की मौत हो चुकी थी। मेरे पिता सतारा जिले में खाटव तालुके के कोरेगाँव में खजांची की नौकरी पर थे, वहाँ बंबई की सरकार अकाल पीड़ित किसानों को रोजगार देने के लिए तालाब खुदवा रही थी। अकाल से हजारों लोगों की मौत हो चुकी थी।
मेरे पिता जब कोरेगाँव गए तो मुझे, मेरे बड़े भाई और मेरी बड़ी बहन के दो बेटों को (बहन की मौत हो चुकी थी) मेरी काकी और कुछ सहृदय पड़ोसियों के जिम्मे छोड़ गए। मेरी काकी काफी भली थीं लेकिन हमारी खास मदद नहीं कर पाती थीं।
वे कुछ नाटी थीं और उनके पैरों में तकलीफ थी, जिससे वे बिना किसी सहारे के चल-फिर नहीं पाती थीं। अक्सर उन्हें उठा कर ले जाना पड़ता था। मेरी बहनें भी थीं। उनकी शादी हो चुकी थी और वे अपने परिवार के साथ कुछ दूरी पर रहती थीं।
खाना पकाना हमारे लिए एक समस्या थी। खासकर इसलिए कि हमारी काकी शारीरिक अक्षमता के कारण काम नहीं कर पाती थीं। हम चार बच्चे स्कूल भी जाते थे और खाना भी पकाते थे। लेकिन हम रोटी नहीं बना पाते थे इसलिए पुलाव से काम चलाते थे। पुलाव बनाना सबसे असान था, क्योंकि चावल और गोश्त मिलाने से ज्यादा इसमें कुछ नहीं करना पड़ता था।
मेरे पिता खजांची थे, इसलिए हमें देखने के लिए सतारा से आना उनके लिए संभव नहीं हो पाता था। इसलिए उन्होंने चिट्ठी लिखी कि हम गर्मियों की छुट्टियों में कोरेगाँव आ जाएँ। हम बच्चे यह सोचकर ही काफी उत्तेजित हो गए, क्योंकि तब तक हममें से किसी ने भी रेलगाड़ी नहीं देखी थी।
भारी तैयारी हुई। सफर के लिए अंग्रेजी स्टाइल के नए कुर्ते, रंग-बिरंगी नक्काशीदार टोपी, नए जूते, नई रेशमी किनारी वाली धोती खरीदी गई। मेरे पिता ने यात्रा का पूरा ब्यौरा लिखकर भेजा था और कहा था कि कब चलोगे यह लिख भेजना ताकि वे रेलवे स्टेशन पर अपने चपरासी को भेज दें जो हमें कोरेगाँव तक ले जाएगा।
इसी इंतजाम के साथ मैं, मेरा भाई और मेरी बहन का बेटा सतारा के लिए चल पड़े। काकी को पड़ोसियों के सहारे छोड़ आए, जिन्होंने उनकी देखभाल का वायदा किया था।
रेलवे स्टेशन हमारे घर से दस मील दूर था, इसलिए स्टेशन तक जाने के लिए ताँगा किया गया। हम नए कपड़े पहन कर खुशी में झूमते हुए घर से निकले, लेकिन काकी हमारी विदाई पर अपना दुख रोक नहीं सकीं और जोर-जोर से रोने लगीं।
हम स्टेशन पहुँचे तो मेरा भाई टिकट ले आया और उसने मुझे व बहन के बेटे को रास्ते में खर्च करने के लिए दो-दो आना दिए। हम फौरन शाहखर्च हो गए और पहले नींबू-पानी की बोतल खरीदी। कुछ देर बाद गाड़ी ने सीटी बजाई तो हम जल्दी-जल्दी चढ़ गए, ताकि कहीं छूट न जाए। हमें कहा गया था कि मसूर में उतरना है, जो कोरेगाँव का सबसे नजदीकी स्टेशन है।
ट्रेन शाम को पाँच बजे मसूर में पहुँची और हम अपने सामान के साथ उतर गए। कुछ ही मिनटों में ट्रेन से उतरे सभी लोग अपने ठिकाने की ओर चले गए। हम चार बच्चे प्लेटफार्म पर बच गए। हम अपने पिता या उनके चपरासी का इंतजार कर रहे थे।
काफी देर बाद भी कोई नहीं आया। घंटा भर बीत गया तो स्टेशन मास्टर हमारे पास आया। उसने हमारा टिकट देखा और पूछा कि तुम लोग क्यों रुके हो। हमने उन्हें बताया कि हमें कोरेगाँव जाना है और हम अपने पिता या उनके चपरासी का इंतजार कर रहे हैं।
हम नहीं जानते कि कोरेगाँव कैसे पहुँचेंगे। हमने कपड़े-लत्ते अच्छे पहने हुए थे और हमारी बातचीत से भी कोई नहीं पकड़ सकता था कि हम अछूतों के बच्चे हैं। इसलिए स्टेशन मास्टर को यकीन हो गया था कि हम ब्राह्मणों के बच्चे हैं। वे हमारी परेशानी से काफी दुखी हुए।
लेकिन हिंदुओं में जैसा आम तौर पर होता है, स्टेशन मास्टर पूछ बैठा कि हम कौन हैं। मैंने बिना कुछ सोचे-समझे तपाक से कह दिया कि हम महार हैं (बंबई प्रसिडेंसी में महार अछूत माने जाते हैं) । वह दंग रह गया। अचानक उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। हम उसके चेहरे पर वितृष्णा का भाव साफ-साफ देख सकते थे।
वह फौरन अपने कमरे की ओर चला गया और हम वहीं पर खड़े रहे। बीस-पच्चीस मिनट बीत गए, सूरज डूबने ही वाला था। हम हैरान-परेशान थे। यात्रा के शुरुआत वाली हमारी खुशी काफूर हो चुकी थी। हम उदास हो गए। करीब आधे घंटे बाद स्टेशन मास्टर लौटा और उसने हमसे पूछा कि तुम लोग क्या करना चाहते हो।
हमने कहा कि अगर कोई बैलगाड़ी किराए पर मिल जाए तो हम कोरेगाँव चले जाएँगे, और अगर बहुत दूर न हो तो पैदल भी जा सकते हैं।
वहाँ
किराए पर जाने के लिए कई बैलगाड़ियाँ थीं लेकिन स्टेशन मास्टर से मेरा महार कहना गाड़ीवानों को सुनाई पड़ गया था और कोई भी अछूत को ले जाकर अपवित्र होने को तैयार नहीं था। हम दूना किराया देने को तैयार थे लेकिन पैसों का लालच भी काम नहीं कर रहा था।
हमारी ओर से बात कर रहे स्टेशन मास्टर को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। अचानक उसके दिमाग में कोई बात आई और उसने हमसे पूछा, ‘क्या तुम लोग गाड़ी हाँक सकते हो?’ हम फौरन बोल पड़े, ‘हाँ, हम हाँक सकते हैं।‘ यह सुनकर वह गाड़ीवानों के पास गया और उनसे कहा कि तुम्हें दोगुना किराया मिलेगा और गाड़ी वे खुद चलाएँगे। गाड़ीवान खुद गाड़ी के साथ पैदल चलता रहे। एक गाड़ीवान राजी हो गया। उसे दूना किराया मिल रहा था और वह अपवित्र होने से भी बचा रहेगा।
शाम करीब
6.30 बजे हम चलने को तैयार हुए। लेकिन हम इस बात से चिंतित थे कि अंधेरा होने से पहले हम कोरेगांव पहुंच पायेंगे कि नहीं, इसलिए हम आश्वस्त होने के बाद ही स्टेशन छोड़ना चाहते थे कि हम अँधेरे होने के पहले कोरेगाँव पहुँच जाएँगे। हमने गाड़ीवान से पूछा कि कोरेगाँव कितनी दूर है और कितनी देर में पहुँच जाएँगे।
उसने बताया कि तीन घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा। उसकी बात पर यकीन करके हमने अपना सामान गाड़ी पर रखा और स्टेशन मास्टर को शुक्रिया कहकर गाड़ी में चढ़ गए। हममें से एक ने गाड़ी सँभाली और हम चल पड़े। गाड़ीवान बगल में पैदल चल रहा था।
स्टेशन से कुछ दूरी पर एक नदी थी। बिलकुल सूखी हुई, उसमें कहीं-कहीं पानी के छोटे-छोटे गड्ढे थे। गाड़ीवान ने कहा कि हमें यहाँ रुककर खाना खा लेना चाहिए, वरना रास्ते में कहीं पानी नहीं मिलेगा। हम राजी हो गए। उसने किराए का एक हिस्सा माँगा ताकि बगल के गाँव में जाकर खाना खा आए।
मेरे भाई ने उसे कुछ पैसे दिए और वह जल्दी आने का वादा करके चला गया। हमें भूख लगी थी। काकी ने पड़ोसी औरतों से हमारे लिए रास्ते के लिए कुछ अच्छा भोजन बनवा दिया था। हमने टिफिन बॉक्स खोला और खाने लगे।
अब हमें पानी चाहिए था। हममें से एक नदी वाले पानी के गड्ढे की ओर गया। लेकिन उसमें से तो गाय-बैल के गोबर और पेशाब की बदबू आ रही थी। पानी के बिना हमने आधे पेट खाकर ही टिफिन बंद कर दिया और गाड़ीवान का इंतजार करने लगे। काफी देर तक वह नहीं आया। हम चारों ओर उसे देख रहे थे।
आखिरकार
वह आया और हम आगे बढ़े। चार-पाँच मील हम चले होंगे कि अचानक गाड़ीवान कूदकर गाड़ी पर बैठ गया और गाड़ी हाँकने लगा। हम चकित थे कि यह वही आदमी है जो अपवित्र होने के डर से गाड़ी में नहीं बैठ रहा था लेकिन उससे कुछ पूछने की हिम्मत हम नहीं कर पाए। हम बस जल्दी से जल्दी कारेगाँव पहुँचना चाहते थे।
लेकिन जल्दी ही अँधेरा छा गया। रास्ता नहीं दिख रहा था। कोई आदमी या पशु भी नजर नहीं आ रहा था। हम डर गए। तीन घंटे से ज्यादा हो गए थे। लेकिन कोरेगाँव का कहीं नामोनिशान तक नहीं था। तभी हमारे मन में यह डर पैदा हुआ कि कहीं यह गाड़ीवान हमें ऐसी जगह तो नहीं ले जा रहा है कि हमें मारकर, हमारा सामान लूट ले।
हमारे पास सोने के गहने भी थे। हम उससे पूछने लगे कि कोरेगाँव और कितना दूर है। वह कहता जा रहा था, ‘ज्यादा दूर नहीं है, जल्दी ही पहुँच जाएँगे। रात के दस बज चुके थे। हम डर के मारे सुबकने लगे और गाड़ीवान को कोसने लगे। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
अचानक हमें कुछ दूर पर एक बत्ती जलती दिखाई दी। गाड़ीवान ने कहा, ‘वह देखो, चुंगी वाले की बत्ती है। रात में हम वहीं रुकेंगे। हमें कुछ राहत महसूस हुई। आखिर दो घंटे में हम चुंगी वाले की झोपड़ी तक पहुँचे।
यह एक पहाड़ी की तलहटी में उसके दूसरी ओर स्थित थी। वहाँ पहुँचकर हमने पाया कि बड़ी संख्या में बैलगाड़ियाँ वहाँ रात गुजार रही हैं। हम भूखे थे और खाना, खाना चाहते थे लेकिन पानी नहीं था। हमने गाड़ीवान से पूछा कि कहीं पानी मिल जाएगा। उसने हमें चेताया कि चुंगी वाला हिंदू है और अगर हमने सच बोल दिया कि हम महार हैं तो पानी नहीं मिल पाएगा। उसने कहा, ‘कहो कि तुम मुसलमान हो और अपनी तकदीर आजमा लो।‘
उसकी सलाह पर मैं चुंगी वाले की झोपड़ी में गया और पूछा कि थोड़ा पानी मिल जाएगा। उसने पूछा, ‘कौन हो? मैंने कहा कि हम मुसलमान हैं। मैंने उससे उर्दू में बात की जो मुझे अच्छी आती थी। लेकिन यह चालाकी काम नहीं आई। उसने रुखाई से कहा, ‘तुम्हारे लिए यहाँ पानी किसने रखा है? पहाड़ी पर पानी है जाओ वहाँ से ले आओ। मैं अपना-सा मुँह लेकर गाड़ी के पास लौट आया। मेरे भाई ने सुना तो कहा कि चलो सो जाओ।
हमें भूखे सोना पड़ रहा है और पानी इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि हम अछूत हैं।
बैल खोल दिए गए और गाड़ी जमीन पर रख दी गई। हमने गाड़ी के निचले हिस्से में बिस्तर डाला और जैसे-तैसे लेट गए। मेरे दिमाग में चल रहा था कि हमारे पास भोजन काफी है, भूख के मारे हमारे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं लेकिन पानी के बिना हमें भूखे सोना पड़ रहा है और पानी इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि हम अछूत हैं।
मैं यही सोच रहा था कि मेरे भाई के मन में एक आशंका उभर आई। उसने कहा कि हमें सभी एक साथ नहीं सोना चाहिए, कुछ भी हो सकता है इसलिए एक बार में दो लोग सोएँगे और दो लोग जागेंगे। इस तरह पहाड़ी के नीचे हमारी रात कटी।
तड़के पाँच बजे गाड़ीवान आया और कहने लगा कि हमें कारेगाँव के लिए चल देना चाहिए। हमने मना कर दिया और उससे आठ बजे चलने को कहा। हम कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। वह कुछ नहीं बोला। आखिर हम आठ बजे चले और 11 बजे कोरेगाँव पहुँचे।
मेरे
पिता हम लोगों को देखकर हैरान थे। उन्होंने बताया कि उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं मिली थी। हमने कहा कि हमने चिट्ठी भेजी थी। बाद में पता चला कि मेरे पिता के नौकर को चिट्ठी मिली थी, लेकिन वह उन्हें देना भूल गया।
इस घटना की मेरे जीवन में काफी अहमियत है। मैं तब नौ साल का था। इस घटना की मेरे दिमाग पर अमिट छाप पड़ी। इसके पहले भी मैं जानता था कि मैं अछूत हूँ और अछूतों को कुछ अपमान और भेदभाव सहना पड़ता है। मसलन, स्कूल में मैं अपने बराबरी के साथियों के साथ नहीं बैठ सकता था।
मुझे एक कोने में अकेले बैठना पड़ता था। मैं यह भी जानता था कि मैं अपने बैठने के लिए एक बोरा रखता था और स्कूल की सफाई करने वाला नौकर वह बोरा नहीं छूता था क्योंकि मैं अछूत हूँ। मैं बोरा रोज घर लेकर जाता और अगले दिन लाता था।
स्कूल में मैं यह भी जानता था कि ऊँची जाति के लड़कों को जब प्यास लगती तो वे मास्टर से पूछकर नल पर जाते और अपनी प्यास बुझा लेते थे। पर मेरी बात अलग थी। मैं नल को छू नहीं सकता था। इसलिए मास्टर की इजाजत के बाद चपरासी का होना जरूरी था। अगर चपरासी नहीं है तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था।
घर में भी कपड़े मेरी बहन धोती थी। सतारा में धोबी नहीं थे, ऐसा नहीं था। हमारे पास धोबी को देने के लिए पैसे नहीं हो, ऐसी बात भी नहीं थी। हमारी बहन को कपड़े इसलिए धोने पड़ते थे क्योंकि हम अछूतों का कपड़ा कोई धोबी धोता नहीं था। हमारे बाल भी मेरी बड़ी बहन काटती थी क्योंकि कोई नाई हम अछूतों के बाल नहीं काटता था।
मैं यह सब जानता था। लेकिन उस घटना से मुझे ऐसा झटका लगा जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। उसी से मैं छुआछूत के बारे में सोचने लगा। उस घटना के पहले तक मेरे लिए सब कुछ सामान्य-सा था, जैसा कि सवर्ण हिंदुओं और अछूतों के साथ आम तौर पर होता है।
पश्चिम से लौटकर आने के बाद बड़ौदा में रहने की जगह नहीं मिली
पश्चिम से मैं
1916 में भारत लौट आया। महाराजा बड़ौदा की बदौलत मैं अमरीका उच्च शिक्षा प्राप्त करने गया। मैंने कोलंबिया विश्वविद्यालय न्यूयार्क में
1913 से
1917 तक पढ़ाई की।
1917 में मैं लंदन गया। मैंने लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में परास्नातक में दाखिला लिया।
1918 में मुझे अपनी अधूरी पढ़ाई छोड़कर भारत आना पड़ा।
चूँकि मेरी पढ़ाई का खर्चा बड़ौदा स्टेट ने उठाया था इसलिए उसकी सेवा करने के लिए मैं मजबूर था। (इसमें जो तारीखें लिखी हैं वो थोड़ी स्पष्ट नहीं है) इसीलिए वापस आने के बाद मैं सीधा बड़ौदा स्टेट गया। किन वजहों से मैंने बड़ौदा स्टेट छोड़ा उनका मेरे आज के उद्देश्य से कोई संबंध नहीं है, और इसीलिए यहाँ मैं उस बात में नहीं जाना चाहता हूँ। मैं सिर्फ
बड़ौदा में मुझे किस तरह के सामाजिक अनुभव हुए उसी पर बात करूँगा और उसी को विस्तार से बताने तक खुद को सीमित रखूँगा।
यूरोप और अमरीका में पाँच साल के प्रवास ने मेरे भीतर से ये भाव मिटा दिया कि मैं अछूत हूँ और यह कि भारत में अछूत कहीं भी जाता है तो वो खुद अपने और दूसरों के लिए समस्या होता है। जब मैं स्टेशन से बाहर आया तो मेरे दिमाग में अब एक ही सवाल हावी था कि मैं कहाँ जाऊँ, मुझे कौन रखेगा।
मैं बहुत गहराई तक परेशान था। हिंदू होटल जिन्हें विशिष्ट कहा जाता था, को मैं पहले से ही जानता था। वे मुझे नहीं रखेंगे। वहाँ रहने का एकमात्र तरीका था कि मैं झूठ बोलूँ। लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं था। क्योंकि मैं अच्छे से जानता था कि अगर मेरा झूठ पकड़ा गया तो उसके क्या परिणाम होंगे। वो पहले से नियत थे। मेरे कुछ मित्र बड़ौदा के थे जो अमरीका पढ़ाई करने गए थे। अगर मैं उनके यहाँ गया तो क्या वो मेरा स्वागत करेंगे
मैं खुद को आश्वस्त नहीं कर सका। हो सकता है कि एक अछूत को अपने घर में बुलाने पर वे शर्मिंदा महसूस करें। मैं थोड़ी देर तक कि इसी पशोपेश में स्टेशन पर खड़ा रहा। फिर मुझे सूझा कि पता करूँ कि कैंप में कोई जगह है। तब तक सारे यात्री जा चुके थे।
मैं अकेले बच गया था। कुछ एक गाड़ी वाले जिन्हे अब तक कोई सवारी नहीं मिली थी वो मुझे देख रहे थे और मेरा इंतजार कर रहे थे। मैंने उनमें से एक को बुलाया और पता किया कि क्या कैंप के पास कोई होटल है। उसने बताया कि एक पारसी सराय है और वो पैसा लेकर ठहरने देते हैं। पारसी लोगों द्वारा ठहरने की व्यवस्था होने की बात सुनकर मेरा मन खुश हो गया।
पारसी जोरास्ट्रियन धर्म को मानने वाले लोग होते हैं। उनके धर्म में छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए उनके द्वारा अछूत होने का भेदभाव होने का कोई डर नहीं था। मैंने गाड़ी में अपना बैग रख दिया और ड्राइवर से पारसी सराय में ले चलने के लिए कह दिया।
यह एक दोमंजिला सराय थी। नीचे एक बुजुर्ग पारसी और उनका परिवार रहता था। वो ही इसकी देखरेख करते थे और जो लोग रुकने आते थे उनके खान-पान की व्यवस्था करते थे। गाड़ी पहुँची। पारसी केयर
टेकर
ने मुझे ऊपर ले जाकर कमरा दिखाया। मैं ऊपर गया। इस बीच गाड़ीवान ने मेरा सामान लाकर रख दिया।
मैंने उसको पैसे देकर विदा कर दिया। मैं प्रसन्न था कि मेरे ठहरने की समस्या का समाधान हो गया। मैं कपड़े खोल रहा था। थोड़ा सा आराम करना चाहता था। इसी बीच केयरटेकर एक किताब लेकर ऊपर आया।
उसने जब मुझे देखा कि मैंने सदरी और धोती जो कि खास पारसी लोगों के कपड़े पहनने का तरीका है, नहीं पहना है तो उसने तीखी आवाज में मुझसे मेरी पहचान पूछी।
मुझे मालूम नहीं था कि यह पारसी सराय सिर्फ पारसी समुदाय के लोगों के लिए थी। मैंने बता दिया कि मैं हिंदू हूँ। वो अचंभित था और उसने सीधे कह दिया कि मैं वहाँ नहीं ठहर सकता। मैं सकते में आ गया और पूरी तरह शांत रहा। फिर वही सवाल मेरी ओर लौट आया कि कहाँ जाऊँ। मैंने खुद को सँभालते हुए कहा कि मैं भले ही हिंदू हूँ लेकिन अगर उन्हे कोई परेशानी नहीं है तो मुझे यहाँ ठहरने में कोई दिक्कत नहीं है।
उसने जवाब दिया कि “तुम यहाँ कैसे ठहर सकते हो मुझे सराय में ठहरने वालों का ब्यौरा रजिस्टर में दर्ज करना पड़ता है” मुझे उनकी परेशानी समझ में आ रही थी। मैंने कहा कि मैं रजिस्टर में दर्ज करने के लिए कोई पारसी नाम रख सकता हूँ। ‘तुम्हे इसमें क्या दिक्कत है अगर मुझे नहीं है तो। तुम्हे कुछ नहीं खोना पड़ेगा बल्कि तुम तो कुछ पैसे ही कमाओगे।‘
मैं समझ रहा था कि वो पिघल रहा है। वैसे भी उसके पास बहुत समय से कोई यात्री नहीं आया था और वो थोड़ा कमाई का मौका नहीं छोड़ना चाहता था। वो इस शर्त पर तैयार हो गया कि मैं उसको डेढ़ रुपये ठहरने और खाने का दूँगा और रजिस्टर में पारसी नाम लिखवाऊँगा।
वो नीचे गया और मैंने राहत की साँस ली। समस्या का हल हो गया था। मैं बहुत खुश था। लेकिन आह, तब तक मैं यह नहीं जानता था कि मेरी यह खुशी कितनी क्षणिक है। लेकिन इससे पहले कि मैं इस सराय वाले किस्से का दुखद अंत बताऊँ, उससे पहले मैं यह बताऊँगा कि इस छोटे से अंतराल के दौरान मैं वहाँ कैसे रहा।
इस सराय की पहली मंजिल पर एक छोटा कमरा और उसी से जुड़ा हुआ स्नान घर था, जिसमें नल लगा था। उसके अलावा एक बड़ा हाल था। जब तक मैं वहाँ रहा बड़ा हाल हमेशा टूटी कुर्सियों और बेंच जैसे कबाड़ से भरा रहा। इसी सब के बीच मैं अकेले यहाँ रहा।
केयरटेकर सुबह एक कप चाय लेकर आता था। फिर वो दोबारा
9.30 बजे मेरा नाश्ता या सुबह का कुछ खाने के लिए लेकर आता था। और तीसरी बार वो
8.30 बजे रात का खाना लेकर आता था। केयरटेकर तभी आता था जब बहुत जरूरी हो जाता था और इनमें से किसी भी मौके पर वो मुझसे बात करने से बचता था। खैर किसी तरह से ये दिन बीते।
महाराजा बड़ौदा की ओर से महालेखागार आफिस में मेरी प्रशिक्षु की नियुक्ति हो गई।
मैं ऑफिस जाने के लिए सराय को दस बजे छोड़ देता था और रात को तकरीबन आठ बजे लौटता था और जितना हो सके कंपनी के दोस्तों के साथ समय व्यतीत करता था। सराय में वापस लौट के रात बिताने का विचार ही मुझे डराने लगता था।
मैं वहाँ सिर्फ इसलिए लौटता था क्योंकि इस आकाश तले मुझे कोई और ठौर नहीं था। ऊपर वाली मंजिल के बड़े कमरे में कोई भी दूसरा इंसान नहीं था जिससे मैं कुछ बात कर पाता। मैं बिल्कुल अकेला था। पूरा हाल घुप्प अँधेरे मे रहता था।
वहाँ कोई बिजली का बल्ब, यहाँ तक कि तेल की बत्ती तक नहीं थी जिससे अँधेरा थोड़ा कम लगता। केयरटेकर मेरे इस्तेमाल के लिए एक छोटा सा दीपक लेकर आता था जिसकी रोशनी बमुश्किल कुछ इंच तक ही जाती थी।
मुझे लगता था कि मुझे सजा मिली है। मैं किसी इंसान से बात करने की लिए तड़पता था।
लेकिन वहाँ कोई नहीं था। आदमी न होने की वजह से मैंने किताबों का साथ लिया और उन्हें पढ़ता गया, पढ़ता गया। मैं पढ़ने में इतना डूब गया कि अपनी तनहाई भूल गया। लेकिन उड़ते चमगादड़, जिनके लिए वह हॉल उनका घर था, कि चेंचें की आवाजें अक्सर ही मेरे दिमाग को उधर खींच देते थे। मेरे भीतर तक सिहरन दौड़ जाती थी और जो बात मैं भूलने की कोशिश कर रहा था वो मुझे फिर से याद आ जाती थी कि मैं एक अजनबी परिस्थिति में एक अजनबी जगह पर हूँ।
कई बार मैं बहुत गुस्से में भर जाता था। फिर मैं अपने दुख और गुस्से को इस भाव से समझाता था कि भले ही ये जेल थी लेकिन यह एक ठिकाना तो है। कोई जगह न होने से अच्छा है, कोई जगह होना।
मेरी हालत इस कदर खराब थी कि जब मेरी बहन का बेटा बंबई से मेरा बचा हुआ सामान लेकर आया और उसने मेरी हालत देखी तो वह इतनी जोर-जोर से रोने लगा कि मुझे तुरंत उसे वापस भेजना पड़ा। इस हालत में मैं पारसी सराय में एक पारसी बन कर रहा।
मैं जानता था कि मैं यह नाटक ज्यादा दिन नहीं कर सकता और मुझे किसी दिन पहचान लिया जाएगा। इसलिए मैं सरकारी बंगला पाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री ने मेरी याचिका पर उस गहराई से ध्यान नहीं दिया जैसी मुझे जरूरत थी। मेरी याचिका एक अफसर से दूसरे अफसर तक जाती रही, इससे पहले कि मुझे निश्चित उत्तर मिलता मेरे लिए वह भयावह दिन आ गया।
वो उस सराय में ग्यारहवाँ दिन था। मैंने सुबह का नाश्ता कर लिया था और तैयार हो गया था और कमरे से ऑफिस के लिए निकलने ही वाला था। दरअसल रात भर के लिए जो किताबें मैंने पुस्तकालय से उधार ली थी उनको उठा रहा था कि तभी मैंने सीढ़ी पर कई लोगों के आने की आवाजें सुनी।
मुझे लगा कि यात्री ठहरने के लिए आए हैं और मैं उन मित्रों को देखने के लिए उठा। तभी मैंने दर्जनों गुस्से में भरे लंबे, मजबूत पारसी लोगों को देखा। सबके हाथ में डंडे थे, वो मेरे कमरे की ओर आ रहे थे। मैंने समझ लिया कि ये यात्री नहीं हैं और इसका सबूत उन्होंने तुरंत दे भी दिया।
वे सभी लोग मेरे कमरे में इकट्ठा हो गए और उन्होंने मेरे ऊपर सवालों की बौछार कर दी। “कौन हो तुम। तुम यहाँ क्यों आए हो, बदमाश आदमी तुमने पारसी सराय को गंदा कर दिया।”
मैं खामोश खड़ा रहा। मैं कोई उत्तर नहीं दे सका। मैं इस झूठ को ठीक नहीं कह सका। यह वास्तव में एक धोखा था और यह धोखा पकड़ा गया। मैं यह जानता था कि अगर मैं इस खेल को इस कट्टर पारसी भीड़ के आगे जारी रखता तो वे मेरी जान ले कर छोड़ते। मेरी चुप्पी और खामोशी ने मुझे इस अंजाम तक पहुँचने से बचा लिया। एक ने मुझसे कमरा कब खाली करूँगा पूछा।
उस समय सराय के बदले मेरी जिंदगी दाँव पर लगी थी। इस सवाल के साथ गंभीर धमकी छिपी थी। खैर मैंने अपनी चुप्पी ये सोचते हुए तोड़ी कि एक हफ्ते में मंत्री मेरी बंगले की दरख्वास्त मंजूर कर लेगा और उनसे विनती की कि मुझे एक हफ्ता और रहने दो। लेकिन पारसी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे।
उन्होंने अंतिम चेतावनी दी कि मैं उन्हें शाम तक सराय में नजर न आऊँ। मुझे निकलना ही होगा। उन्होंने गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा और चले गए। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था।
मेरा दिल बैठ गया था। मैं बड़बड़ाता रहा और फूट-फूट के रोया। अंततः मैं अपनी कीमती जगह, जी